यहां भगवान कृष्ण को सलामी दिए बिना आगे नहीं बढ़ता है ताजिया, जानिए क्या है श्री कृष्ण का मुहर्रम से कनेक्शन
Muharram Krishna connection: भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का संगम देखने को मिलता है। यहाँ की 'गंगा-जमुनी तहज़ीब' की मिसालें अक्सर देखने को मिलती हैं, और मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक ऐसी ही अनूठी परंपरा सदियों से चली आ रही है, जो धार्मिक सौहार्द और आपसी भाईचारे का अद्भुत प्रतीक है। मुहर्रम के जुलूस के दौरान, जब ताजिया करबला पहुंचने से पहले आगे बढ़ता है, तो वह भगवान कृष्ण को सलामी देकर ही आगे बढ़ता है। यह परंपरा लगभग 200 साल पुरानी है और आज भी उतनी ही जीवंत है।
हजारी परिवार की भगवान में आस्था
यह घटना लगभग दो शताब्दी पुरानी है। भोपाल के भंडार (भिंडर) कस्बे में हजारी नाम का एक मुस्लिम परिवार रहता था। एक दिन उन्हें तालाब में खुदाई के दौरान चतुर्भुज भगवान कृष्ण की एक प्राचीन और चमत्कारिक मूर्ति मिली थी। उस परिवार ने न केवल पूरी श्रद्धा के साथ मूर्ति की स्थापना की, बल्कि अपने खर्चे से एक भव्य मंदिर भी बनवाया। इतना ही नहीं, परिवार ने मंदिर के रखरखाव और पूजा-पाठ के लिए 5 बीघे जमीन भी दान में दे दी थी। यह कदम आज भी धार्मिक सहिष्णुता और उदारता की एक बेमिसाल मिसाल बना हुआ है।
हजारी परिवार की भगवान कृष्ण में गहरी आस्था थी। बताया जाता है कि ग्यारस (एकादशी) पर जब भगवान की मूर्ति को स्नान के लिए निकाला जाता था, तो हजारी परिवार का एक सदस्य अवश्य वहां मौजूद होता था। मान्यता थी कि केवल उस व्यक्ति के हाथों से ही मूर्ति उठती थी। यदि वह मौजूद न हो, तो सैकड़ों लोग मिलकर भी मूर्ति को हिला नहीं पाते थे।
भावनात्मक विदाई के साथ टूटी एक परंपरा, कायम है सलाम
समय के साथ, हजारी परिवार के अंतिम सदस्य ने भगवान से प्रार्थना करते हुए कहा था कि अब उनके परिवार में कोई नहीं है जो इस सेवा को आगे बढ़ा सके, इसलिए अब भगवान स्वयं ही अपनी मूर्ति को उठाएं। यह एक भावनात्मक विदाई थी, जिसने एक पुरानी परंपरा को तोड़ा, लेकिन भगवान के प्रति उनकी आस्था और समर्पण की कहानी आज भी जीवित है। मुहर्रम के जुलूस के दौरान, जब ताजिया करबला पहुंचने से पहले आगे बढ़ता है, तो वह भगवान कृष्ण को सलामी देकर ही आगे बढ़ता है।
सांस्कृतिक एकता की मिसाल: गंगा-जमुनी तहज़ीब
यह 200 साल पुरानी परंपरा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक सशक्त मिसाल है। यह परंपरा हमें सिखाती है कि जब धर्म के नाम पर दीवारें खड़ी करने की कोशिश की जाती है, तब इतिहास और विरासत मिलकर पुल बनाते हैं। भोपाल की यह अनूठी प्रथा भारत की विविधता में एकता का प्रतीक है, जहाँ हर मजहब का सम्मान किया जाता है और हर आस्था को गले लगाया जाता है। यह आज के समय में और भी प्रासंगिक हो जाती है, जब दुनिया में धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि असली ताकत आपसी प्रेम, सम्मान और सह-अस्तित्व में निहित है।