देश के तमाम राज्यों के शहरों में हिंसा और आगजनी के जो दृश्य नजर आ रहे हैं, वे बेहद सधे हुए और योजनाबद्ध हैं। जैसे इन्हें इन सबका खासा अनुभव हो। जो इतने योजनाबद्ध तरीके से हिंसा को अंजाम दे रहे हैं, मुंह पर कपड़ा बांध चेहरे को छुपाकर यह कृत्य कर रहे हैं, क्या वे वाकई बेरोजगार युवा हैं, 17- 18 साल के स्टूडेंट हैं जो फौज में जाने का सपना देखते हैं। या ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि अग्निपथ योजना के विरोध और आंदोलन को राजनीति ने अपने स्वार्थ के लिए हाईजैक कर लिया है।
यह बात इसलिए कही जा रही है, क्योंकि बिहार से कई ऐसे वीडियो सामने आ रहे हैं, जिनमें उपद्रवी लोगों के वाहनों की नंबर प्लेट को देखकर उन्हें टारगेट कर रहे हैं। एक वीडियो ऐसा ही देखा गया है जिसमें पहले कार का नंबर देखा उसके बाद उसमें तोड़-फोड़ की गई। दूसरी तरफ कहीं रेलवे प्लेटफॉर्म और स्टेशन की कुर्सियां तोड़ी जा रही हैं तो कहीं पंखे और दूसरी सुविधाओं को आग लगाई जा रही है। रेल, बस और रेल के इंजन में आग लगाने के दृश्य तो हम पहले देख ही चुके हैं।
सवाल उठता है कि क्या आगजनी और हिंसा करने वाले 17 और 18 साल के ये वो स्टूडेंट हैं, जो फौज में जाना चाहते हैं। या नकाब की आड़ में राजनीतिक दलों के वो झंडाबरदार हैं जो स्टूडेंट का सहारा लेकर अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं। सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं और सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं।
क्या 17 साल का स्टूडेंट जिसने अभी अपनी पहली नौकरी और अपने अधिकारों का कखग भी नहीं सीखा, वो ऐसी हिंसा और आग को अंजाम दे सकता है, क्यों वो बेराजगार अनुभवहीन इस तरह की हिंसा का इतना अनुभवी हो सकता है कि वो चुन चुनकर संसाधनों को आग के हवाले करे या टारगेट कर के चीजों और लोगों पर हमला करे?
सबसे बड़ी और जरूरी बात कि क्या जिस स्टूडेंट का अभी स्कूल ही क्लियर नहीं हुआ है, उसके परिजन ऐसे हिंसक आंदोलन के लिए उसे घर से बाहर निकलने देंगे?
बिहार और यूपी समेत कई राज्यों में गिरफ्तारियां हुईं हैं। ऐसे में जो अभ्यर्थी फौज में जाने के लिए इतना उतावला और इच्छुक है, उसे फौज ही क्या किसी दूसरी सरकारी सेवा में एफआईआर के ठप्पे के साथ नौकरी मिल सकेगी? क्या वो एफआईआर का दाग अपने सिर पर लेकर भविष्य बर्बाद होने का खतरा उठाएगा?
ऐसे कई सवाल हैं जो इस तरह की हिंसा के शोर और उत्पाद के बीच दबे हुए हैं। उनकी पड़ताल फिलहाल नहीं हो रही है, लेकिन यह तय है कि जब इस उपद्रव का शोर थमेगा तो असल चेहरे सामने आएंगे। जाहिर है, यह हिंसक आंदोलन हर बार की तरह इस बार भी राजनीतिक रंग का भेंट चढ गया है। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज कहा ही है। देश में पिछले 5 दिन से सेना की नई भर्ती योजना अग्निपथ पर जारी बवाल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा,
हमारे देश का दुर्भाग्य है कि बहुत सी अच्छी चीजें, अच्छे उद्देश्य से की गई चीजें, राजनीति के रंग में फंस जाती हैं
स्पष्ट है, पीएम मोदी किस तरफ इशारा कर रहे हैं। पीएम के बयान को राजनीति स्वार्थ से ऊपर उठकर भी समझना होगा, क्योंकि यह पहली बार नहीं हुआ है, जब किसी सरकारी योजना या प्रावधान के विरोध में शुरू हुए आंदोलन को राजनीति ने हाईजैक किया है। चाहे वो किसान बिल हो या सीएए। हर बार दूसरी तरफ बैठे एक पूरे असंतुष्ट वर्ग ने सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की है।
हालांकि इसमें नुकसान कभी न सरकार का हुआ और न ही उपद्रवियों का फायदा हुआ। इसमें अंतत: देश की संपत्ति और संपदा ही बर्बाद हुई। इस बार भी यही हुआ। एक समाचार चैनल की रिपोर्ट के मुताबिक अब तक 600 करोड़ रुपए से ज्यादा की सरकारी संपत्ति जलाई जा चुकी है। यह सिर्फ अनुमानित आकड़ा है। इसमें ट्रेन, ट्रेन के सामान्य और आधुनिक इंजन, रेलवे स्टेशन, रेलवे प्लेटफॉर्म और बसें शामिल हैं। यह सारी संपदा नष्ट करने से किसे फायदा होगा।
इसके अलावा लोगों के कर्ज पर उठाए गए निजी वाहन, बाइक्स, कारें जलाई और नष्ट की गईं वो अलग हैं। आम आदमी को इसका खामियाजा अपनी तरह से भुगतना होगा, जिसका कोई हिसाब नहीं है।
ऐसे में सरकार, विपक्षी दल और आम आदमी सभी को तय करना चाहिए कि आखिर कहां तक और किस हद तक राजनीति की जाना चाहिए। क्या वो सरकार और सिस्टम पर दबाव की राजनीति हो, विचारों से असहमत होने की राजनीति हो या देश की संपदा को तहस-नहस करने की राजनीति हो।
तय कीजिए... राजनीति में कहां तक और किस हद तक फिसलना है।