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Written By DW
Last Modified: शनिवार, 30 जुलाई 2022 (07:46 IST)

पश्चिम बंगाल में राजनीति और भ्रष्टाचार के घालमेल की कहानी

पश्चिम बंगाल में राजनीति और भ्रष्टाचार के घालमेल की कहानी - story of corruption and Politics in west bengal
पश्चिम बंगाल में स्कूल सेवा आयोग (एसएससी) के जरिए कथित कैश फॉर जॉब स्कैम की उघड़ती परतें राज्य में राजनीति और भ्रष्टाचार के घालमेल की सबसे बड़ी मिसाल के तौर पर उभरी है। बंगाल में भी दूसरे राज्यों की तर्ज पर नेताओं के दामन पर भ्रष्टाचार और घोटालों के छींटे लगते रहे हैं लेकिन, अब ताजा मामले ने तो पहले के ऐसे तमाम घोटालों को पीछे छोड़ दिया है।

इससे पहले चिटफंड घोटालों की आंच भी तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं तक पहुंची थी और उनमें से कइयों से लंबी पूछताछ की गई थी। इनमें से कुछ को लंबे अरसे तक जेल में रहना पड़ा था। एसएससी घोटाला इस बात की मिसाल है कि कैसे लंबे समय तक इसे अंजाम दिया गया और इस बारे में ना तो मीडिया में ज्यादा खबरें छपी और ना ही विपक्षी दलों ने इस मामले को तूल दिया। जनहित याचिकाओं के आधार पर अगर कलकत्ता हाईकोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच नहीं सौंपी होती तो शायद अब सब कुछ पर्दे के पीछे ही रहता।
 
बंगाल के इतिहास में घोटाले तो पहले भी हुए हैं। करीब दस साल पहले सामने आया चिटफंड घोटाला तो कई हजार करोड़ का होने का अनुमान है। हालांकि किसी मामले में इतनी नकदी नहीं बरामद की गई थी, जितनी अब तक की जा चुकी है। ईडी का दावा है कि इस मामले में अभी कम से कम और सौ करोड़ की रकम शामिल है।

चिटफंड घोटाला इस मायने में अलग था कि वह निजी कंपनियों ने किया था और उनके मालिकों को किसी नेता ने भले कभी सामयिक मदद दी हो, कोई बड़ा मंत्री या नेता सीधे तौर पर उसमें शामिल नहीं था। शिक्षा विभाग में नियुक्ति में हुई धांधली में जब सीधे शिक्षा मंत्री ही शामिल हो तो इसकी गंभीरता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
 
दिलचस्प बात यह है कि वर्ष 2018 में ही इस घोटाले की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। हालांकि विपक्षी दलों के नेताओं ने तो इसे मुद्दा नहीं ही बनाया, मीडिया में भी यह खबर हाशिए पर ही रही।
 
नौकरी छोड़ राजनीति में आये पार्थ
कई लोगों के याद होगा कि पार्थ चटर्जी वर्ष 1998 की पहली जनवरी को तृणमूल कांग्रेस की स्थापना के समय एंड्रयू यूल की अपनी भारी-भरकम पैकेज वाली नौकरी छोड़कर राजनीति में आए तो उन्होंने टिप्पणी की थी, "मैं पैसे कमाने के लिए राजनीति में नहीं आया। अगर यही करना होता तो कॉर्पोरेट की इतनी बढ़िया नौकरी क्यों छोड़ता?" अब उसी पार्थ की महिला मित्र अर्पिता चटर्जी के अलग-अलग फ्लैट से 50 करोड़ से ज्यादा की नकदी और पांच करोड़ से ज्यादा के आभूषण और विदेशी मुद्रा की बरामदगी ने यह सवाल खड़ा किया है कि पार्थ का असली चेहरा कौन सा है?
 
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "पहले हजारों करोड़ का चिटफंड घोटाला और अब शिक्षा घोटाले में सीधे ममता सरकार में नंबर दो रहे शिक्षा मंत्री की गिरफ्तारी इस बात का सबूत हैं कि बीते एक दशक या उससे कुछ लंबे अरसे में बंगाल में राजनीति की तस्वीर कैसे बदली है। हालांकि यह भी सच है कि एक घटना से तमाम राजनेताओं को दोषी या भ्रष्ट मान लेना उचित नहीं होगा। पकड़े जाने से पहले तक तो पार्थ भी सीबीआई और ईडी की पूछताछ को बीजेपी की बदले की कार्रवाई बताते हुए अपनी कमीज के उजली होने का दावा करते फिर रहे थे।"
 
राजनीति के जानकारों का कहना है कि इस घोटाले के खुलासे से यह बात साफ हो गई है कि राजनीति में भ्रष्टाचार का तौर तरीका पहले के मुकाबले कितना बदल गया है।
 
कैसे हुआ घोटाला
वर्ष 2016 में बंगाल के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की भर्ती के लिए स्कूल सेवा आयोग (एसएससी) की ओर से एक परीक्षा आयोजित की गई थी। इसके नतीजों के आधार पर जो मेरिट लिस्ट तैयार की गई थी उसमें सिलीगुड़ी की रहने वाली बबीता सरकार 77 नंबर पाकर टॉप 20 में जगह बनाने में कामयाब रही थी।

आयोग ने कुछ दिनों बाद किसी नामालूम वजह से इस मेरिट लिस्ट को रद्द कर दिया और दूसरी मेरिट लिस्ट तैयार की। नई मेरिट लिस्ट में बबीता सरकार का नाम तो वेटिंग लिस्ट में चला गया लेकिन, तृणमूल कांग्रेस सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री परेश अधिकारी की पुत्री अंकिता अधिकारी का नाम सूची में पहले नंबर पर आ गया।
 
बबीता सरकार के पिता ने कलकत्ता हाईकोर्ट में दूसरी मेरिट लिस्ट को चुनौती दी। लंबे अरसे तक इस याचिका पर सुनवाई के बाद अदालत ने इस मामले की जांच के लिए न्यायमूर्ति (रिटायर्ड) रंजीत कुमार बाग की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।

समिति ने अपनी जांच रिपोर्ट में घोटाले में शामिल पांच तत्कालीन अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश की। इस रिपोर्ट के आधार पर हाईकोर्ट ने इस मामले की सीबीआई जांच का आदेश दिया और उसने एफआईआर दर्ज कर जांच शुरू कर दी।
 
हाईकोर्ट ने शिक्षा मंत्री परेश अधिकारी की बेटी अंकिता अधिकारी की नियुक्ति को अवैध करार देते हुए उनसे 41 महीने का वेतन दो किस्तों में वसूलने और उनकी जगह बबीता सरकार को नौकरी देने का भी आदेश दिया।
 
सीबीआई और ईडी की अब तक की जांच के मुताबिक दोषी अधिकारियों ने चुनिंदा उम्मीदवारों से अपनी ओएमआर उत्तर पुस्तिकाओं के बारे में सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत जानकारी मांगने और पुनर्मूल्यांकन की अपील करने की सलाह दी। उसके बाद ओएमआर शीट में ऐसे उम्मीदवारों के नंबर बढ़ा दिए जिससे दूसरी मेरिट लिस्ट में उनके नाम मेरिट लिस्ट में काफी ऊपर आ गए।

सीबीआई के एक अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, "इस घोटाले में उम्मीदवारों के नंबर बढ़ाने के लिए आरटीआई को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया।"
 
इस घोटाले के सामने आने के बाद उम्मीदवारों ने राज्य भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू किया था। कई उम्मीदवार तो अब भी अनशन और धरने पर बैठे हैं। लेकिन बावजूद इसके सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। विपक्ष ने भी कभी इस घोटाले को मुद्दा बनाने का प्रयास नहीं किया।
 
क्या साफ-सुथरी होगी राजनीति?
भ्रष्टाचार की इस घटना ने तृणमूल कांग्रेस में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के नेताओं के बीच बीते कुछ समय से जारी टकराव को भी सतह पर ला दिया है। ममता के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी ने तो वर्ष 2016 में ही ममता को पार्थ को सरकार में शामिल नहीं करने की सलाह दी थी। तब पार्थ के समर्थन में उतरने वाले कुछ वरिष्ठ नेताओं के दबाव में ममता को मंत्रिमंडल में उन्हें शामिल करना पड़ा था।
 
इस घोटाले में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। कई दशक तक बंगाल की राजनीतिक कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, बंगाल की मीडिया का स्वरूप हाल के वर्षों में बदल गया है। उसे ममता समर्थक माना जाने लगा है। यही वजह है कि शिक्षा विभाग के इस घोटाले को कहीं ज्यादा तवज्जो नहीं मिली। अगर मीडिया में यह खबरें पहले छपी होती तो शायद आज मामला यहां तक नहीं पहुंचता और ममता बनर्जी सरकार और तृणमूल कांग्रेस की ऐसी किरकिरी नहीं होती।
 
क्या इस मामले के खुलासे के बाद राजनीति के दामन पर लगे दागों को धोने की दिशा में कोई ठोस पहल होगी? समीरन पाल कहते हैं, इसकी कोई उम्मीद नहीं नजर आती। हर पार्टी में ऐसे लोग भरे पड़े हैं। लाख टके का सवाल यह है कि आकिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा?
 
रिपोर्ट : प्रभाकर मणि तिवारी
 
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