गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. BJP strengthened or weakened after assembly election results
Last Modified: रविवार, 13 मार्च 2022 (20:09 IST)

सीटें तो कम हो गईं! भाजपा मज़बूत हुई कि कमजोर?

सीटें तो कम हो गईं! भाजपा मज़बूत हुई कि कमजोर? - BJP strengthened or weakened after assembly election results
एग्जिट पोल्स के ‘अनुमान’ अंततः अंतिम ‘परिणाम’ भी साबित हो गए। प्रधानमंत्री सहित भाजपा के सभी बड़े नेताओं की भाव-भंगिमाओं में पहले से ही ऐसा परिलक्षित भी हो रहा था। मोदी और योगी नतीजों से अभिभूत हैं पर दोनों के लिए कारण अलग-अलग हैं। एक प्रधानमंत्री हैं और दूसरे कथित तौर पर बनने की आकांक्षा रखते हैं। यूपी के संग्राम को 2024 का सेमी-फ़ाइनल बताया गया था।

चुनावों के पहले अमित शाह ने लखनऊ में मतदाताओं से कहा था कि मोदी की 2024 में दिल्ली में वापसी के लिए योगी को 2022 में फिर से सीएम चुना जाना ज़रूरी है।देखना होगा कि जनता द्वारा अपना काम पूरा कर दिए जाने के बाद प्रधानमंत्री, योगी को अब भी ‘उपयोगी’ मानते हुए मुख्यमंत्री के पद के लिए उनके नाम की घोषणा कब करते हैं! करते भी हैं या नहीं!

नतीजों के बाद प्रधानमंत्री ने कहा कि विशेषज्ञों द्वारा 2019 में लोकसभा की जीत का कारण यूपी में 2017 (403 में से 325 सीटें) में हुई एनडीए की विजय को बताया गया था। 2024 में जीत का कारण 2022 को बताया जाएगा। सवाल यह है कि दो साल बाद (या पूर्व ही!) होने वाले लोकसभा चुनावों के इतना पहले और ग्यारह राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजों की प्रतीक्षा किए बग़ैर इस तरह के आशावाद को कितना औचित्यपूर्ण माना जाना चाहिए?

यूपी सहित पाँच राज्यों के परिणामों को लेकर प्रधानमंत्री या किसी अन्य भाजपा नेता ने अभी तक जो कुछ नहीं कहा, उसकी अगर तटस्थ भाव से समीक्षा की जाए तो कुछ ऐसे तथ्य उजागर होते हैं जिनका ज़िक्र किया जाना ज़रूरी है : अपनी बात इस सवाल से शुरू करते हैं कि हाल के चुनावों में भाजपा (हिंदुत्व) की ताक़त बढ़ी है या कम हुई है? भाजपा गठबंधन को इस बार 273 (255+18) सीटें मिलीं हैं जबकि 2017 में यह आँकड़ा 325 (312+13 )का था यानी 2017 के मुक़ाबले 52 सीटें (16 प्रतिशत) कम हुई हैं।

अखिलेश के ख़िलाफ़ भाजपा की डबल इंजिन की सरकारों की सम्मिलित ताक़त के विरोध और साथ में बसपा के परोक्ष समर्थन के बावजूद सपा गठबंधन की सीटें तीन गुना (47 से 125) हो गईं। पूछा जा सकता है कि बसपा द्वारा अगर 2017 की तरह ही तटस्थ रहते हुए भाजपा को समर्थन नहीं दिया जाता या सपा का एकतरफ़ा विरोध नहीं किया जाता तो उसकी (भाजपा) कम होने वाली सीटों का आँकड़ा कहाँ पहुँचता?

विश्लेषक बताते हैं कि बसपा के परंपरागत जाटव वोट बैंक से कोई 13 प्रतिशत और ग़ैर-जाटव से नौ प्रतिशत समर्थन इस बार भाजपा के खाते में शिफ़्ट हुआ है। मीडिया में प्रकाशित खबरों पर यक़ीन करें तो मायावती ने पूरी ताक़त अपनी पार्टी को जीत दिलवाने की बजाय सपा को हरवाने में झोंक दी थी। विपक्ष की राजनीति में ऐसा प्रयोग पहली बार ही हुआ होगा। 2017 में बसपा के पास 19 सीटें थीं और पार्टी तब नाखुश थी।इस बार एक सीट रह गई, पर पार्टी में कोई मातम नहीं है।

मीडिया में जानकारी दी गई है कि लगभग सवा सौ सीटों पर बसपा ने सपा उम्मीदवारों की जाति और धर्म के ही उम्मीदवार खड़े किए। इन उम्मीदवारों के कारण सपा के वोट कट गए और 66 स्थानों पर भाजपा के प्रत्याशी विजयी हो गए। अट्ठाईस सीटें ऐसी बताई जाती हैं जिन पर भाजपा के पक्ष में फ़ैसला पाँच हज़ार से कम मतों से हुआ।

इवीएम के पुण्य-प्रताप को लेकर जिस तरह की चर्चाएँ (या अफ़वाहें) चल रहीं हैं, उनकी पुष्टि या खंडन पेगासस की तरह ही रहस्य के परदों के पीछे बना रहने वाला है।'मनुवादी' भाजपा को लाभ पहुँचाने वाले बसपा के अभूतपूर्व दलित बलिदान को किसी भी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है!

भाजपा को छोड़कर सपा के साथ जुड़े पिछड़ी जाति के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की फ़ाज़िलनगर सीट से हार को भाजपा की लहर का परिणाम मान लिया जा सकता है पर योगी सरकार के उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदार केशव प्रसाद मौर्य की सिराथू सीट से सपा की महिला उम्मीदवार पल्लवी पटेल के हाथों पराजय पर क्या सफ़ाई दी जाएगी? आज़मगढ़ ज़िले की सभी दस सीटें सपा ने जीत लीं।सिराथू सहित कोशांबी ज़िले की तीनों सीटें भाजपा हार गई। ऐसे और भी कई ज़िले हैं जहां भाजपा को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा।

हिंदुत्व की लहर अगर 2017 की तरह ही पूरी यूपी में ही फैली हुई थी तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि उसने सपा का सभी जगहों पर एक जैसा सफ़ाया नहीं किया? क्या इन स्थानों पर बसपा उसके पक्ष में प्रभावकारी साबित नहीं हो सकी या दलितों ने मायावती की भाजपा-समर्थन की नीति को नकार दिया? (इस चुनाव में बसपा का वोट शेयर लगभग आधा रह गया।)

एक अन्य जानकारी यह दी जा रही है कि 2017 में केवल 24 मुस्लिम प्रत्याशी ही चुनाव जीते थे, पर हिंदुत्व के बुलडोज़री आतंक के बावजूद इस बार तैंतीस मुस्लिम उम्मीदवार विजयी हुए हैं।बताया गया है कि सपा के इकतीस मुस्लिम उम्मीदवारों की हार का मार्जिन बसपा द्वारा खड़े किए गए (मुस्लिम!)

उम्मीदवारों को प्राप्त मतों से कम था।(कोई सौ सीटों पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार खड़े करके मायावती की तरह ही सपा प्रत्याशियों को हराने में भाजपा की मदद करने को लेकर असदुद्दीन ओवैसी द्वारा की गई कोशिशों का भी बराबरी के साथ ज़िक्र किया जा सकता है।

ओवैसी यही काम बिहार के पिछले चुनावों में भी कर चुके हैं।) विद्वान आलोचकों के इस तर्क का भी सम्मान किया जा सकता है कि सपा को तो भाजपा-बसपा के बीच स्थापित हुई समझ की पहले से जानकारी थी, इसके बावजूद उसने अपनी तैयारी दो विपक्षी उम्मीदवारों (भाजपा-बसपा) को ध्यान में रखते हुए क्यों नहीं की?

यूपी से निकलकर उत्तराखंड और पंजाब के हिंदुत्व की भी थोड़ी बात कर लें! उत्तराखंड में हार के डर से पाँच साल में दो-दो मुख्यमंत्री हटा दिए जाने के बावजूद न सिर्फ़ तीसरे (पुष्कर सिंह धामी) भी हार गए, वहाँ भाजपा की दस सीटें भी कम हो गईं। कांग्रेस की आठ बढ़ गईं। यूपी और उत्तराखंड तो किसी समय एक ही थे! गोरखपुर के मठ के हिंदुत्व की लहर देहरादून तक क्यों नहीं पहुँच पाई?

पंजाब की कोई तीन करोड़ की आबादी में सवा करोड़ (39 प्रतिशत) हिंदू हैं। 2017 में भाजपा के पास तीन सीटें थीं। इस बार दो रह गईं।क्या पंजाब का हिंदुत्व भाजपा के हिंदुत्व से अलग है? चुनावों के ठीक पहले बलात्कार के आरोप में बंद एक बड़े धार्मिक नेता का हिरासत से बाहर चुनाव क्षेत्र में उपलब्ध रहना भी यूपी के लखीमपुर खीरी जैसे नतीजे पंजाब में नहीं दे सका!

हाल के चुनावों के ठीक पहले हुए (30 अक्टूबर, 2021) 95 प्रतिशत हिंदू आबादी वाले हिमाचल प्रदेश के उप चुनावों में लोकसभा की महत्वपूर्ण मंडी सीट और विधानसभा की तीनों सीटें कांग्रेस ने भाजपा से छीन लीं थीं।एक हिंदू प्रदेश में भी हिंदुत्व क्यों फेल हो गया?

प्रधानमंत्री ने कहा है कि 2022 के नतीजों से 2024 के लिए संकेत मिल जाना चाहिए। सवाल यह है कि जिन संकेतों की तरफ़ मोदी इशारा करना चाहते हैं, वे अगर देश की जनता के संकेतों से मेल नहीं खाते हों तो फिर क्या निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए?

एक निष्कर्ष तो यही हो सकता है कि 2022 के अंत के आसपास ही प्रधानमंत्री के सपनों के 2024 का सूर्योदय देखने के लिए देश को भी चुनाव आयोग की तरह ही अपनी भी तैयारी अभी से कर लेना चाहिए।(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
ये भी पढ़ें
Heat Stroke से बचकर रहें, जानिए Expert Advice