Swami Vivekananda Jayanti: स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस पर युवा दिवस मनाया जाता है। स्वामीजी के जीवन से संबंधित कई रोचक किस्से हैं। वे रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। उनका जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को कोलकाता में हुआ और मात्र 39 वर्ष की उम्र में 4 जुलाई 1902 को उनका निधन हो गया था। उनका जन्म नाम नरेंद्र दत्त था। आओ जानते हैं उनके जीअन के 5 प्रेरक किस्से।
1. पहला प्रेरक किस्सा : एक बार की बात है स्वामी विवेकनन्द बनारस में मां दुर्गा के मंदिर से लौट रहे थे, तभी रास्ते में बंदरों के एक झुंड ने उन्हें घेर लिया। स्वामीजी के हाथ में प्रसाद थी जिसे बंदरों छीनने का प्रयास कर रहे थे। स्वामीजी बंदरों द्वारा इस तरह से अचानक घेरे जाने और झपट्टा मारने के कारण भयभीत होकर भागने लगे। बंदर भी उनके पीछे भागने लगे। बंदरों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।
तभी पास खड़े एक बुजुर्ग संन्यासी ने हंसते हुए विवेकानंद से कहा- रुको! डरो मत, उनका सामना करो और देखो क्या होता है। तुम जितना भागोगे वे तुम्हें उतना भगाएंगे। संन्यासी की बात मानकर वह फौरन पलटे और बंदरों की तरफ दृढ़ता से बढ़ने लगे। यह देखकर बंदर भयभीत होकर सभी एक-एक कर वहां से भागने लगे। इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली। अगर तुम किसी चीज से डर गए हो, तो उससे भागो मत, पलटो और सामना करो।
2. दूसरा प्रेरक किस्सा : स्वामीजी को शिकागो जाना था। श्रीरामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदामणि मुखोपाध्याय से वह विदेश जाने की इजाजत मांगने के लिए गए। कहते हैं कि उस समय शारदामणि किचन में कुछ कार्य कर रही थीं। विवेकानंद ने उनके समक्ष उपस्थित होकर कहा कि मैं विदेश जाना चाहता हूं। आपसे इसकी इजाजत लेने आया हूं। माता ने कहा कि यदि मैं इजाजत नहीं दूंगी तो क्या तुम नहीं जाओगे? यह सुनकर विवेकानंद कुछ नहीं बोले।
तब शारदामणि ने इशारे से कहा कि अच्छा एक काम करो वो सामने चाकू रखा है, जरा मुझे दे दो। सब्जी काटना है। विवेकानंद ने चाकू उठाया और उन्हें दे दिया। तभी माता ने कहा कि तुमने मेरा यह काम किया है इसलिए तुम विदेश जा सकते हो। विवेकानंद को कुछ समझ में नहीं आया। तब माता ने कहा कि यदि तुम चाकू को उसकी नोक के बजाए मूठ से उठाकर देते तो मुझे अच्छा नहीं लगता लेकिन तुमने उसकी नोक पकड़ी और फिर मुझे दिया। मैं समझती हूं कि तुम मन, वचन और कर्म से किसी का बुरा नहीं करोगे इसलिए तुम जा सकते हो।
3. तीसरा प्रेरक किस्सा : एक बार एक युवक स्वामी विवेकानंद के पास आया और कहने लगा कि वेदांत के बारे में समझ गया हूं लेकिन इस देश में मां को इतना पूज्जनीय क्यों माना जाता है यह आज तक समझ में नहीं आया। इस पर स्वामीजी हंस दिए और कहने लगे कि एक काम करो इसका जवाब मैं तुम्हें 24 घंटे के बाद दूंगा लेकिन मेरी शर्त यह है कि एक 5 किलो का पत्थर आपके अपने पेट पर तब तक के लिए बांध कर रखना होगा।
युवक ने कहा कि इसमें कोई बड़ी बात नहीं, अभी बांधे लेता हूं। स्वामीजी ने उसके पेट पर पत्थर बंधवा दिया। वह युवक पत्थर बांधकर बाहर चला गया। कुछ घंटे भी नहीं हुए थे कि वह थक-हारकर स्वामीजी के पास पंहुचा और बोला- मैं इस पत्थर का बोझ ज्यादा देर तक सहन नहीं कर सकता हूं। तब स्वामीजी मुस्कुराते हुए बोले- पेट पर बंधे इस पत्थर का बोझ तुम घंटेभर भी सहन नहीं कर पाए। सोचो एक मां अपने पेट में पलने वाले बच्चे को पूरे नौ महीने तक ढ़ोती है और घर का सारा काम भी करती है।..युवक स्वामीजी की बात समझ गया था। संसार में मां के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील नहीं है। इसलिए मां से बढ़ कर इस दुनिया में कोई और नहीं है।
4. चौथा प्रेरक किस्सा : एक बार एक विदेशी महिला स्वामी विवेकानंदजी के पास आई और कहने लगी कि मैं आपसे शादी करना चाहती हूं। यह सुनकर स्वामीजी थोड़ा अचंभित हो गए और कहने लगे कि मैं तो संन्यासी हूं, शादी नहीं कर सकता और तुम मुझसे क्यों शादी करना चाहती हो?
महिला ने कहा कि मैं आपके जैसा पुत्र चाहती हूं। इस पर स्वामीजी ने तपाक से उस विदेशी महिला से विनम्रतापूर्वक कहा कि ठीक है। आज से आपका मैं पुत्र हूं और आप मेरी मां। अब आपको मेरे जैसा ही एक बेटा मिल गया।...इतना सुनते ही महिला स्वामीजी के पैरों में गिर गई और क्षमा मांगने लगी। स्वामीजी कहते थे कि एक सच्चा पुरुष वह है जो हर महिला के लिए अपने अंदर मातृत्व की भावना को जगाएं और महिलाओं का सम्मान करें।
5. पांचवां प्रेरक किस्सा : जयपुरा के राजा श्रीराम कृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद को बहुत मानते थे। एक बार स्वामी विवेकानंद उनके यहां पधारे तो राजा ने उनके स्वागत के लिए भव्य आयोजन किया। साथ ही वेश्याओं को भी बुलाया। वेश्याओं को बुलाते वक्त राजा को यह ध्यान नहीं रहा कि मैं जिसके स्वागत के लिए इन्हें बुला रहा हूं वह तो संन्यासी है। राजा यह सोच नहीं पाया कि वेश्याओं के जरिए एक संन्यासी का स्वागत करना ठीक नहीं है।
जब स्वामी विवेकानंद दरबार में पधारे तो वह वेश्याओं को देखकर भयभीत होकर एक कमरे में चले गए और अपना कमरा अंदर से बंदकर लिया। कहते हैं कि विवेकानंद उस वक्त अपरिपक्व थे। वे अभी पूरे संन्यासी नहीं बने थे। वह अपनी कामवासना और हर चीज दबा रहे थे।
जब महाराजा को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने विवेकानंद से माफी मांगी और कहा कि उन्होंने वेश्या को इसके पैसे दे दिए हैं, और वह देश की सबसे बड़ी वेश्या है। यदि इस वेश्या को ऐसे चले जाने को कहेंगे तो उनका अपमान होगा। आप कृपा करके बाहर आएं। विवेकानंद कमरे से बाहर आने में डर रहे थे।
कहते हैं कि वेश्या को इसकी खबर हो गई थी। इसके चलते इतने में वेश्या ने गीत गाना गाना शुरू किया जो एक 'संन्यासी भाव' का गीत था। गीत का अर्थ था- “मुझे मालूम है कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्यादा करूणामय हो सकते थे। मैं राह की धूल सही, यह मालूम मुझे। लेकिन तुम्हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्मक नहीं होना चाहिए। मैं कुछ नहीं हूं। मैं कुछ नहीं हूं। मैं अज्ञानी हूं। एक पापी हूं। पर तुम तो पवित्र आत्मा हो। तो क्यों मुझसे भयभीत हो तुम?”
विवेकानंद ने अपने कमरे में इस गीत को सुना, वेश्या रोते हुए गा रही थी। उन्होंने उसकी स्थिति का अनुभव किया और सोचा कि वो क्या कर रहे हैं। विवेकानंद से रहा नहीं गया और उन्होंने कमरे का दरवाजार खोल दिया। विवेकानंद एक वेश्या से पराजित हो गए। वो बाहर आकर बैठ गए। उनकी आंखों में से भी आंसू बह रहे थे।
कहते हैं कि फिर उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था, 'ईश्वर से एक नया प्रकाश मिला है मुझे। डरा हुआ था मैं। जरूर कोई लालसा रही होगी मेरे भीतर। इसीलिए डर गया मैं। किंतु उस महिला ने मुझे पूरी तरह हरा दिया। मैंने कभी नहीं देखी ऐसी विशुद्ध आत्मा।” उस रात उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, “अब मैं उस महिला के साथ बिस्तर में सो भी सकता था और कोई डर नहीं होता।' इससे उन्हें यह सीख मिली की एक संन्यासी को साक्षीभाव में या तटस्थ रहकर मन को दृढ़ बनाना चाहिए। साक्षित्व से ही ज्ञान मिलता है।