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Written By WD

भारतीय गणतंत्र और बचपन

गणतंत्र दिवस विशेष

Republic Day of India | भारतीय गणतंत्र और बचपन
कैलाश सत्यार्थी
ND
भारत के 61 साल गणतंत्र की अनेक उपलब्धियों पर हम फख्र कर सकते हैं। लोकतंत्र में हमारी चरित्रगत आस्था का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े और जटिल समाज ने सफलतापूर्वक 50 से अधिक राष्ट्रीय चुनाव संपन्‍न किए। सरकारों को बनाया और बदला। विशाल और सशक्त सेना जनप्रतिनिधियों के आदेश पर चलने के अलावा कुछ और सोच भी नहीं सकती। 1975 के आपातकाल के कुछ महीनों के अलावा देश के नागरिक अधिकारों और मीडिया की स्वतंत्रता पर कोई राष्ट्रीय पाबंदी नहीं लग सकी।

दूसरी ओर, गैर बराबरी और भूख से हुई मौतों, किसानों द्वारा आत्महत्याओं, महिलाओं की असुरक्षा और बलात्कार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, अशिक्षा आदि कलंक भी हमारे लोकतांत्रिक चेहरे पर खूब दिखाई देते हैं, किंतु इन सबमें सबसे अधिक शर्मनाक देश में चलने वाली बच्चों की गुलामी और बाल व्यापार जैसी घिनौनी प्रथाएँ हैं।

बाल वेश्यावृत्ति, बाल विवाह, बाल मजदूरी, बाल कुपोषण, अशिक्षा, स्कूलों, घरों और आस-पड़ोस में तेजी से हो रही बाल हिंसा से लगाकर शिशु बलात्कार जैसी घटनाएँ हमारी बीमार और बचपन विरोधी मानसिकता की परिचायक हैं। भारत में लगभग दो तिहाई बच्चे किसी न किसी रूप में हिंसा के शिकार हैं। 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। गैर सरकारी आँकड़ों के अनुसार 6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी और आर्थिक शोषण के शिकार हैं और इतने ही बच्चे स्कूलों से बाहर हैं।

यह सब आखिर बापू गाँधी, चाचा नेहरू, संविधान, सामाजिक न्याय, सबके लिए शिक्षा, बाल अधिकार संरक्षण, जैसे शब्दों की आड़ में देश के करोड़ों बच्चों के वर्तमान और भविष्य के साथ भद्दा मजाक नहीं, तो और क्या है? कहाँ है वह राजनीतिक इच्छाशक्ति, बुनियादी नैतिकता और सरकारी ईमानदारी, जो अपने ही बनाए कानूनों को पैरों तले रौंदने से रोक सके? आखिर कौन है इसके लिए जवाबदेह?

ND
इन हालातों के लिए कुछ बुनियादी कमियाँ जिम्मेदार हैं। पहली है बचपन समर्थक और बाल अधिकार का सम्मान करने वाली मानसिकता की कमी। दूसरा सामाजिक चेतना और सरोकार का अभाव। तीसरा राजनीतिक इच्छाशक्ति और ईमानदारी की कमी। चौथा बच्चों के अधिकारों और संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए आर्थिक संसाधन मुहैया कराने में कोताही और पाँचवाँ बच्चों के मामले में एक स्पष्ट नैतिकता का अभाव।

बच्चों के मामले में हमारी मानसिकता दो प्रकार की है, यदि आप कथित तौर पर भले और संवेदनशील हैं तो अभावग्रस्त बच्चों के ऊपर दया दिखाने या उपकार करने की मानसिकता। दूसरी ओर जो लोग व्यावहारिक हैं और सबसे कमजोर तबकों का उपयोग अपनी संपन्नता बढ़ाने और मौज-मस्ती के लिए करने में यकीन रखते हैं।

ऐसे लोग मजदूर के रूप में बच्चों के श्रम का शोषण, अपनी हवस मिटाने के लिए उनका यौन शोषण अथवा कुत्सित रौब-रुतबे के लिए बच्चों पर हिंसा आदि का सहारा लेते हैं। समाज में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्हें बच्चों के अधिकारों की कोई चेतना या समझ है। हर बच्चा नैसर्गिक, संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के साथ जन्मता है। किंतु इन अधिकारों का सम्मान और बच्चों के प्रति संवेदनात्मक व मित्रतापूर्ण रिश्ता कितने लोग कायम रखते हैं ?

ND
बाल अधिकार भी बुद्धि-विलास, चर्चा-परिचर्चा या एनजीओ अथवा सरकारी महकमों की परियोजना भर बन कर रह गए हैं, जबकि बाल अधिकारों का सम्मान और बाल मित्र समाज बनाने के प्रयत्न सबसे पहले एक जीवन जीने का तरीका बनने चाहिए। बच्चों के प्रति हम कैसा सोचते हैं,उनके साथ कैसे समानता और इज्जत का व्यवहार करते हैं, उनका विकास, संरक्षण और उनका सम्मान हमारी निजी सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक प्राथमिकताओं में कैसे ढल जाता है। इस पर गहरे मंथन और अमल की जरूरत है।