Manipur Violence : मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ यौन हमले पर नाराजगी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भीड़ दूसरे समुदाय को अपने आधिपत्य का संदेश देने के लिए यौन हिंसा का इस्तेमाल करती है और राज्य इसे रोकने के लिए बाध्य है।
अदालत ने अपने द्वारा गठित सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की 3 सदस्यीय समिति से 4 मई से मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ हुई हिंसा की प्रकृति की जांच करने को भी कहा।
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने सात अगस्त के अपने आदेश में कहा कि महिलाओं को यौन अपराधों और हिंसा का शिकार बनाना पूरी तरह से अस्वीकार्य है और यह गरिमा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता के संवैधानिक मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है।
पीठ ने कहा कि भीड़ आमतौर पर कई कारणों से महिलाओं के खिलाफ हिंसा का सहारा लेती है, जिसमें यह तथ्य भी शामिल है कि यदि वे एक बड़े समूह के सदस्य हैं तो वे अपने अपराधों के लिए सजा से बच सकते हैं।
आदेश में कहा गया कि सांप्रदायिक हिंसा के समय, भीड़ उस समुदाय को अपने आधिपत्य का संदेश देने के लिए यौन हिंसा का इस्तेमाल करती है जिससे पीड़ित या बचे हुए लोग संबंधित होते हैं।
न्यायालय ने कहा कि संघर्ष के दौरान महिलाओं के खिलाफ इस तरह की भयानक हिंसा एक अत्याचार के अलावा और कुछ नहीं है। लोगों को ऐसी निंदनीय हिंसा करने से रोकना और जिन लोगों को हिंसा में निशाना बनाया जाता है, उनकी रक्षा करना राज्य का परम कर्तव्य है - उसका सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य भी।
बहुसंख्यक मेइती समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के विरोध में पर्वतीय जिलों में 'आदिवासी एकजुटता मार्च' के दौरान तीन मई को मणिपुर में जातीय हिंसा भड़कने के बाद से 160 से अधिक लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं।
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस के लिए आरोपी व्यक्ति की शीघ्र पहचान करना और उसे गिरफ्तार करना महत्वपूर्ण है क्योंकि जांच पूरी करने के लिए उनकी जरूरत पड़ सकती है। सांप्रदायिक संघर्ष के कारण आवासीय संपत्ति और धार्मिक स्थलों को भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। वह अपने संवैधानिक दायित्व को निभाते हुए कदम उठाने के लिए बाध्य है।
पीठ ने कहा कि जो उपाय बताए गए हैं उनके बारे में अदालत को लगता है कि वे सभी समुदायों के लिए किए जाएंगे और उन सभी लोगों के साथ न्याय किया जाएगा जो सांप्रदायिक हिंसा में (किसी भी तरह से) हताहत हुए हैं। हिंसा के पीड़ितों को उपचारात्मक उपाय प्राप्त होने चाहिए चाहे और इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे किस समुदाय के हैं। इसी तरह, हिंसा के अपराधियों को हिंसा के स्रोत की परवाह किए बिना जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
शीर्ष अदालत ने कहा कि गवाहों के बयानों सहित कई गंभीर आरोप हैं, जो दर्शाते हैं कि कानून लागू करने वाली मशीनरी हिंसा को नियंत्रित करने में नाकाम रही है और कुछ स्थितियों में, अपराधियों के साथ मिली हुई है। उचित जांच के अभाव में, यह अदालत इन आरोपों पर कोई तथ्यात्मक निष्कर्ष नहीं निकालेगी। लेकिन, कम से कम, ऐसे आरोपों के लिए वस्तुनिष्ठ तथ्यान्वेषण की आवश्यकता है।
पीठ ने कहा कि जो लोग सार्वजनिक कर्तव्य के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें समान रूप से जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, भले ही उनकी रैंक, स्थिति या पद कुछ भी हो।
शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्य का प्रत्येक अधिकारी या कर्मचारी जो न केवल संवैधानिक और आधिकारिक कर्तव्यों की अवहेलना का दोषी है, बल्कि अपराधियों के साथ मिलकर खुद अपराधी बनने का भी दोषी है, उसे हर हाल में जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि हिंसा रुके, हिंसा के अपराधियों को दंडित किया जाए और न्याय प्रणाली में समुदाय का विश्वास और भरोसा बहाल हो, शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के तीन पूर्व न्यायाधीशों की एक समिति गठित की। इस समति में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय की पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गीता मित्तल, बंबई उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति शालिनी फणसलकर जोशी और दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आशा मेनन शामिल हैं।