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Last Modified: मंगलवार, 29 जून 2021 (21:18 IST)

संविधान में 'भोजन का अधिकार' शामिल होने की व्याख्या की जा सकती है : उच्चतम न्यायालय

संविधान में 'भोजन का अधिकार' शामिल होने की व्याख्या की जा सकती है : उच्चतम न्यायालय - Supreme Court said, the inclusion of right to food in the constitution can be interpreted
नई दिल्ली। खाद्य सुरक्षा की बुनियादी वैश्विक अवधारणा का उल्लेख करते हुए उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि इसके लिए स्पष्ट प्रावधान नहीं होने की सूरत में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार, भोजन का अधिकार और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीवन के अधिकार में शामिल होने की व्याख्या की जा सकती है।

शीर्ष अदालत ने 3 कार्यकर्ताओं की याचिका पर कई निर्देश जारी करते हुए यह टिप्पणी की और कहा, अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त जीवन का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं तक पहुंच के साथ गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। बेहतर जीवन के लिए खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराना सभी राज्यों और सरकारों का कर्तव्य है।

कार्यकर्ताओं अंजलि भारद्वाज, हर्ष मंदर और जगदीप छोकर ने उन प्रवासी श्रमिकों के लिए कल्याणकारी उपाय लागू करने का अनुरोध किया था, जिन्हें कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान एक बार फिर देश के विभिन्न हिस्सों में लॉकडाउन और अन्य प्रतिबंधों के चलते दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने कहा, मनुष्यों के लिए भोजन का अधिकार को लेकर वैश्विक स्तर पर जागरूकता है। हमारा देश कोई अपवाद नहीं है। देरी से, सभी सरकारें यह उपाय कर रही हैं और ऐसे कदम उठा रही हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भूखा ना रहे और किसी की मौत भूख से नहीं हो। वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा की मूल अवधारणा यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक व्यक्ति को हमेशा स्वस्थ जीवन जीने के लिए आवश्यक भोजन प्राप्त हो सके।
पीठ ने कहा, भारत के संविधान में भोजन के अधिकार के संबंध में स्पष्ट प्रावधान नहीं है। ऐसे में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार, भोजन का अधिकार और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं को शामिल करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदान किए गए जीवन का अधिकार के तहत व्याख्या की जा सकती है।
शीर्ष अदालत ने अपने 80 पन्नों के फैसले में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के 2017-18 के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि करीब 38 करोड़ प्रवासी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं और इन्हें खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार की है।
राज्यों को गरीब लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के लिए बाध्यकारी करार देते हुए पीठ ने कहा कि इस तरह की सुरक्षा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से संसद ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 को लागू किया था।

पीठ ने अपने फैसले में कहा, राज्य के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के तहत सभी लोगों को शामिल करने के लिए निवासियों की कुल संख्या को फिर से निर्धारित करने के वास्ते केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की धारा 9 के तहत कदम उठा सकती है।(भाषा)
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