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  4. It is the Dharma of times to give up constant anger or stressful state of mind
Last Modified: शनिवार, 21 सितम्बर 2024 (14:50 IST)

लगातार गुस्सा या तनावपूर्ण मनःस्थिति को त्यागना काल धर्म है

Effect Of Anger On Heart
Mental stress: गुस्सा या तनाव क्षणिक हो तो उसे लहरों की तरह मन में आई क्षणिक स्थिति ही मनोविज्ञान में मानी जाती है। लगातार गुस्सा या तनाव और कभी भी किसी भी स्थिति में गुस्सा न आना दोनों ही असाधारण मानसिक स्थिति है। कोई किसी बात पर कभी भी गुस्सा न करें तो उसे शांत चित्त या दब्बू की संज्ञा दी जाती है। इसके उलट जो बात बात पर गुस्सा करें या चौबीस घंटे बारह महीने निरंतर गुस्सा ही करें उसके इस आचरण को क्या संज्ञा दी जाए? समुद्र में भी सदैव तूफान नहीं रहता पर आज की दुनिया में मनुष्य का जीवन अपनी ही बनाई असाधारण मानसिक तनाव की सुनामी से हमेशा अशांत रहने लगा है। अकारण अनियंत्रित गुस्सा आत्मघाती ही सिद्ध होता है।
 
प्राचीन काल से मनुष्य समाज के मन, चिंतन और जीवन क्रम में गुस्से का अस्तित्व मौजूद हैं सात्विक क्रोध शब्द इसका जीवंत प्रमाण हैं। पर आज, आज की तथाकथित आधुनिक यांत्रिक जीवनचर्या और दुनिया मनुष्य मात्र को असाधारण और अकारण उत्तेजनापूर्ण और आक्रामकता भरी जिंदगी में निरंतर धकेल रही है। पर आधुनिकता के अंधे मनुष्य अपनी कल्पनाओं और तथाकथित विकसित सभ्यता में इस कदर डूब गए हैं कि मनुष्य के प्राकृतिक और मूल स्वभाव के शांत स्वरूप की अधिकांश मनुष्यों को कोई जानकारी ही नहीं है।
 
सात्विक क्रोध कपूर की तरह हवा में उड़ गया है और सतत तनाव और गुस्सा हमारा प्रायः स्थायी स्वभाव बनता जा रहा है। गुस्सा और तनाव जब जिंदगी का स्थायी स्वभाव बन जाए तो समझिए कि हमारी जिंदगी शांति सद्भाव और समन्वय को त्याग कर हिंसा और तनाव को जीवन का स्थायी भाव बना चुकी हैं और हम अप्राकृतिक जिंदगी को ही आत्मसात कर चुके हैं।
 
मनुष्य को मन, तन और जीवन के मूल स्वभाव और स्वरूप को पूरी तरह से त्याग कर यांत्रिक और आभासी दुनिया के नकारात्मक प्रभाव और मनुष्य जीवन में तरह तरह की असामान्य चुनौतियों के सामने नतमस्तक होते जाना, आज का सबसे बड़ा सवाल है। अपने आप को विपरीत परिस्थितियों से जूझने देने के बजाय परिस्थिति जन्य गुलाम मानसिकता को चुपचाप अपना लेना शायद आज की दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती है जिसका हल आज जो भी जिन्दा मनुष्य है उनकी एक मात्र, और पहली जिम्मेदारी है। गुस्सा मन, तन और जीवन की सहजता को पूरी तरह से नष्ट कर देता है। गुस्सा आना यानी मनुष्य द्वारा प्राकृतिक जीवन और विचार प्रक्रिया को नकारते हुए अप्राकृतिक जिंदगी को अपनाना ही माना जाएगा।
 
इस जगत में जीवन कई रूपों में व्यक्त हुआ है वनस्पति जगत आज के काल में भी सबसे ज्यादा प्राकृतिक अवस्था में जैसे जीवन के प्रारंभ या उदय के समय था वैसा ही आज भी प्रायः अस्तित्व में है। प्रकृति में कोई भी फूल खिलता ही है, गुस्साता नहीं, जीवन की प्राकृतिक श्रृंखला को बिना किसी हस्तक्षेप या मिलावट के जीवन की सुगंध को फैलाता है और बीज को पुनः अंकुरित होने के लिए जन्म देता है। मनुष्य ने लोभ वश या फूलों से आकर्षित होकर फूल को तोड़कर बीज निर्माण के क्रम में हस्तक्षेप किया हो पर वनस्पति जगत अपने मौन अहिंसक और जीवन के क्रम को धरती पर सनातन काल से अपने जीवन का एकमेव उद्देश्य मान कर, जीव जगत को जीवंत बनाने में अपनी मौन आहुति देने को ही जीवन माना है।
 
मानव या जीव मात्र का जीवन एक अनन्त प्रवाह है। हमारे तन-मन में रक्त और विचार का सतत प्राकृतिक प्रवाह निरंतर एक निश्चित लय में शरीर के कण कण में संचारित हो जीवन को चलाते रहता है तभी जीवन शांत भाव से प्राकृतिक रूप से चलता रहता है। पर जब मनुष्य अकारण अनियंत्रित होकर गुस्सा करता है या तनावपूर्ण मनःस्थिति में स्थायी भाव से रहता है या राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, प्रशासनिक और पारिवारिक उत्तेजना वश अपने मन और तन को तनाव ग्रस्त कर लेता है तो जीवन अप्राकृतिक दिशा में चलने लगता है।
 
जीवन प्रकृति का जीवंत उपहार है। पर जीव और जीवन दोनों को अप्राकृतिक हस्तक्षेप से जो मनोरोग भुगतने पड़ सकते हैं उनका मुख्य कारण जीव का अपने जीवन को लेकर नासमझीपूर्ण तौर तरीकों को यंत्रवत अपनाना ही माना जाएगा। प्रत्येक जीव खासकर मनुष्य को अपने जीवन और मनःस्थिति की रखवाली पूरी चौकसी से करते रहना चाहिए, कोई और इस कार्य को कर ही नहीं सकता।

मनुष्य जब अप्राकृतिक गुस्से और तनाव का दास बन जाता है तो शांति और सहजता से सहजीवन जो जीवन का मूल है लुप्त होने लगता हैं। जब हम किसी अन्य पर गुस्सा करते हैं तो मूलतः किसी अन्य को नहीं अपने आप को शांत चित्तता से वंचित करते हैं। शांति सद्भाव मूल स्वभाव है तो गुस्सा दुर्भावना मूल स्वभाव का त्याग है। अतः हम कह सकते हैं, गुस्से से परहेज़ करना या दुर्भावना को त्यागना काल धर्म है।
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