- अर्जुनविषादयोग- नामक पहला अध्याय
- सांख्ययोग-नामक दूसरा अध्याय
- कर्मयोग- नामक तीसरा अध्याय
- 01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण
- 09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण
- 17-24 ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
- 25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
- 36-43 काम के निरोध का विषय
- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग- नामक चौथा अध्याय
- कर्मसंन्यासयोग- नामक पाँचवाँ अध्याय
- आत्मसंयमयोग- नामक छठा अध्याय
- ज्ञानविज्ञानयोग- नामक सातवाँ अध्याय
- अक्षरब्रह्मयोग- नामक आठवाँ अध्याय
- राजविद्याराजगुह्ययोग- नामक नौवाँ अध्याय
- विभूतियोग- नामक दसवाँ अध्याय
- विश्वरूपदर्शनयोग- नामक ग्यारहवाँ अध्याय
- 01-04 विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना
- 05-08 भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन
- 09-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन
- 15-31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
- 32-34 भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना
- 35-46 भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
- 47-50 भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना
- 51-55 बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन।
- भक्तियोग- नामक बारहवाँ अध्याय
- क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग- नामक तेरहवाँ अध्याय
- गुणत्रयविभागयोग- नामक चौदहवाँ अध्याय
- पुरुषोत्तमयोग- नामक पंद्रहवाँ अध्याय
- दैवासुरसम्पद्विभागयोग- नामक सोलहवाँ अध्याय
- श्रद्धात्रयविभागयोग- नामक सत्रहवाँ अध्याय
- मोक्षसंन्यासयोग- नामक अठारहवाँ अध्याय