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Last Updated : मंगलवार, 17 सितम्बर 2019 (11:33 IST)

ट्रैफ़िक नियम नेताओं और मंत्रियों पर क्यों नहीं लागू होते

Traffic Rules | ट्रैफ़िक नियम नेताओं और मंत्रियों पर क्यों नहीं लागू होते
- विराग गुप्ता
जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के लिए 'एक देश एक क़ानून' का नारा गढ़ा गया। नए मोटर वाहन क़ानून में सख्त ज़ुर्मानों को सही ठहराने के लिए नितिन गडकरी ने आम जनता से क़ानून के पालन की संस्कृति बनाने को कहा। ट्रैफ़िक पुलिस की सीटी पर रुककर, गाड़ी की क़ीमत से ज़्यादा लगाए जा रहे जुर्माने को राष्ट्रीय कर्तव्य बताया जा रहा है।

संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सड़क दुर्घटनाओं से हो रही मौतों से लोगों को बचाना, निश्चित तौर पर सरकार की ज़िम्मेदारी है, परंतु अनुच्छेद 14 के तहत क़ानूनों को बराबरी से लागू करने से सरकार कैसे इनकार कर सकती है? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में गाड़ियों से लाल और नीली बत्ती हटाकर वीआईपी संस्कृति को कम करने की कोशिश हुई थी।

नए मोटर वाहन क़ानून के आम जनता पर एकतरफ़ा अमल से यह ज़ाहिर है कि देश में शासक-वर्ग यानी नेताओं के लिए अब भी अभिजात्य व्यवस्था का दौर जारी है। पुलिस अधिकारी यदि क़ानून तोड़ें, तो दुगने जुर्माने का क़ानून बनाया गया है। क़ानून बनाने वाले माननीय नेता लोग यदि इन कानूनों को तोड़ें तो पांच गुना जुर्माने का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए?

नेताओं के ग़ैर-क़ानूनी रोड शो
सोशल मीडिया के डिज़िटल दौर में अब, चुनावी रैली के लिए वास्तविक भीड़ जुटाना राजनेताओं के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। इसलिए अब सड़क की भीड़ में ही रैलियां करने का जुगाड़ नेताओं की नई खोज है, जिसे आम भाषा में रोड-शो कहा जाता है। रोड-शो में स्टार प्रचारक और वाहनों के काफ़िले का टीवी में सीधा प्रसारण होने से, देशभर में चुनावी फिज़ा बन जाती है।

पर अगर इसका क़ानूनी पक्ष देखें तो रोड-शो में भाग ले रहे सभी वाहनों और चालकों को स्थानीय प्रशासन के साथ रजिस्ट्रेशन कराने के नियम के साथ, ट्रैफिक नियमों के पालन की अनिवार्यता है। चुनाव आयोग के नियम के अनुसार रोड-शो छुट्टियों में या उस समय आयोजित होना चाहिए, जब आम जनता को असुविधा नहीं हो। नियम के अनुसार स्कूल, अस्पताल, ब्लड बैंक और अन्य ज़रूरी सुविधाओं वाले इलाक़ों में रोड शो का आयोजन नहीं किया जाना चाहिए।

रोड-शो के काफिले में 10 से ज़्यादा गाड़ियां नहीं हो सकतीं। चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन की अनुमति के नाम पर आयोजित हो रहे इन रोड-शो में मोटर वाहन क़ानून के साथ आईपीसी और अनेक चुनावी क़ानूनों का धड़ल्ले से उल्लंघन होता है। इस अराजकता को रोकने के लिए आम चुनावों के पहले सीएएससी संस्था के माध्यम से राज्यों के चीफ़ सेक्रेटरी और पुलिस महानिदेशकों को प्रतिवेदन भेजे गए, परंतु कोई कार्रवाई नहीं हुई।

अब हरियाणा और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। नए ट्रैफ़िक नियमों के अनुसार रोड शो के दौरान एम्बुलेंस या आपातकालीन सेवा में रुकावट आने पर हर वाहन चालक पर 10000 रुपए से पांच गुना जुर्माना लगना ही चाहिए।

नाबालिग़ के अपराध के लिए अभिभावकों की ज़िम्मेदारी है तो फिर समर्थकों की ओर से क़ानून तोड़ने पर, प्रत्याशी की जवाबदेही क्यों नहीं होनी चाहिए? ख़तरनाक ड्राइविंग, हेलमेट नहीं पहनने और शराब पीकर, रोड-शो में गाड़ी चलाने वाले समर्थकों के क़ानून तोड़ने पर प्रत्याशी के ख़िलाफ़ भी जुर्माना लगने पर सही मायने में देश में क़ानून का राज आएगा।

ग़ैर-क़ानूनी चुनावी रथ
रथयात्रा के ट्रेंड की शुरुआत आंध्रप्रदेश में एनटी रामाराव ने सन 1982-83 में किया था, जिसे आडवाणी ने राष्ट्रव्यापी विस्तार दे दिया। लोकतंत्र में सेवक कहे जाने वाले सभी दलों के नेता, भव्य सुविधा वाले इन रथों पर सवार होकर जनता से मिलने का छलावा करते हैं। इन रथों में बड़े पैमाने पर अवैध रक़म खर्च होती है, जिस वजह से आरटीओ में रजिस्ट्रेशन में भी कोई दिक्कत नहीं होती।

पर सच यह है की राजमहल की विलासिता वाले चुनावी रथों को मोटर वाहन क़ानून के तहत कोई मान्यता नहीं है। आम आदमी अपनी गाड़ी में छोटे बदलाव करे या सामान रखने के लिए निजी गाड़ी में यदि कोई कैरियर भी लगवा ले तो शहरों में पुलिसिया चालान हो जाता है।

भीड़भरे व्यावसायिक वाहनों से बने चुनावी रथ में खड़े नेताओं का अभिवादन और सड़कों पर कार्यकर्ताओं का हुजूम ग़ैर-क़ानूनी है। चुनावी रथ और उस पर चलने वाले नेताओं का सीट बेल्ट नहीं पहनने, और वाहनों में ओवरलोडिंग के लिए यदि भारी जुर्माना लगे तो फिर आम जनता पर नियमों को लादना शायद आसान हो जाए!

बाइक रैलियां और प्रदूषण कंट्रोल
मोटर वाहन क़ानून के अनुसार पॉल्यूशन सर्टिफिकेट न होने पर जुर्माने का प्रावधान है। सड़कों पर ग़ैर-ज़िम्मेदार तरीक़े से वाहन चलाने और रेसिंग पर भी नए क़ानून के अनुसार जुर्माने का प्रावधान है। इन क़ानूनों का मक़सद आम लोगों की सुरक्षा के साथ पर्यावरण संरक्षण करना भी है। फिर इन क़ानूनों को नेताओं की बाइक रैलियों पर क्यों नहीं लागू नहीं किया जाता?

देश में करोड़ों लोगों का सीट बेल्ट और हेलमेट नहीं पहनने पर चालान हो रहा है। परन्तु बगैर हेलमेट के चुनावी झंडों के साथ मदमस्त बाइकर्स के डराते हुजूम के नेताओं पर जुर्माना क्यों नहीं लगता? सुशासन के नाम पर बनी आम आदमी पार्टी के नेताओं ने वर्ष 2011 में मुंबई से बाइक रैली के ट्रेंड की शुरुआत की थी। उसके बाद हरियाणा में भाजपा नेताओं ने एक लाख बाइक की रैली से नया राजनीतिक कीर्तिमान तो बनाया, परन्तु सड़क सुरक्षा के सारे क़ानून ध्वस्त हो गए।

नई क़ानूनी व्यवस्था के तहत दो पहिया वाहनों में ओवरलोडिंग पर 20 गुना जुर्माने का प्रावधान है। सवाल यह है कि रोड-शो के दौरान वाहनों की ओवरलोडिंग के लिए राजनेताओं के गैंग पर जुर्माना लगा कर, नई मिसाल क्यों नहीं कायम की जाती?

नेताओं की जान जोखिम में क्यों
आम जनता की सुरक्षा के नाम पर उनके ऊपर सख्त जुर्माने की व्यवस्था बनाई गई। दूसरी ओर नेताओं को सरकारी खर्च पर भारी सुरक्षा मिलती है। आम जनता की असुविधा के बावजूद, सख्त सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर वीआईपी मूवमेंट के समय पूरी सड़क ही खाली करा ली जाती हैं। परन्तु चुनावों के समय नेता लोग सारे सुरक्षा प्रावधानों को ताक पर रख देते हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो की चुनाव प्रचार और रोड शो के दौरान ही हत्या हुई थी, फिर भी भारत के नेता नहीं चेत रहे। आम चुनावों में प्रियंका और राहुल गांधी के रोड शो के दौरान उनके ट्रक का काफिला बिजली के तारों से अटक गया। पिछले महीने रोड-शो में हादसे में, उत्तरप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष और पूर्व परिवहन मंत्री स्वतंत्र देव सिंह के हाथ की उंगली ही कट गई।

दिवंगत अरुण जेटली और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के रोड शो के दौरान भी हादसे हो चुके हैं। रोड शो के दौरान वीवीआईपी की सुरक्षा में समझौते से, एसपीजी प्रोटोकॉल के साथ मोटर वाहन क़ानून के नियमों का भी उल्लंघन होता है। बड़े नेताओं की जान तो जनता से ज्यादा क़ीमती है, फिर उन्हें नियमों के उल्लंघन की इजाज़त क्यों दी जाती है।

रोड शो और चुनावी रथ के ग़ैरक़ानूनी पहलुओं पर कार्रवाई के लिए पिछले आम चुनाव के पहले देश के सभी राज्यों के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशकों को हमने प्रतिवेदन भेजा था, पर पूरे देश में कहीं कोई कार्रवाई नहीं हुई। बड़े नेताओं की ओर से क़ानूनों की खुलेआम अवहेलना और आम जनता पर हर्जाने का भारी बोझ, असंवैधानिक होने के साथ अलोकतांत्रिक भी है।

पूरे देश में सभी दलों के नेताओं ने निजी गाड़ियों में पार्टियों के झंडों के साथ, अपने बायोडेटा का बोर्ड भी लगा रखा है, जो ग़ैरक़ानूनी है। देश में रूल ऑफ़ लॉ की स्थापना के लिए सत्ताधीशों पर क़ानून को प्रभावी तरीक़े से लागू करने के बाद ही, जनता से क़ानून के अनुपालन की अपेक्षा होनी चाहिए, क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा। इसके बाद देश में समानता के साथ सुरक्षा का भी वातावरण बनेगा।
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