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कही-अनकही 27 : 4 XL साइज़

कही-अनकही 27 : 4 XL साइज़ - short story about relationship kahi ankahi
“शादी में साड़ियां चढ़ानी हैं हमें, लेकिन तुम्हारी पसंद से ही दिलवा देते हैं तो ठीक रहेगा। शाम को ले चलते हैं फिर मार्केट, ठीक है?”
 
“जी आंटी”
 
“आंटी नहीं, अब तो मम्मीजी कहना शुरू कर दो तुम, होने वाली बहू  जो हो। अब क्या करें मजबूरी में बेटे कि पसंद अपना रहे है, वरना हम तो पर्फ़ेक्ट बहू   लाते... हाहा.. मज़ाक़ कर रहे है!”
 
“भैयाजी इसके लिए साड़ी दिखाइए।”
 
“कैसी साड़ी चाहिए? ब्राइडल, पार्टी वियर...”
 
“ये होने वाली बहू है। वैसे तो शादी के हिसाब से ही चाहिए लेकिन इसकी हेल्थ ज़्यादा है ना, तो उस हिसाब से दिखाइए।”
 
“हाहा ऐसा नहीं होता है। हेल्थ का क्या है बहनजी, साड़ी तो वही पांच मीटर की होती है ना। हर किसी को आ ही जाती है। और ये तो काफ़ी गोरी-चिट्टी हैं। इनपर तो हर एक रंग फबेगा। सिल्क, कॉटन, बनारसी, बॉर्डर वाली, स्वरोस्की... आप बताइए बहुुरानी जी, आपको कैसी साड़ी पसंद है?”
 
“अरे ये क्या बताएगी। हेल्दी है ये काफ़ी और हाइट भी बस ठीक-ठाक है। रंग का क्या फर्क पड़ता है। इसके लिए तो पेटिकोट भी शायद सबसे बड़ा लेना पड़ेगा। ब्लाउज़ तो शायद ही निकल पाएगा इस साड़ी से। खैर देखते हैं। क्या पता तुम शादी के पहले कभी गलती से दुबली हो जाओ... हाहा... मज़ाक़ कर रहे हैं बस।”
 
“बहनजी आप जो भी कहें, मुझे तो हेल्दी नहीं लग रहीं ये। हर कपड़ा इन्हें स्मॉल या मीडियम आ ही जाएगा। हर रंग में सुन्दर लगेंगी। देखिए मैं एक से एक साड़ी...”
 
“रहने दीजिए हम इसके लिए कहीं और से ले लेंगे। चलो, यहां तो समझ नहीं आ रहा।”
————
“देखो हम तुम्हारे लिए कुर्ते लाए हैं । शादी के बाद अब ऑफ़िस में साड़ी तो तुम पहनती नहीं हो।”
 
“जी, वो पेटीकोट जो दिए थे वो काफ़ी बड़े थे...”
 
“साड़ी में कौनसा रंग-रूप-बदन का फर्क पड़ता है... बहाने हैं साड़ी न पहनने के। खैर ये देखो एक सफ़ेद चिकन का कुर्ता लाए हैं। बहुत ढूंढा लेकिन तुम्हारे नाप का समझ ही नहीं आया। एक मिला जैसे-तैसे। लोकल मार्केट से लाना पड़ा फिर। ब्रांड के तो शायद ही आएंगें तुम्हें।”
 
“थैंक यू मम्मीजी। सुन्दर है। लेकिन यह तो 4XL है! काफ़ी अल्टर कराना पड़ेगा।”
 
“हां वैसे तुमको अभी देख कर लग रहा है कि हल्की सी सिलाई लगानी पड़ेगी, ज़्यादा नहीं। अभी कौनसी साइज़ का पहना है ये? दिख तो अच्छा रहा है।”
 
“मम्मीजी, मेरे अधिकतर स्मॉल साइज़ के कुर्ते हैं। सभी तरह के, सभी ब्रांड के। लोकल भी।”
 
“कुछ तो भी बनाते हैं आजकल ब्रांड वाले... सस्ते कपड़े का और फ़र्ज़ी टैग के साथ... खैर तुम तो ये देख लेना जम रहा है या नहीं वरना नौकरानी को भी दे सकते हैं...”
 
वह बिना कुछ कहे, हल्की सी मुस्कान के साथ वह “नया, 4XL” साइज़ का, अजीब से कपड़े का बना, “तोहफ़े” के “दान” में मिला कुर्ता ले कर अपने कमरे में गई, अलमारी खोली और उसने सभी बाक़ी 4XL साइज़ के कपड़ों के शेल्फ में डाल कर दरवाज़ा बंद कर दिया- इस उम्मीद में, कि कभी तो लोगों के मस्तिष्क में चढ़ी चर्बी, बॉडी-शेमिंग की निकृष्ट भावना की वसा और एक्स्ट्रा लार्ज टुच्ची सोच इस दुनिया से आउट ऑफ स्टॉक होगी - ख़ासकर महिलाओं की, महिलाओं के प्रति।
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