लोकमाता अहिल्या बाई होलकर

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प्रजा सुखे सुखं राज्ञा: प्रजानाश्च हिते हितंl
नात्मप्रियं सुखं राज्ञा: प्रजानाश्च सुखे सुखम्ll

अर्थात प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है और प्रजा के हित में ही राजा का हित। अपना प्रिय राजा का सुख नहीं है, उसका सुख तो प्रजा के सुखी रहने में ही है। प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य चाणक्य द्वारा दी गई। आदर्श राजा की इस परिभाषा पर यदि कोई शासक पूर्णतया खरा उतरता हैं, तो वह हैं मालवा की शासिका देवी अहिल्याबाई होलकर। अपने कुशल प्रशासन तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के कारण वह प्रजा में इतनी लोकप्रिय थीं कि अपने जीवनकाल में ही वे प्रजाजनों के दिलों में देवी के रूप में स्थापित हो गई थीं।

देवी अहिल्या का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर (अब अहिल्या नगर) जिले के ग्राम चौंडी में हुआ था। उनके पिता माणकोजी गांव के पाटिल थे। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि की अहिल्या बाई को माता-पिता ने पारंपरिक शिक्षा के साथ ही उत्तम संस्कार भी दिए थे। उनकी माता उन्हें बचपन से पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाएं सुनाती थीं। उन्हें कथा-प्रवचन सुनने प्रतिदिन मंदिर ले जाती थीं। यही कारण था कि अहिल्याबाई बचपन से ही धर्मपरायण हो गई थीं।

मल्हारराव होलकर से भेंट

जब अहिल्या बाई 8 वर्ष की थीं तब उनकी भेंट सूबेदार मल्हारराव होलकर से हुई। बाजीराव पेशवा की सेना के साथ किसी अभियान पर जाते समय चौंडी के समीप उनकी सेना का शिविर लगा था। चौंडी के शिव मंदिर में दर्शन के लिए जाने पर वहां मल्हारराव की भेंट बालिका अहिल्या से हुई। तेजस्वी अहिल्या को देख वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तत्काल अहिल्या को अपनी बहू के रूप में पसंद कर लिया। इस प्रकार 1733 ईस्वी में केवल 8 वर्ष की आयु में अहिल्या बाई मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव की पत्नी बनकर मालवा में आ गईं। इस विवाह में उन्हें आशीर्वाद देने के लिए मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव प्रथम स्वयं उपस्थित थे।

अहिल्या बाई की शिक्षा-दीक्षा

अहिल्या जब विवाह के बाद बहू बनकर होलकर परिवार में आईं तब मल्हारराव होलकर ने खंडेराव के साथ-साथ अहिल्या बाई की भी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध भी किया। हालांकि होलकर परिवार का रहन-सहन, रीति रिवाज, अदब-कायदे सामान्य परिवारों से बहुत अलग थे, लेकिन अहिल्या बुद्धिमान तो थीं ही शीघ्र ही सब कुछ सीख गईं और परिवार में ऐसे घुल-मिल गईं जैसे उनका जन्म इसी वातावरण में हुआ हो। उनकी सासू मां गौतमा बाई उनकी शिक्षा-दीक्षा और पठन-पाठन का विशेष ध्यान रखती थीं। ससुर मल्हारराव भी समय मिलने पर उन्हें राजकाज की बारीकियां समझाते रहते थे। धीरे-धीरे वह सभी कामों में निपुण हो गईं। अहिल्या बाई युद्ध कला तथा राजनीति में भी प्रवीण हो गईं।

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पुत्र मालेराव एवं पुत्री मुक्ता का जन्म

सन 1745 में देपालपुर में अहिल्या बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नामकरण मालेराव किया गया। तीन वर्ष बाद 1748 में उन्होंने एक पुत्री मुक्ता बाई को जन्म दिया। खंडेराव का मन राज-काज में नहीं लगता था। वह सुरा-सुंदरी में ही लगे रहते थे। मल्हारराव उनके लिए चिंतित रहते थे तथा उन्हें सही मार्ग पर लाने का निरंतर प्रयास करते रहते थे। अहिल्या के प्रयासों से खंडेराव के व्यवहार में काफी परिवर्तन आया और वे युद्धों भाग लेने लगे थे। सन 1754 में कुंभेरी के किले पर राजा सूरजमल जाट के विरुद्ध युद्ध के दौरान 24 मार्च 1754 को तोप का गोला लगने से खंडेराव वीरगति को प्राप्त हुए।

मल्हारराव ने सती होने से रोका

अहिल्या बाई पर जैसे दुख का पहाड़ टूट पड़ा। उस समय की परंपरा के अनुसार उन्होंने सती होने की तैयारी की। मगर शोकाकुल मल्हारराव ने उन्हें सती होने से रोक दिया। उन्होंने कहा कि बेटी मेरा खंडू तो चला गया, अब तुम ही मेरा बेटा हो, यदि तुम भी चली जाओगी तो यह राज्य कौन संभालेगा? ससुर की आर्त पुकार सुन अहिल्या बाई ने अपना फैसला बदल लिया। उन्होंने स्वयं को राज-काज तथा धर्म-कर्म में लगा लिया। मल्हारराव अक्सर युद्ध अभियानों में लगे रहते थे। ऐसे में उन्हें रसद, फौजी कुमुक तथा युद्ध सामग्री भिजवाने का उत्तरदायित्व निभाने के साथ-साथ राज्य का प्रबंध भी अहिल्या बाई ही देखती थीं। उन्होंने सेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शस्त्र तथा गोला-बारूद बनाने के चार कारखाने भी स्थापित किए।

20 मई 1766 को सूबेदार मल्हारराव होलकर का देहांत हो गया। अहिल्या बाई फिर शोक मे डूब गईं। राज्य का भार अब पूर्णतया उन्हीं पर आ पड़ा था। उन्होंने पूना में पेशवा से संपर्क कर सूबेदारी का दायित्व पुत्र मालेराव को दिला दिया। मगर वह राजकाज के लिए योग्य नहीं होने से राज्य का कामकाज उन्हीं को देखना पड़ रहा था। इसी बीच, एक वर्ष के भीतर मालेराव भी अल्प बीमारी के बाद चल बसे। सूबेदार का पद फिर खाली हो गया।

षड़यंत्र को विफल किया

अहिल्या बाई पूर्व से ही राजकाज देख रही थीं मगर उनके विरोधी अब उनके विरुद्ध षड़यंत्र करने लगे थे। उनका तर्क था कि एक स्त्री को राजगद्दी पर बैठने का अधिकार नहीं है। अहिल्या बाई का कहना था कि मैं एक सूबेदार की बहू तथा एक सूबेदार की मां हूं। इसलिए मुझे राजकाज करने का नैसर्गिक अधिकार है।

उनके दीवान गंगोबा तात्या ने उन पर किसी छोटे बालक को गोद लेकर गद्दी पर बैठाने का दबाव बनाया, जिससे उसके नाम पर शासन दीवान के हाथ आ जाए। अहिल्या दीवान की चाल को भांप गईं और यह सलाह नामंजूर कर दी। इस पर दीवान ने पेशवा के भाई राघोबा दादा के साथ षड़यंत्र कर उन्हें सेना के साथ अहिल्या बाई पर आक्रमण करने के लिए बुलाया। अहिल्या बाई को इसकी खबर मिलते ही उन्होंने तत्काल शिंदे, पवार, गायकवाड़ आदि सूबेदारों को अपनी मदद के लिए बुलवाया। उन्होंने माधवराव पेशवा के पास दूत भेजकर उनका भी समर्थन प्राप्त कर लिया। उसके बाद उन्होंने एक महिला सेना भी तैयार की।

अहिल्या बाई ने राघोबा दादा को पत्र लिखा

हमारे दीवान के कहने पर आप हमारे राज्य को हड़पने के इरादे से यहां आए हैं। मगर सावधान हम भी आपका मुकाबला करने के लिए तैयार हैं। हमने एक महिला सेना बनाई है, जिसे लेकर हम आपसे युद्ध करने को तैयार हैं। यदि आप युद्ध में जीत भी गए तो स्त्रियों की सेना से जीतने पर कोई आपकी प्रशंसा नहीं करेगा, लेकिेन यदि आप हार गए तो स्त्रियों से हारने का कलंक आपके माथे पर हमेशा के लिए लग जाएगा। इसलिए सोच-विचार कर आक्रमण करना। राघोबा दादा अहिल्या बाई की इस रणनीति के समक्ष हतबल हो गए। उन्होंने अहिल्या बाई को पत्र लिखा, 'आप हमें गलत समझ रही हैं। हम आपके राज्य को हड़पने के लिए नहीं, आपके पुत्र के निधन पर शोक व्यक्त करने आए है।' इस प्रकार अपने राज्य पर आए संकट को अहिल्या माता ने चतुराई से दूर कर दिया।

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तुकोजीराव को सूबेदारी का दायित्व

इसके बाद अहिल्या बाई ने पेशवा से चर्चा कर दीवान को बदल दिया। उन्होंने मल्हारराव के एक मानसपुत्र सेनानायक तुकोजीराव होलकर को औपचारिक रूप से सूबेदारी का दायित्व दिलाकर उनको सैन्य अभियानों का दायित्व सौंप दिया। पेशवा की सहमति शासन की बागडोर अहिल्या बाई ने अपने हाथ में ही रखी। वैसे तो मल्हारराव के सतत सैन्य अभियानों में व्यस्त रहने के कारण अहिल्या बाई उनके समय से ही राजकाज की जिम्मेदारी उठा रही थीं, मगर 1767 के बाद होलकर रियासत की बागडोर औपचारिक रूप से उनके हाथ में आ गई। तब से उनके देहांत तक अर्थात लगभग तीन दशक तक उन्होंने मालवा तथा निमाड़ में फैले अपने होलकर राज्य पर एकछत्र शासन किया।

उनके सत्ता संभालते ही उन्हें कमजोर समझकर राज्य के सीमावर्ती इलाके में चंद्रावतों ने विद्रोह कर दिया मगर देवी अहिल्या ने सेना को भेजकर विद्रोह को कुचल दिया। उसके बाद अहिल्या बाई के पूरे जीवनकाल में उनके विरुद्ध किसी ने सर उठाने का साहस नहीं किया और उनके राज्य में संपूर्ण शांति बनी रही।

अहिल्या बाई लोक कल्याणकारी कार्य

अहिल्या बाई निर्बाध रूप से लोक कल्याणकारी कार्य करने में जुटी रहीं। उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर स्थित प्राचीन ऐतिहासिक नगर महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया। देशभर के बुनकरों को बुलाकर महेश्वर में बसाया तथा महेश्वर को साड़ियों के लिए एक नई पहचान दिलाई। उन्होंने देश भर के शिल्पकारों को एकत्र कर उन्हें देशभर में तीर्थ स्थानों पर मंदिरों के जीर्णोद्धार का काम सौंपा। नदियों पर घाट बनवाए, स्थान-स्थान पर कुंए व बावड़ियां बनवाईं, धर्मशालाएं बनवाईं। वे कहती थीं, मेरे जीवनकाल में होलकरों की छेनी (निर्माण कार्य) कभी रुकनी नहीं चाहिए। यही कारण है कि आज हमें देवी अहिल्या के द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य बद्रीनाथ, केदारनाथ से लेकर रामेश्वरम तक तथा सोमनाथ से लेकर गंगासागर तक प्रत्येक तीर्थ क्षेत्र में दिखाई देते हैं। उनके निर्माण कार्यों की विशेषता यह है कि इसका खर्च अहिल्या बाई ने सरकारी कोष से नहीं, अपनी व्यक्तिगत संपत्ति से किया था।

न्यायप्रियता का पूरे देश में डंका बजा

उनकी न्यायप्रियता की ख्याति सारे देश में फैली हुई थी। देश के विभिन्न राज्यों के राजा अपने आपसी विवाद सुलझाने के लिए उनके पास आते थे तथा उनके निर्णय को शिरोधार्य करते थे। एक बार तो होलकर राज्य तथा शिंदे (वर्तमान में सिंधिया) के राज्य के बीच चल रहे एक सीमा विवाद में शिंदे राज्य द्वारा देवी अहिल्या को ही पंच बनाने की सिफारिश यह जानते हुए भी की गई कि विवाद देवी के राज्य से ही है। विवाद में देवी ने भी यह न्याय दिया था कि उस क्षेत्र से दोनों राज्य अपना अधिकार छोड़कर उस भूमि को पशुओं के लिए चरणोई के रूप में छोड़ दें।

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उनके प्रजाजन कभी भी अपनी फरियाद लेकर न्याय के लिए सीधे उनके पास आ सकते थे। वनवासियों, किसानों, व्यापारियों तथा सरकारी कर्मचारियों की समस्याओं पर उनकी विशेष नजर रहती थी। उनके राज्य में पड़ोसी राज्यों की तुलना में कर की दर कम थी मगर कर की वसूली ज्यादा आती थी। उनके अनुसार, 'कर की दर इतनी अधिक नहीं होनी चाहिए कि वह प्रजाजनों के लिए कष्टदायी हो जाए'। वे कहती थीं, 'ईश्वर ने मुझ पर जो उत्तरदायित्व रखा है, उसे मुझे निभाना है, मेरा काम प्रजा को सुखी रखना है, मैं अपने प्रत्येक काम के लिए जिम्मेदार हूं। सामर्थ्य व सत्ता के बल पर मैं यहां जो कुछ कर रही हूं, उसका ईश्वर के यहां मुझे जवाब देना होगा, मेरा यहां कुछ भी नहीं है, जिसका है उसी के पास भेजती हूं। जो कुछ लेती हूं, वह मेरे ऊपर ऋण (कर्ज) है, न जाने कैसे चुका पाऊंगी।'

उन्होंने अपना राज्य भगवान शिव को समर्पित कर दिया था। वे शिव की प्रतिनिधि के रूप में शासन का संचालन करती थीं। राजकाज के समय वे हमेशा शिवलिंग को अपने हाथ में धारण करती थीं। उनके राज्य के सारे शासकीय आदेश भगवान शिव शंकर आदेश के नाम से ही जारी होते थे। उनके आदर्श शासन तथा जनहितकारी नीतियों के कारण प्रजाजन उनके जीवनकाल में ही उन्हें देवी के रूप में मानने लगे थे। 13 अगस्त 1795 को महेश्वर में 70 वर्ष की आयु में उनका निर्वाण हुआ।

मध्यप्रदेश सरकार द्वारा लोकमाता देवी अहिल्या बाई की 300वीं जन्म जयंती के उपलक्ष्य में विजयादशमी के अवसर पर 12 अक्टूबर को अहिल्या बाई के नाम से महेश्वर समेत अन्य स्थानों के शस्त्रागारों में शस्त्र पूजन कार्यक्रम का आयोजन