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Last Modified: बुधवार, 20 मार्च 2019 (17:40 IST)

बिहार: बड़ा कुनबा ही बना महागठबंधन के लिए बोझ

बिहार: बड़ा कुनबा ही बना महागठबंधन के लिए बोझ | bihar alliance congress
- रजनीश कुमार
 
लोकसभा चुनाव के लिए पहले चरण का नामांकन 25 मार्च को ख़त्म होने जा रहा है और दूसरे चरण का शुरू होने जा रहा। बिहार में 11 अप्रैल से पहले चरण का मतदान शुरू हो रहा है लेकिन राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई वाले महागठबंधन में सीटों के बँटवारे पर अब भी पेच फँसा हुआ है।
 
 
कांग्रेस 11 सीटों की मांग कर रही है जबकि लालू प्रसाद नौ और एक राज्यसभा सीट से ज़्यादा देने को तैयार नहीं हैं। जीतन राम मांझी तीन सीट की मांग कर रहे हैं और उपेंद्र कुशवाहा पांच। सन ऑफ़ मल्लाह के नाम से चर्चित मुकेश साहनी ने तीन सीटों की मांग की है। इसके साथ ही सीपीआई और सीपीआईएमएल को भी दो सीटें देने की बात है।
 
 
कांग्रेस की 11 सीटों पर आरजेडी सहमत नहीं है। इसलिए सीटों के बँटवारे की घोषणा अब तक लटकी हुई है। न कांग्रेस तैयार है और न ही आरजेडी। मांझी अपने उम्मीदवार को औरंगाबाद से चुनाव लड़ाना चाहते हैं और आरजेडी इस पर तैयार भी है लेकिन कांग्रेस बिल्कुल तैयार नहीं है। औरंगाबाद ऐतिहासिक रूप से क्रांग्रेस की सीट रही है। इसके साथ ही औरंगाबाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह का भी इलाक़ा है।
 
 
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि औरंगाबाद में राजपूत बहुसंख्यक हैं और वो कांग्रेस के साथ रहे हैं। ऐसे में मांझी के उम्मीदवार को यहां से चुनाव लड़ाने का कोई तर्क नहीं है। औरंगाबाद से सत्येंद्र सिंह के बेटे और दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार कांग्रेस से सांसद बनते रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस शायद ही माने कि औरंगाबाद से जीतन मांझी का उम्मीदवार चुनाव लड़े।
 
 
उपेंद्र कुशवाहा काराकाट से ही चुनाव लड़ेंगे। 2014 में भी वो एनडीए की उम्मीदवारी से यहां से सांसद बने थे। कहा जा रहा है कि बिहार में बीजेपी और जेडीयू के ख़िलाफ़ विपक्षी पार्टियों का कुनबा इतना बड़ा हो गया कि यही अब समस्या बन गया है। बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर मानते हैं कि बिहार में आरजेडी के नेतृत्व में महागठबंधन का कुनबा जितना बड़ा हुआ है इससे उतना बड़ा फ़ायदा होता दिख नहीं रहा है।
 
 
सुरेंद्र किशोर कहते हैं, ''जीतन राम मांझी से महागठबंधन को बहुत फ़ायदा नहीं होने जा रहा। ऐसे में अगर वो तीन सीटें मांग रहे हैं तो इससे गठबंधन की समस्या ही बढ़ेगी न कि जीत की राह आसान होगी। दूसरी तरफ़ उपेंद्र कुशवाहा हैं। इनसे महागठबंधन को कुछ हद तक फ़ायदा हो सकता है लेकिन यह याद रखना चाहिए कुर्मी और कोयरी जाति में कोई बड़ी लक़ीर नहीं है। दोनों जातियां एक ही मानी जाती हैं। ऐसे में कुर्मी नीतीश को वोट करेंगे और कोयरी महागठबंधन को ऐसा नहीं लगता।''
 
 
नीतीश कुमार कुर्मी जाति से हैं और ग़ैर-यादव पिछड़ी जाति में यह सबसे ताक़तवर जाति है। उपेंद्र कुशवाहा कोयरी जाति से हैं लेकिन कोयरी और कुर्मी की कोई अलग पहचान नहीं मानी जाती है। मतलब दोनों जातियों में बनाम वाली स्थिति नहीं रही है। ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा के महागठबंधन में जाने से नीतीश की लोकप्रियता कोयरी जाति में कम होगी, ऐसा कहना मुश्किल है।
 
 
क्या राष्ट्रीय जनता दल ने एनडीए से आए कुशवाहा और जीतन राम मांझी को अपने कुनबे में शामिल कर ग़लती की है? सुरेंद्र किशोर मानते हैं कि सीटों के बँटवारे में यह स्थिति कोई चौंकाने वाली नहीं है। वो कहते हैं, ''महागठबंधन में जिस तरह से आरजेडी को सीटों के बँटवारे को लेकर दिक़्क़त हो रही है उसी तरह से बीजेपी को भी हुई और बीजेपी को नीतीश और रामविलास पासवान के सामने झुकना पड़ा।''
 
 
आलोक साहनी के दरभंगा से चुनाव लड़ने की बात चल रही है लेकिन कांग्रेस यहां से कीर्ति आज़ाद को लड़ाना चाह रही है। महागठबंधन में पेच केवल सीटों के बँटवारे को लेकर ही नहीं है। इसमें एक और बुनियादी समस्या है जिसका असर इस गठबंधन के चुनावी नतीजों पर पड़ता है।
 
 
पटना में प्रभात ख़बर के स्थानीय संपादक अजय कुमार कहते हैं, ''2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस के लिए यह बड़ी जीत थी। लेकिन यह आरजेडी से गठबंधन के कारण ही संभव ही हो पाया। मतलब ये कि आरजेडी को जो पसंद करते हैं उन्हें गठबंधन के बाद कांग्रेस को वोट देने में कई दिक़्क़त नहीं होती है।''
 
 
अजय कुमार का मानना है कि सबसे बड़ी दिक़्क़त ये है कि जो कांग्रेस को पसंद करते हैं वो आरजेडी को वोट करेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है। अजय कहते हैं, ''बिहार में कांग्रेस का सामाजिक या जातीय आधार पर कोई ठोस वोट बैंक नहीं है। लेकिन एक तबका मौजूद है जो कांग्रेस को पसंद करता है पर वो आरजेडी को पसंद नहीं करता। मतलब महागठबंधन के भीतर वोटों का ट्रांसफर आसान नहीं है।''
 
 
माना जा रहा है कि बिहार में चुनाव दो ध्रुवीय है। एनडीए बनाम महागठबंधन। ऐसे में कई लोगों का यह भी कहना है कि इन दोनों गठबंधनों से अलग होकर किसी भी क्षेत्रीय पार्टी के लिए चुनाव लड़ना आसान नहीं है। महागठबंधन में इस बार वैसी पार्टियों को जगह दी गई है दो पिछले कुछ दशक से एक भी सीट नहीं जीत पाई हैं। सीपीआई और सीपीआईएमएल उन्हीं में से हैं। मुकेश साहनी और जीतन राम मांझी भी इस मामले में नए खिलाड़ी ही हैं।
 
 
आरजेडी का माय यानी मुस्लिम यादव समीकरण अटूट माना जाता है। यह समीकरण 90 के दशक से ही हिट रहा है और लालू को सत्तासीन करने में इसकी बड़ी भूमिका रही है। हालांकि धार्मिक ध्रुवीकरण और राष्ट्रवाद के चुनावी मुद्दा बनने की शक्ल में इस समीकरण के दरकने का डर होता है।
 
 
पुलवामा में चरमपंथी हमले के बाद भारतीय सेना की एयरस्ट्राइक का बिहार बीजेपी ने ख़ूब प्रचार-प्रसार किया। क्या इससे लालू के माय समीकरण पर कोई असर पड़ेगा? सुरेंद्र किशोर मानते हैं कि माय समीकरण वाक़ई अटूट रहा है। वो मानते है कि मुस्लिम भले बँट जाएं लेकिन यादव नहीं बँटेंगे।
 
 
बिहार में मधेपुरा ज़िले के बारे में कहा जाता है कि रोम में पोप और मधेपुरा में गोप। मतलब मधेपुरा में यादव बिहार के किसी भी ज़िले से सबसे ज़्यादा हैं। मधेपुरा में एक सरकारी बैंक के मैनेजर ने नाम नहीं बताने की शर्त पर बताया कि भारतीय सेना की एयर स्ट्राइक बाद मधेपुरा में दिवाली जैसा माहौल था। उनका कहना है कि शहर में राष्ट्रवादी नारे लगाए जा रहे थे।
 
 
उस बैंक मैनेजर का कहना है कि टीवी और इंटरनेट पर प्रसारित होने वाली सामग्री से बिहार के चुनाव में जातीय समीकरणों का ताना-बाना टूटता दिख रहा है और संभव है कि इसका असर बिहार के चुनाव में दिखे।
 
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