वंदेऽऽऽऽऽमाऽऽऽऽऽतरम्॥
शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभनीम्
सुहासिनीम्, सुमधुर भाषिणीम्
सुखदाम् वरदाम्, मातरम्
वंदेऽऽऽऽऽमाऽऽऽऽऽतरम्॥
त्रिशं कोटि कण्ठ कलकल निनाद करल,
द्वित्रिशं कोटि भुजैधृत, खर कलवाले
केवल माँ तुमि अवले बहुबल
धारणीम्
नमामि तारिणीम्, रिपुदल वादिणीम्,
मातरम्,
वंदेऽऽऽऽऽमाऽऽऽऽऽतरम्॥
श्यामलाम्-सरलाम् सुस्मिताम्
भूषिताम् घरणीम्
भरणीम्, मातरम्
वंदेऽऽऽऽऽमाऽऽऽऽऽतरम्॥
फिल्म 'आनंदमठ' सन् 1952 में आई थी। वह सुप्रसिद्ध बंगला साहित्यकार बाबू बंकिमचंद्र चटर्जी के 'आनंदमठ' उपन्यास पर आधारित थी। फिल्मीस्तान कंपनी द्वारा निर्मित इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, गीता बाली, भारत भूषण, प्रदीप कुमार, अजीत व मुराद ने काम किया था।
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस गीत को बंकिमचंद्रजी ने ही लिखा था। इसे लता व कोरस ने गाया था। इस गीत को गाकर लता अमर हैं और उनके गाने से फिल्म-संगीत की सीमा में यह गीत भी अमर है।
बेशक इस सुभाषित गीत के साथ लता ही न्याय कर सकती थीं। उनकी पवित्र और दिव्य आवाज ने इस गीत की आंतरिक शुभ्रता को उभार-निखार दिया है। वे जब 'मातरम्' शब्द को मुखड़े के अंत में खींचती हैं- माँ को लम्बा करते हुए- तो एक अलौकिक, रोमांचकारी पुलक की अनुभूति होती है। ऐसे शीर्षस्थ परिणामों के कारण ही सिनेमा धन्य हुआ है और अपना स्वतंत्र इतिहास बनाता है, जिसे टाला नहीं जा सकता।
फिल्म 'आनंदमठ' के संगीत पर हेमंत दा की अपनी छाप है। जैसा कि उनके व्यक्तित्व और गायन में 'रहस्यवाद' का पुट रहा है, वह 'आनंदमठ' की इस धुन में भी उतर आया है। यकीनन यह गीत अपनी रहस्यमय, अलौकिक धुन के कारण अमर है। उसी अनुपात में हेमंत भी फिल्म संगीत के इतिहास का उज्ज्वल नक्षत्र बने रहेंगे।
आज के छिछोरे, पतनशील फिल्म संगीत पर यह गीत शुभ्रता के यक्ष का तमाचा है। याद आते हैं हेमंतकुमार, मोटे चश्मे से झाँकते हुए एक भद्र कापालिक से, जो इस अमर कृति को देकर धरती की भाप में घुल गए और हवा पर आवाज का तिलक खींच गए...।