समीरात्मज मिश्र
बिहार में एसआईआर और चुनावी प्रक्रिया में कथित धांधली को लेकर विपक्ष चुनाव आयोग, खासकर मुख्य चुनाव आयुक्त पर हमलावर है। आखिर, चुनाव आयोग जैसी संस्था विवादों में कैसे फंस गई और क्या है चुनाव आयुक्तों को हटाए जाने का तरीका?
बिहार में मतदाता सूची की गहन जांच यानी एसआईआर और वोट चोरी जैसे आरोपों के बीच विपक्ष अब मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है। विपक्षी इंडिया गठबंधन की तरफ से ये बातें तब आईं जब रविवार को मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने दो अन्य चुनाव आयुक्तों के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और विपक्षी दलों पर एक बार फिर चुनाव आयोग के खिलाफ भ्रम फैलाने का आरोप लगाया।
रविवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार पर सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के प्रवक्ता की तरह बात करने और व्यवहार करने के सीधे आरोप लगे। हालांकि ये आरोप विपक्ष पहले भी लगा रहा था लेकिन रविवार को हुई ज्ञानेश कुमार की पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस ने विपक्ष का गुस्सा काफी भड़का दिया।
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के अगले ही दिन विपक्षी दलों की बैठक हुई जिसमें इस मुद्दे पर चर्चा की गई। बैठक के बाद इंडिया गठबंधन के कई सांसदों ने इस बात के संकेत दिए कि मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ विपक्ष संसद में महाभियोग का प्रस्ताव भी ला सकता है।
शिवसेना (यूबीटी) के राज्य सभा सदस्य संजय राउत ने मीडिया को बताया कि बैठक में न सिर्फ इस मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा की गई बल्कि सीईसी ज्ञानेश कुमार के खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी भी शुरू कर दी गई है।
चुनाव आयोग पर आरोप
दरअसल, चुनाव आयोग पर तमाम आरोप पहले से लग रहे हैं, विपक्षी दलों ने सैकड़ों की संख्या में लिखित शिकायतें की हैं लेकिन चुनाव आयोग ने अब तक किसी का संज्ञान नहीं लिया और हर बार विपक्ष के आरोपों को सिरे से खारिज करता रहा। एसआईआर का मामला तो अब सुप्रीम कोर्ट में है जहां शुक्रवार को एक बार फिर सुनवाई होनी है। लेकिन इस सुनवाई से पहले ही चुनाव आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के वोट चोरी' के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया।
विपक्षी सांसदों के साथ हुई बैठक के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव केसी वेणुगोपाल ने मीडिया को बताया कि मुख्य चुनाव आयुक्त एक संवैधानिक संस्था के प्रमुख की तरह नहीं बल्कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे हैं। उनका कहना था, "प्रेस कॉन्फ्रेंस में सीईसी ज्ञानेश कुमार ने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और अन्य दलों के उठाए गए एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया। बल्कि सवाल उठाने के लिए विपक्ष का ही मजाक उड़ा रहे थे। यह सीईसी का तरीका नहीं है। यदि उन्हें राजनीति करनी हो तो किसी पार्टी में शामिल हो जाएं।”
केसी वेणुगोपाल का भी कहना था कि सीईसी के खिलाफ महाभियोग की तैयारियां चल रही हैं और विपक्ष के पास इसे पारित कराने के लिए पर्याप्त संख्या बल है।
वोट चोरी' बना मुद्दा
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने गत सात अगस्त को मतदाता सूची में खामियों को लेकर एक लंबा प्रेजेंटेशन दिया था। इसमें उन्होंने कर्नाटक की बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा के बारे में मतदाता सूची में धांधली और फिर इस धांधली के जरिए बीजेपी उम्मीदवार की जीत का दावा किया था। उन्होंने बताया था कि बेंगलुरु सेंट्रल संसदीय सीट के तहत आने वाली महादेवपुरा विधानसभा सीट में एक लाख से ज्यादा फर्जी मतदाता जोड़े गए। राहुल गांधी ने यह भी दावा किया कि लोकसभा चुनावों के साथ-साथ महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भी मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर धांधली की गई है।
उस वक्त चुनाव आयोग ने राहुल गांधी के आरोपों को भ्रम फैलाने वाला बताते हुए कहा था कि यदि राहुल गांधी अपने दावे को सही मानते हैं तो उन्हें यह शिकायत एफिडेविट के साथ देनी चाहिए। रविवार को अचानक हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी सीईसी ज्ञानेश कुमार ने यही बातें दोहराईं। उनका कहना था, "इन आरोपों की जांच बिना हलफनामा दाखिल किए नहीं हो सकती है। या तो राहुल गांधी हलफनामा दें या फिर देश से माफी मांगें। उन्हें 7 दिनों के अंदर हलफनामा देना होगा या पूरे देश से माफी मांगनी होगी। अन्यथा यह समझा जाएगा कि ये आरोप बेबुनियाद हैं।”
राहुल गांधी अभी भी अपने आरोपों पर कायम हैं और संसद में भी विपक्ष इन आरोपों और बिहार में हो रहे एसआईआर पर चर्चा की लगातार मांग कर रहा है लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त की इस भाषा और शैली पर विपक्ष कई तरह के सवाल उठा रहा है। यही नहीं, राहुल गांधी ने आरोप सात अगस्त को लगाए लेकिन चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस दस दिन बात हुई और वो भी अचानक। प्रेस कॉन्फ्रेंस का दिन भी रविवार को रखा गया।
चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस पर सवाल
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह लंबे समय से चुनाव आयोग को कवर कर रहे हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, "मैं 1987 से चुनाव आयोग कवर कर रहा हूं। मुझे याद नहीं है कि चुनाव आयोग ने रविवार को कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई होगी, वो भी अचानक। वो भी बिना किसी अर्जेंट मैटर के। दरअसल, मुख्य चुनाव आयुक्त की भाषा और तरीके के अलावा प्रेस कॉन्फ्रेंस की टाइमिंग की वजह से भी उन पर सत्तारूढ़ पार्टी के साथ सांठ-गांठ के आरोप लग रहे हैं। उसी दिन बिहार में इंडिया गठबंधन की वोटर अधिकार यात्रा शुरू हो रही है और चुनाव आयोग उसी दिन उन आरोपों का जवाब देने के लिए छुट्टी के दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला रहा है, जो आरोप दस दिन पहले लगाए जा चुके हैं।”
यही नहीं, मुख्य चुनाव आयुक्त की तरफ से बार-बार हलफनामा देकर शिकायत करने की जो बातें की जा रही हैं, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं। सवाल न सिर्फ राजनीतिक बल्कि कानूनी पहलू से भी उठ रहे हैं। समाजवादी पार्टी ने तो अठारह हजार शपथ पत्रों का हवाला देकर चुनाव आयोग से पूछा कि इनका जवाब कहां है।
हलफनामा क्यों
सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत पाराशर कहते हैं कि इस मामले में हलफनामे का तो कोई औचित्य ही नहीं है। उनके मुताबिक, यह सब तो सवालों से पीछा छुड़ाने और जवाब देने से बचने का तरीका है, और कुछ नहीं।
डीडब्ल्यू से बातचीत में दुष्यंत पाराशर कहते हैं, "हलफनामा या एफिडेविट तब दिया जाता है जब मुकदमे में या किसी बात में शपथ देकर कहना होता है। यहां तो वो उन आंकड़ों को दे रहे हैं जो आंकड़े खुद चुनाव आयोग के हैं। हलफनामा तो साक्ष्य को प्रमाणित करने के लिए एक सपोर्टिंग दस्तावेज होता है कि जो मैं कह रहा हूं वो सत्य है और ये सारी बातें मैं रिकॉर्ड पर कह रहा हूं और नोटरी के सामने उसे नोटिफाई किया जाता है। इस मामले में हलफनामे की कोई जरूरत नहीं दिखती। हलफनामा एक तकनीकी पक्ष है। उससे चीजें बदलती नहीं हैं। डेटा अपने आप में साक्ष्य है। चुनाव आयोग की साइट से लिए गए आंकड़े हैं। बहुत ही हास्यास्पद सा है चुनाव आयोग का इस मामले में हलफनामा मांगना।”
दुष्यंत पाराशर का कहना है कि देश की इतनी बड़ी और अहम संवैधानिक संस्था पर इतने गंभीर आरोप लगे हैं, ऐसे में आयोग को अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए सारे आरोपों का जवाब देना चाहिए, न कि हलफनामा मांगने जैसी बातें। उनके मुताबिक, राहुल गांधी जो बात कह रहे हैं कि देश में इतने बड़े पैमाने पर लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर किया जा रहा है, तो ये देश का मामला है। इसमें एफिडेविट की कई जरूरत नहीं है।
अरविंद कुमार सिंह भी कहते हैं कि हलफनामा चुनाव आयोग में तब लगता है जब पार्टियों के सिंबल इत्यादि का मामला होता है। हर जगह हलफनामा नहीं लगता।
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति
चुनाव आयोग पर देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी होती है लेकिन पिछले कुछ समय से उसकी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। यहां तक कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए जो नया कानून बना है, उस कानून पर भी सवाल उठ रहे हैं और वो मामला अभी भी कोर्ट में लंबित है। उस कानून के जरिए ज्ञानेश कुमार पहले मुख्य चुनाव आयुक्त बने हैं और लगातार विवादों में हैं। हालांकि उनके पूर्ववर्ती सीईसी राजीव कुमार भी विवादों में बने रहे।
नए कानून के मुताबिक, मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति तीन सदस्यों की एक चयन समिति की सिफारिश पर करते हैं। इस समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और केंद्रीय मंत्रिपरिषद के एक सदस्य होते हैं। चयन समिति के पास जिन उम्मीदवारों के नाम आते हैं उनकी खोज कैबिनेट सचिव के नेतृत्व में एक सर्च कमेटी करती है।
हटाने की प्रक्रिया बेहद जटिल
लेकिन चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत इन्हें संसद में महाभियोग के जरिए उसी तरह हटाया जा सकता है, जिस तरह सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को। चुनाव आयोग को राजनीतिक दबाव से मुक्त रखने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों को हटाने की प्रक्रिया को जानबूझकर बहुत कठिन बनाया गया है।
मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए, संसद के दोनों सदनों के सदस्यों को स्पष्ट रूप से उन पर संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने में असफल' रहने संबंधी एक प्रस्ताव लाना होता है। प्रस्ताव स्वीकार होने के बाद, आरोपों की वैधता की जांच की जाती है जिसके लिए एक समिति का गठन किया जाता है।
सीईसी को पद से हटाने के लिए इस प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना जरूरी है। दोनों सदनों में यह प्रस्ताव पारित होने के बाद राष्ट्रपति के आदेश से उन्हें पदमुक्त किया जाता है। चुनाव आयुक्तों को मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश के बाद ही हटाया जा सकता है।
आजादी के बाद से अब तक भारत में 26 मुख्य चुनाव आयुक्त हो चुके हैं लेकिन अब तक किसी के भी खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव नहीं लाया गया है। हालांकि राजनीतिक दलों के साथ चुनाव आयुक्तों के विवाद पहले भी होते रहे हैं लेकिन आयोग की संप्रभुता और विश्वसनीयता पर इस तरह से उंगलियां नहीं उठीं।
पहले भी होते रहे हैं विवाद
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एमएस गिल को रिटायरमेंट के बाद केंद्र में मंत्री बनाया गया था और नवीन चावला के चुनाव आयुक्त बनने पर काफी हंगामा हुआ था क्योंकि वो कांग्रेस पार्टी के बेहद करीबी माने जाते थे। यहां तक कि नवीन चावला के चुनाव आयुक्त बनने के बावजूद तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने उन्हें पद से हटाने की ये कहते हुए सिफारिश की थी वो निष्पक्ष नहीं हैं। लेकिन नवीन चावला को न तो हटाया गया और न ही उन्होंने इस्तीफा दिया। बाद में नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त भी बने।
अरविंद कुमार सिंह बताते हैं कि विवाद तो पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन के समय से ही होते रहे हैं लेकिन स्थिति यहां तक कभी नहीं पहुंची कि किसी के खिलाफ महाभियोग तक बात आ जाए। वो कहते हैं, "सुकुमार सेन पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे। उन्होंने तो नेहरू जी की बात मानने से इनकार कर दिया था। नेहरू जी चाहते थे कि पहली लोकसभा के चुनाव जल्दी हों। लेकिन सुकुमार सेन ने मना कर दिया कि ये संभव नहीं है। तैयारी के लिए एक साल का समय चाहिए। उस चुनाव के बाद विधानसभाओं के चुनाव हुए और फिर राज्यसभा के चुनाव। इस बात का खुलासा चुनाव के बाद लालबहादुर शास्त्री ने किया था। नेहरू उनकी बात मान गए।