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Written By DW
Last Updated : सोमवार, 30 अक्टूबर 2023 (09:24 IST)

क्या टाले जा सकते हैं बदलते पर्यावरण के खतरे?

क्या टाले जा सकते हैं बदलते पर्यावरण के खतरे? - Can the dangers of changing environment be avoided?
-स्टुअर्ट ब्राउन
 
environment: धरती पर जीवन एक ऐसे बिंदु की ओर बढ़ रहा है जहां विनाशकारी घटनाओं को रोक पाना संभव नहीं होगा। आस पास की हवा और पानी से लेकर अंतरिक्ष तक स्थितियां नियंत्रण से बाहर जाने की ओर बढ़ रही हैं। समाधानों पर तुरंत अमल जरूरी है।
 
संयुक्त राष्ट्र यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट का कहना है कि जलवायु, खाद्य और जल प्रणालियों में सुधार की गुंजाइश ही ना रहे, इससे पहले समाधानों पर अमल करना जरूरी है। यूनिवर्सिटी के पर्यावरणऔर मानव सुरक्षा संस्थान (यूएनयू-इएचएस) की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक अगर वैश्विक जैवप्रणालियां हद से ज्यादा बदतर होती चली गईं तो 'धरती और लोग अपरिवर्तनीय, विनाशकारी प्रभावों' की चपेट में आकर रहेंगे।
 
इंटरकनेक्टेड डिजास्टर रिस्क्स रिपोर्ट 2023 में ऐसे 6 टिपिंग प्वाइंट दर्ज किए गए हैं जिनके आगे हालात में सुधार की गुंजाइश नहीं रह जाती। एक प्वाइंट भूजल के निकास यानी बह जाने का है, जिसकी वजह से तपती दुनिया में खाद्य उत्पादन और मनुष्य अस्तित्व को नुकसान पहुंचेगा। दूसरा बिंदु मौलिक प्रजातियों के खत्म होते जाने का है जिससे समूचा ईकोसिस्टम ही ढह सकता है।
 
यूएनयू-इएचएस में वरिष्ठ विशेषज्ञ और रिपोर्ट के प्रमुख लेखक जैक ओकोनोर ने आगाह किया कि, 'जैसे जैसे हम इन हदों (टिपिंग प्वाइंट्स) की ओर बढ़ेंगे तो दुष्प्रभावों को अनुभव करने लगेंगे। हदें पार होते ही, सामान्य स्थिति में लौट पाना मुश्किल हो जाएगा।'
 
उदाहरण के लिए, जीवाश्म ईंधनों को जलाने से उत्पन्न धरती को तपाने वाले उत्सर्जनों में तीव्र कटौती, असहनीय तपिश से निपटने में बहुत काम आएगी। इसी तपिश की वजह से ग्लेशियर पिघलते जा रहे हैं और भूजल घट रहा है। रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि जलवायु, भोजन और पानी से जुड़ी व्यवस्थाओं पर आसन्न खतरे को कम करने के लिए बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है।
 
तेजी से विलुप्त होते जीव-जंतु
 
जमीन के उपयोग में बदलाव, अति दोहन, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और हमलावर विदेशी प्रजातियों का आगमन- इन सब की वजह से पेड़-पौधे और जानवर तेज गति से विलुप्त होने लगे हैं। यूएनयू-इएचएस की रिपोर्ट के मुताबिक ये गति धरती की अपनी स्वाभाविक गति से कम से कम 10 से 100 गुना ज्यादा है।
 
रिपोर्टी की प्रमुख लेखिका और यूएनयू-इएचएस में उपनिदेशक जीटा सेबेस्वरी का कहना है, 'हम लोग जीवजंतुओं के एक साथ विलुप्त होने के खतरे को बढ़ा रहे हैं, मतलब ये है कि मजबूती से एकदूसरे से जुड़ी प्रजातियां गायब हो रही हैं।' इसकी एक मिसाल गोफर प्रजाति के कछुए की है, जिसके खोदे बिल को 350 से ज्यादा प्रजातियां, रहने, खाने, खिलाने, परभक्षियों और अत्यधिक तापमान से बचने के लिए इस्तेमाल करती हैं।
 
सेबेस्वरी ने डीडब्ल्यू को बताया कि सदी के मध्य तक, 10 फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी और 2100 तक 27 फीसदी। संभावित समाधानों के बारे में वो कहती हैं, 'हमें संरक्षण के बारे में पुनर्विचार करना होगा।' लक्ष्य खतरे में पड़ी अलग अलग प्रजातियों को बचाने का नहीं, 'संबंध और पारस्पारिकता को बचाना' है। यानी विलुप्ति की जड़ में जमीन की सफाई और बसाहट के खात्मे को रोकना होगा।
 
भूजल में कमी
 
ग्लेशियरों के अलावा धरती पर पानी का सबसे बड़ा भंडार, भूजल है। अति दोहन और वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से पैदा हुए जल संकट के दौर में ये भंडार बहुत जरूरी है। जमीन के भीतर चट्टानो के बीच मौजूद पानी विशेषज्ञों के मुताबिक दुनिया में 2 अरब से ज्यादा लोगों के पीने के काम आता है। इन्हें एक्वीफर कहा जाता है।
 
दुनिया के आधा से ज्यादा एक्वीफर तेजी से कम हो रहे हैं। ये गति उनके प्राकृतिक रूप से भरने की गति से ज्यादा तीव्र है क्योंकि हजारों सालों में भूजल जमा होता है। करीब 70 फीसदी भूजल, खेती में बहा दिया जाता है।
 
जीटा सेबेस्वरी कहती हैं कि उदाहरण के लिए, उत्तरपश्चिम भारत के सूखाग्रस्त पंजाब क्षेत्र में एक समय चावल की भरपूर पैदावार हुआ करती थी, वह अब भूजल पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गया है। अब एक्वीफर सूखने लगे हैं और दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश में भोजन का एक प्रमुख स्रोत भी कम हो रहा है।
 
सेबेस्वरी के मुताबिक समाधान, चावल की खेती में ज्यादा होलिस्टिक यानी समग्र तौर-तरीके पर अमल करने की है। इसमें आसपास की आर्द्र भूमि (वेटलैंड्स) का ध्यान रखना भी शामिल है जिनकी वजह से जलीय चट्टानों तक पानी पहुंचता है। वो कहती हैं कि आखिरकार किसानों को जमीन के अंदर जितना पानी जाता है, उससे कम ही निकालना चाहिए।
 
पिघलते ग्लेशियर
 
अध्ययन के मुताबिक, ग्लेशियर 2 दशक पहले की अपेक्षा दोगुना तेजी से सिकुड़ रहे हैं। ग्लेशियरों का पिघला हुआ पानी और बर्फ- पीने, सिंचाई, जलबिजली और ईकोसिस्टमों के लिए पानी का एक प्रमुख स्रोत है। अब चूंकि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, तो इंसानों को पानी के खत्म होने की हद तक पहुंच जाने का खतरा है जिसके बाद ग्लेशियर सूखने लगेंगे और पानी की सप्लाई ठप्प हो जाएगी।
 
मध्य यूरोप, पश्चिमी कनाडा और दक्षिण अमेरिका के अपेक्षाकृत छोटे ग्लेशियरों में पीक वॉटर की स्थिति आ चुकी है या अगले 10 साल के भीतर आ जाएगी। एंडीज की पहाड़ियों में कई ग्लेशियर भी इसकी चपेट में आ चुके हैं और वहां के समुदायों को पीने और सिंचाई के लिए पानी कम पड़ रहा है। हिमालय और उससे लगी काराकोरम और हिंदूकुश जैसी पर्वत ऋंखलाओं के अनुमानित 90,000 ग्लेशियरों के 2050 तक पीक वॉटर पर पहुंचने का खतरा है, जिसका असर 87 करोड़ लोगों पर पड़ेगा।
 
उस लिहाज से ढलना भले ही संभव है लेकिन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती से तापमान में वृद्धि को सीमित करने का तत्काल उपाय ही इकलौता वास्तविक समाधान है।
 
असहनीय गर्मी
 
अत्यधिक गर्मी, ग्लेशियर पिघलाव लाने वाले जलवायु परिवर्तन से सीधे तौर पर जुड़ी है। उसकी वजह से पिछले 2 दशकों में औसतन पांच लाख ज्यादा मौतें हर साल हुई हैं। रिपोर्ट के मुताबिक बहुत ज्यादा नमी से पसीने की भाप नहीं बनती जिससे गर्मी ज्यादा असहनीय बन जाती है, और ठंडक लाने का शरीर का स्वाभाविक तरीका भी मंद पड़ जाता है।
 
तापमान और नमी के आपस में जुड़ने से बना 'वेट-बल्ब' तापमान जब 6 घंटों से भी ज्यादा अवधि के लिए 35 डिग्री सेंटीग्रेड (95 डिग्री फारेनहाइट) के पार चला जाता है, तो शरीर की खुद को ठंडा करने की असमर्थता की वजह से अंग काम करना बंद कर सकते हैं और मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो सकता है।
 
रिपोर्ट में एक रिसर्च के हवाले से बताया गया है कि 2070 तक दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व के कुछ हिस्से, इस हद को नियमित रूप से लांघते रहेंगे। दुनिया की करीब 30 फीसदी आबादी, साल में कम से कम 20 दिन घातक जलवायु स्थितियों की चपेट में पहले ही आ चुकी है। 2100 तक प्रभावित आबादी की ये संख्या 70 फीसदी से ज्यादा हो सकती है।
 
इस समस्या का अंतिम समाधान तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती ही है, लेकिन दुनिया के कई हिस्सों में इस काम में पहले ही काफी देर हो चुकी है जहां यह तेजी से हद छूने लगी है। एक समाधान लोगों को असहनीय रूप से गर्म इलाकों से हटाने का है, लेकिन पुनर्वास हर किसी को मुहैया विकल्प नहीं है। यहां जरूरत है कि अनुकूलन का काम जल्द से जल्द हो जिसमें छाया और ठंडे आवास मुहैया कराना शामिल है।
 
अंतरिक्ष का मलबा
 
रिपोर्ट की लेखक जीटा सेबेस्वरी का कहना है कि अंतरिक्ष में उपग्रहों का बुनियादी ढांचा, निगरानी और आपदा जोखिम प्रबंधन के लिए बहुत ही जरूरी है। वह कहती हैं, 'हमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की निगरानी के लिए ही नहीं बल्कि चक्रवात जैसी विपदाओं की निगरानी के लिए भी स्पेस इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है।'
 
हालांकि अंतरिक्ष में इतना ज्यादा कचरा जमा होता जा रहा है कि वो एक दूसरे से टकराता रहता है जिससे निगरानी और आकलन के काम में बाधा आती है। करीब 35,000 चीजों की आज अंतरिक्ष में शिनाख्त की गई है। उनमें से सिर्फ करीब 25 फीसदी ही काम करते उपग्रह हैं। बाकी बेकार सामान है, या टूटे हुए उपग्रह हैं, ये तमाम कचरा वहां 1960 के दशक से जमा है।
 
2030 तक एक लाख से ज्याद नये अंतरिक्षयान छोड़े जाएंगे तो ऐसे में जोखिम भी और बढ़ेगा। वो कहती हैं, 'समस्या यह है कि उपग्रहों की कोई उम्र के लिहाज से तो योजना बनती नहीं।' उनका कहना है कि ये गलत धारणा है कि अंतरिक्ष के गहन विस्तार में इस कचरे का कोई असर नहीं पड़ेगा। ये धारणा बदलनी होगी।
 
असुरक्षित भविष्य
 
1970 के दशक से मौसम संबंधी आपदा नुकसान सात गुना बढ़ चुका है। 2022 में, ऐसी घटनाओं से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 313 अरब डॉलर (295 अरब यूरो) का नुकसान हुआ था। यूएनयू-इएचएस की रिपोर्ट में 2040 तक जलवायु विपदाओं की संख्या दोगुना होने की भविष्यवाणी की गई है। ऐसा आंशिक तौर पर इसलिए होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन ने जंगल की आग, बाढ़ और तूफानों की गुंजाइश बढ़ा दी है।
 
बेतहाशा मौसमी विपदा के बढ़ते खतरे के नतीज में, 2015 से बीमा के प्रीमियम 57 फीसदी तक बढ़ गए हैं। और कुछ कंपनियां अपनी पॉलिसियां रद्द कर रही हैं या बड़े जोखिम वाले इलाकों से हटने लगी हैं। रिपोर्ट ने पाया है कि 2030 तक ऑस्ट्रेलिया में पांच लाख से ज्यादा घर ऐसे होंगे जो किसी बीमा के दायरे नहीं आ पाएंगे। अपेक्षाकृत सुरक्षित इलाकों में जाना जिन लोगों के लिए संभव नहीं होगा उन्हें इस जोखिम के साथ ही जीना होगा।
 
जीटा सेबेस्वरी कहती हैं कि फौरी आर्थिक चिंताएं, समाधानों की राह में रोड़ा हैं। मिसाल के लिए, आग भड़कने से संपत्तियों को नुकसान पहुंचेगा, इस डर से कंपनियां आग लगने की 'निर्धारित' घटनाओं का बीमा नहीं करेंगी। जीटा के मुताबिक सरकारों और निजी सेक्टर को लोगों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए साथ मिलकर काम करना चाहिए, मुनाफे के लिहाज से नहीं बल्कि 'भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों' को ध्यान में रखते हुए।
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