मेरठ। घंटाघर शब्द सुनते ही मुझे अपने बचपन की याद आ जाती है और गुनगुनाने लगती हूं, घंटाघर की चार घड़ी, चारों में जंजीर पड़ी, जब-जब घंटा बजता है, तब खड़ा मुसाफिर हंसता है। मेरठ शहर में स्थित घंटाघर के लिए कहा जाता है कि इसकी घड़ी के घंटे की आवाज सुनकर आसपास के गांव के लोग भी अपनी घड़ी का समय मिलाया करते थे। उसके पेंडुलम की आवाज 15 किलोमीटर तक स्पष्ट सुनाई देती रही है।
ब्रिटिश राज का समय पहरी अपनी चमक को खो चुका है, पहले लोग पेंडुलम की आवाज को सुनकर रूक जाते थे, लेकिन आज घंटाघर की दुर्दशा देखकर दुखी नजर आते हैं।
जानकारी के मुताबिक महारानी विक्टोरिया के बड़े बेटे किंग एडवर्ड की ताजपोशी के समय ऐतिहासिक मेरठ घंटाघर का शिलान्यास 1913 में तत्कालीन जिलाधिकारी जेम्स पियरसन ने किया था, जो लगभग एक साल में बनकर तैयार हुआ। इस ऐतिहासिक धरोहर की रूपरेखा, आकृति बनाने का काम प्रसिद्ध आर्किटेक्ट फतह मौहम्मद ने किया और 1914 में बनकर घंटाघर तैयार हो गया था।
मेरठ शहर के बीचोबीच इस घंटाघर पर लगाने के लिए घंडी जर्मनी से समुद्री जहाज में मंगाई गई थी, लेकिन वह जहाज डूब गया, जिसके चलते बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट में लगी घड़ी को इसमें लाकर लगाया गया। इसके चारों तरफ लगी घड़ियां वेस्टन वाच कंपनी द्वारा बनाई गई थी।
कहा जाता है कि ब्रिटिश राज में एक दिन घंटाघर की घड़ी ने अचानक से बंद हो गई। घड़ी की रिपेयरिंग के लिए जब लंबे समय तक मैकेनिक नही मिला तो उस समय के जिलाधिकारी ने जर्मनी की घड़ी कंपनी को पत्र लिखा था। जर्मनी कंपनी ने पत्र का जवाब भेजा कि लिखा कि मेरठ का रहने वाला अब्दुल अजीज एक घड़ी मैकेनिक है, उसे तत्काल प्रभाव से घड़ी सही करने के लिए मेरठ भेजा जा रहा है।
अब्दुल घड़ीसाज ने मेरठ आकर घंटाघर की घड़ी पुनः चालू कर दी तो तत्कालीन कलेक्टर ने अब्दुल अजीज को घंटाघर पर लगी घड़ियों के रख रखाव और सफाई की जिम्मेदारी सौंप दी। वही उन्हें घंटाघर के प्रथम तल पर एक कमरा दे दिया गया था, जिसमें घड़ियों का एक शोरूम स्थापित हुआ। अजीज की पीढ़ियां घंटाघर की साफ-सफाई का जिम्मा लिए हुए है।
समय की मार को झेलते मेरठ का घंटाघर भी अतिक्रमण का शिकार हो गया है। इसके चारों तरफ भीड़-भाड़ दिखाई देती है, हालत यह है कि यहां से दुपहिया वाहन निकलने भी मुश्किल हो गये है। घंटाघर की ऐतिहासिक इमारत को अस्थाई दुकानदारों ने अपने व्यापार के लिए इस्तेमाल करते हैं। वही इसके निकट टाउनहाल है। 1930 के दशक में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इसी टाउन हॉल जनसभा करके लोगों में जोश-खरोश भरा था।
स्थानीय लोगों का कहना है कि मेरठ का घंटाघर नेताजी सुभाषचंद्र को बहुत अच्छा लगा था, उन्होंने प्रशंसा की थी। लेकिन वर्तमान में अब टाउनहाल भी अपनी चमक खो चुका है, अब यहां टैक्सी स्टैंड है। वही घंटाघर अतिक्रमण की मार झेल रहा है, यह हाल तो तब है जब घंटाघर से 10 कदम की दूरी पर पुलिस अधीक्षक का दफ्तर है। 500 मीटर की दूरी पर नगर निगम का दफ्तर और मेयर, सभासद मौजूद है, लेकिन किसी को इस ऐतिहासिक धरोहर से सरोकार नही है।
मेरठ के घंटाघर की खूबसूरती के कायल सुपरस्टार शाहरुख खान भी है, वह अपनी फिल्म 'जीरो' की शूटिंग यही पर करना चाहते थे, जिसके चलते घंटाघर की घड़ियों को सही भी करवा लिए गया था, लेकिन बाद में जीरो फिल्म की शूटिंग मुम्बई में हुई और वही पर मेरठ के घंटाघर का सेटअप तैयार हुआ।
घंटाघर की 20 जून 2010 में यूपी चैंबर ऑफ इंडस्ट्रीज की मदद से यहां एक नई खरीदी कर लगाई गई, लेकिन सरकारी उपेक्षा के चलते यह फिर बंद है। मेरठ की शान घंटाघर नगर निगम की बदहाली को झेल रहा है।