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Last Modified: रविवार, 28 नवंबर 2021 (18:34 IST)

जातिवाद पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी, 'आजादी के 75 साल बाद भी नहीं हुआ खत्म, आज भी 'कट्टरता' कायम'

जातिवाद पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी, 'आजादी के 75 साल बाद भी नहीं हुआ खत्म, आज भी 'कट्टरता' कायम' - supreme court on casteism not finished even after 75 years of independence fanaticism persists even today
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जाति से प्रेरित हिंसा की घटनाओं से पता चलता है कि आजादी के 75 साल बाद भी जातिवाद खत्म नहीं हुआ है और यह सही समय है जब नागरिक समाज जाति के नाम पर किए गए भयानक अपराधों के प्रति 'कड़ी अस्वीकृति' के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त करे।
 
शीर्ष अदालत ने उत्तरप्रदेश में 1991 में झूठी शान की खातिर की गई हत्या (ऑनर किलिंग) से संबंधित मामले में दायर याचिकाओं के समूह पर फैसला सुनाते हुए कहा कि वह अधिकारियों को ऑनर ​​किलिंग रोकने के लिए कड़े कदम उठाने का पहले कई निर्देश जारी कर चुका है। उन निर्देशों को बिना और देरी किए लागू किया जाना चाहिए। उक्त मामले में एक महिला समेत 3 लोगों की मौत हुई थी।
अदालत ने कहा कि जाति-आधारित प्रथाओं द्वारा कायम 'कट्टरता' आज भी प्रचलित है और यह सभी नागरिकों के लिए संविधान के समानता के उद्देश्य को बाधित करती है। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बी आर गवई की सदस्यता वाली पीठ ने कहा कि 'जातिगत सामाजिक बंधनों का उल्लंघन करने के आरोप में दो युवकों और एक महिला पर लगभग 12 घंटे तक हमला किया गया और उनकी हत्या कर दी गई। देश में जाति-प्रेरित हिंसा के ये प्रकरण इस तथ्य को प्रदर्शित करते हैं कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष के बाद भी जातिवाद खत्म नहीं हुआ है।'
 
शीर्ष अदालत ने इस मामले में 23 आरोपियों की दोषसिद्धि और तीन लोगों को उनकी पहचान में अस्पष्टता को देखते हुए बरी करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। गवाहों के संरक्षण के पहलू का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि मामले में अभियोजन पक्ष के 12 गवाह मुकर गए।
 
अदालत ने कहा कि 'भले ही गवाह मुकर गए हों, लेकिन अगर वे स्वाभाविक और स्वतंत्र गवाह हैं और उनके पास आरोपी को झूठ बोलकर फंसाने का कोई कारण नहीं है, तो उनके सबूतों को स्वीकार किया जा सकता था।
 
शीर्ष अदालत ने कहा कि अदालतों में बिना किसी दबाव और धमकी के स्वतंत्र तथा निष्पक्ष तरीके से गवाही देने के अधिकार पर 'आज भी गंभीर हमले' होते हैं और अगर कोई धमकियों या अन्य दबावों के कारण अदालतों में गवाही देने में असमर्थ है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) और 21 के तहत अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है।
पीठ ने कहा कि 'इस देश के लोगों को मिले जीवन की गारंटी के अधिकार में एक ऐसे समाज में रहने का अधिकार भी शामिल है जो अपराध और भय से मुक्त हो। गवाहों को बिना किसी डर या दबाव के अदालतों में गवाही देने का अधिकार है।'
 
पीठ ने कहा कि गवाहों के मुकर जाने का एक मुख्य कारण यह है कि उन्हें राज्य द्वारा उचित सुरक्षा नहीं दी जाती है। यह एक 'कड़वी सच्चाई' है, खासकर उन मामलों में जहां आरोपी प्रभावशाली लोग हैं और उन पर जघन्य अपराधों के लिए मुकदमा चलाया जाता है तथा वे गवाहों को डराने या धमकाने का प्रयास करते हैं।'
 
पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के पहले के एक निर्णय का जिक्र करते हुए कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति इस कारण बरकरार है कि सरकार ने इन गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई सुरक्षात्मक उपाय नहीं किया है, जिसे आमतौर पर 'गवाह संरक्षण' के रूप में जाना जाता है।
 
पीठ ने कहा कि अपने नागरिकों के संरक्षक के रूप में, सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई गवाह सुनवाई के दौरान सुरक्षित रूप से सच्चाई को बयान कर सके। पीठ ने कहा कि डॉक्टर बी. आर. आम्बेडकर के अनुसार, अंतर-जातीय विवाह समानता प्राप्त करने के लिए जातिवाद से छुटकारा पाने का एक उपाय है।
 
पीठ ने कहा कि 'समाज के सभी वर्गों, विशेष रूप से दबे कुचले वर्गों के लिए न्याय व समानता सुनिश्चित करने का उनका दृष्टिकोण संविधान की प्रस्तावना में अच्छी तरह से निहित है।' पीठ ने कहा, 'इस देश में ऑनर किलिंग के मामलों की संख्या थोड़ी कम हुई है, लेकिन यह बंद नहीं हुई है और यह सही समय है जब नागरिक समाज जाति के नाम पर किए गए भयानक अपराधों के बारे में 'कड़ी अस्वीकृति' के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त करे।'
साल 1991 के उत्तर प्रदेश ऑनर किलिंग मामले में नवंबर 2011 में एक निचली अदालत ने 35 आरोपियों को दोषी ठहराया था। सुप्रीम कोर्ट ने दो लोगों को बरी कर दिया था जबकि शेष व्यक्तियों की दोषसिद्धि को बरकरार रखा था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 8 दोषियों को दी गई मौत की सजा को मृत्युपर्यंत जेल में रहने की सजा में बदल दिया था।
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