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व्यक्तित्व एवं राष्ट्र निर्माण पर विवेकानंद के कालजयी विचार

व्यक्तित्व एवं राष्ट्र निर्माण पर विवेकानंद के कालजयी विचार - Vivekananda
स्वामी विवेकानंद एक व्यक्तित्व नहीं, एक बुनियाद हैं। ऐसी बुनियाद जिस पर भारत का विराट  सांस्कृतिक महल खड़ा है। स्वामी विवेकानंद ने अध्यात्म, वैश्विक मूल्यों, धर्म, चरित्र निर्माण  शिक्षा एवं समाज को बहुत विस्तृत एवं गहरे आयामों से विश्लेषित किया है। भारत के ही नहीं,  बल्कि विश्व के युवाओं के लिए उनके विचार प्रासंगिक एवं अनुकरणीय हैं। उनके विचार आज  के विखंडित एवं पथभ्रष्ट समाज को जोड़ने के लिए रामबाण औषधि हैं।


 
स्वामीजी ने शिक्षा को समाज की रीढ़ माना है। उनके अनुसार शिक्षा मनुष्यता की संपूर्णता का  प्रदर्शन है। स्वामीजी ने कहा है कि जो शिक्षा मनुष्य में आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास न  जगाए, उस शिक्षा का कोई औचित्य नहीं है। शिक्षा से व्यक्तित्व का निर्माण, जीवन जीने की  दिशा एवं चरित्र निर्माण होना चाहिए। 
 
धर्म की व्याख्या करते हुए स्वामीजी ने कहा है कि धर्म हमेशा मनुष्य को सद्विचार एवं आत्मा  से जोड़ता है। धर्म वह विचार एवं आचरण है, जो मनुष्य के अंदर की पशुता को इंसानियत में  और इंसानियत को देवत्व में बदलने की सामर्थ्य रखता है। उन्होंने सभी धर्मों का सार सत्य को  बताया है एवं उसके आचरण की प्रेरणा दी है।
 
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को चरित्र निर्माण की ओर प्रेरित करते हुए कहा है कि प्रत्येक  मनुष्य जन्म से ही दैवीय गुणों से परिपूर्ण होता है। ये गुण सत्य, निष्ठा, समर्पण, साहस एवं  विश्वास से जाग्रत होते हैं। इनको अपने आचरण में लाने से व्यक्ति महान एवं चरित्रवान बन  सकता है। मनुष्य को महान बनने के लिए संदेह, ईर्ष्या एवं द्वेष छोड़ना होगा।
 
स्त्री विमर्श पर चर्चा करते हुए स्वामीजी ने कहा है कि आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है अत:  स्त्री एवं पुरुष का विबेध प्राकृतिक नहीं है, ये सिर्फ शरीर का विबेध है, जो ईश्वर द्वारा मान्य  नहीं है। अत: समाज में स्त्रियों को वही सम्मान एवं स्थान मिलना चाहिए, जो पुरुष का है। हमें  स्त्री एवं पुरुष के भेद को त्यागना होगा और प्रत्येक को मानव रूप में एकात्म दृष्टि से देखना  होगा। स्वामीजी के अनुसार जब तक विश्व में महिलाओं की बेहतरी के लिए काम नहीं होगा  तब तक विश्व का कल्याण संभव नहीं है।
 
स्वामीजी के अनुसार युवा किसी भी देश की सबसे बहुमूल्य संपत्ति होता हैं। उन्होंने युवाओं को  अनंत ऊर्जा का स्रोत बताया है। उन्होंने कहा है कि अगर युवाओं की उन्नत ऊर्जा को सही दिशा  प्रदान कर दी जाए तो राष्ट्र के विकास को नए आयाम मिल सकते हैं। स्वामीजी कहा करते थे  कि जिसके जीवन में ध्येय नहीं है, जिसके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, उसका जीवन व्यर्थ  है। लेकिन हमें एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे लक्ष्य एवं कार्यों के पीछे शुभ उद्देश्य  होना चाहिए।
 
स्वामी विवेकानंदजी ने युवा वर्ग को चरित्र निर्माण के 5 सूत्र दिए- आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता,  आत्मज्ञान, आत्मसंयम और आत्मत्याग। उपयुक्त 5 तत्वों के अनुशीलन से व्यक्ति स्वयं के  व्यक्तित्व तथा देश और समाज का पुनर्निर्माण कर सकता है। जिसने निश्चय कर लिया, उसके  लिए केवल करना शेष रह जाता है। 
 
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जीवन में एक ही लक्ष्य साधो और दिन-रात उस लक्ष्य के बारे  में सोचो और फिर जुट जाओ उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। हमें किसी भी परिस्थिति में अपने  लक्ष्य से भटकना नहीं चाहिए। 
 
स्वामी विवेकानंदजी कहा करते थे कि आदर्श को पकड़ने के लिए सहस्र बार आगे बढ़ो और यदि  फिर भी असफल हो जाओ तो एक बार नया प्रयास अवश्‍य करो। इस आधार पर सफलता सहज  ही निश्चित हो जाती है।
 
हिन्दू धर्म को स्वामीजी ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दी है। 19वीं शताब्दी के  अंत तक विश्व भारत के बारे में बहुत कम जानता था। अंग्रेजों एवं ईसाई मिशनरियों ने भारत  के बारे में कई भ्रांतियां फैलाईं, जैसे कि भारत असभ्य एवं सपेरों का देश है, यहां पर बुराइयों  की भरमार है, लोग जंगली एवं बुरी परंपराओं को मानते हैं आदि-आदि। 
 
स्वामीजी ने इन भ्रांतियों को दो स्तरों पर दूर किया। प्रथम उन्होंने भारत में बंटे हिन्दू समुदायों  को एक मंच पर एकत्रित कर हिन्दू धर्म का सार समझाया, वहीं दूसरी ओर पश्चिमी देशों की  यात्रा कर भारत के बारे में जो भ्रांतियां फैलीं थीं उन्हें दूर किया। उन्होंने भारत के वैभवशाली  सांस्कृतिक परंपराओं की ध्वज पताका पूरे विश्व में फैलाई।
 
स्वामी विवेकानंद ने गरीबी को भोगा था अत: वे जानते थे कि जब तक भारत में गरीबी का  निर्मूलन नहीं होगा, तब तक भारत का सांस्कृतिक और भौतिक विकास संभव नहीं है। एक बार  वे गरीबी से तंग आकर अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे एवं गरीबी से निजात  दिलाने की बात कही। स्वामी रामकृष्ण ने उनसे कहा कि जा मां दक्षिणेश्वर काली से जाकर  धन मांग ले। 
 
स्वामी विवेकानंद जब मूर्ति के समक्ष गए तो उनकी समाधि लग गई एवं उनके मुंह से सिर्फ  एक वाक्य निकला- 'मां मुझे ज्ञान और वैराग्य दो'। यह प्रक्रिया उन्होंने 3 बार दोहराई एवं तीनों  बार उनके मुंह से केवल वही वाक्य निकला कि 'मां मुझे ज्ञान और वैराग्य दो'। तब स्वामी  रामकृष्ण ने उन्हें समझया कि उनका जन्म भौतिक सुख-सुविधा भोगने के लिए नहीं हुआ है,  बल्कि गरीबों को ऊंचा उठाने के लिए हुआ है। 
 
उनका मानना था कि सदियों के शोषण के कारण गरीब जनता मानव होने तक का अहसास खो  चुकी है। वे स्वयं को जन्म से ही गुलाम समझते हैं। इसी कारण इस वर्ग में विश्वास एवं गौरव  जागृत करने की महती आवश्यकता है। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि कमजोर व्यक्ति वह  होता है, जो स्वयं को कमजोर समझता है और इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वयं को सशक्त  समझता है वह पूरे विश्व के लिए अजेय हो जाता है। 
 
स्वामी विवेकानंद का प्रत्येक भारतीय के लिए संदेश था- 'जागो, उठो और तब तक प्रयत्न करो  जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो।'
 
राष्ट्रीय एकता के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि भले ही भारत में भाषायी, जातिवाद  ऐतिहासिक एवं क्षेत्रीय विवधताएं हैं लेकिन इन विविधताओं को भारत की सांस्कृतिक एकता एक  सूत्र में पिरोये हुए है। उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में जाकर अपने भाषणों में धार्मिक  चेतना को जगाने एवं दलित, शोषित व महिलाओं को शिक्षित कर उन्हें राष्ट्र निर्माण में  योगदान देने की बात कही है। स्वामी विवेकानंद एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे और उन्हें अपनी  राष्ट्रीयता पर गर्व भी था। 
 
भारतीय संस्कृति एवं भारतीय धर्म के प्रति उनका गर्व एवं आदर शिकागो के धर्म संसद में  उनके द्वारा दिए गए संभाषण से ज्ञात होता है, जब उन्होंने कहा था कि 'मैं एक ऐसे धर्म का  अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति  दोनों की शिक्षा दी है...। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी  के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।' 
 
और फिर इतिहास में जाते हुए उन्होंने कहा कि 'मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि  हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अविशिष्ट अंग को स्थान दिया जिन्होंने दक्षिण भारत  आकर इसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में  मिल गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व अनुभव करता हूं जिसने महान जरथ्रुष्ट  जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।'
वर्तमान पीढ़ी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। जीवनशैली, नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों में बदलाव  आ रहा है। आज की युवा पीढ़ी विकास एवं आर्थिक उन्नयन के बोझ तले इतनी अधिक दब गई  है कि वह अपने पारंपरिक आधारभूत उच्च आदर्शों से समझौता तक करने में हिचक नहीं रही  है। आज के युवाओं के पास उत्तराधिकार के रूप में स्वामी विवेकानंद के विचारों की धरोहर है  जिसके अनुपालन से वह भारत में ही नहीं, वरन विश्व में सफलता के नए आयाम स्थापित कर  सकते हैं। 
 
जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने एक बार आह्वान किया था- 'जागो, उठो और मंजिल तक पहुंचने  से पहले मत रुको' और 'हम सभी एकजुट हों और शुद्धता, धैर्य और दृढ़ता के साथ देश के लिए  काम करें।'
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