Kaajoo katalee kee utpatti ka itihaas: काजू कतली: दिवाली हो या शादी का सीजन, काजू कतली की चमचमाती चांदी की परत देखते ही मुंह में पानी भर आता है। यह पतली, हीरेधार वाली मिठाई, जो काजू, चीनी और घी से बनी होती है, भारत की सबसे पसंदीदा मिठाइयों में शुमार है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे मुगल बादशाह जहांगीर की कैदखाने की कहानी से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज की मराठा रसोइयों तक फैली हुई हैं?
आइए, इस मिठाई के रोमांचक इतिहास में गोता लगाएं, जहां इतिहास और स्वाद का अनोखा संगम है।
पुर्तगालियों का तोहफा, काजू: काजू कतली की कहानी पहले काजू की कहानी से शुरू होती है। काजू मूल रूप से ब्राजील का निवासी था, जो 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा गोवा लाया गया। धीरे-धीरे यह भारत के पश्चिमी तट पर फैल गया।
तब तक बादाम जैसी मिठाइयां लोकप्रिय थीं, लेकिन काजू ने नया मोड़ दिया। यह नया फल इतना अनोखा था कि रसोइयों ने इसे शाही मेन्यू में शामिल कर लिया। लेकिन असली सवाल यह है कि काजू कतली को किसने सबसे पहले बनाया? मुगलों ने खाई या शिवाजी महाराज के रसोइयों ने बनाई?
मुगल कथा:-
आजादी की मिठास और जहांगीर का डर: सबसे लोकप्रिय कथा मुगल दरबार से जुड़ी है, जो 1619 ईस्वी की है। उस समय मुगल बादशाह जहांगीर ने सिखों को खतरा मानते हुए छठे सिख गुरु, गुरु हरगोविंद को ग्वालियर किले में कैद कर लिया था। साथ ही 52 राजाओं को भी बंदी बना लिया।
गुरु हरगोविंद ने कैद में भी अपनी बुद्धिमत्ता दिखाई। जहांगीर ने कहा, "गुरु जी, आप आजाद हो जाओगे, लेकिन जो आपकी चादर पकड़ ले, वह भी।" गुरु ने चालाकी से 52 लंबी डोर वाली चादर सिलवाई, और हर राजा ने एक डोर पकड़ी। दिवाली के दिन सभी आजाद हो गए! यह दिन सिख इतिहास में 'बंदी छोड़ दिवस' के नाम से जाना जाता है।
उस उत्सव में जहांगीर के शाही रसोइयों ने जश्न मनाने के लिए नई मिठाई बनाई- काजू, चीनी और घी का मिश्रण, जो पतली कटली में ढला। कहा जाता है कि यह मिठाई आजादी का प्रतीक बनी। जहांगीर ने इसे चखा, और यह मुगल दरबार की पसंदीदा हो गई।
लेकिन क्या यह सच्ची घटना है? इतिहासकारों के पास कोई प्राथमिक दस्तावेज नहीं, सिर्फ मौखिक परंपरा। फिर भी, यह कथा काजू कतली को 'आजादी की बर्फी' बनाती है!
मराठा कथा:-
शिवाजी के रसोइये भीमराव का प्रयोग: दूसरी कथा मराठा साम्राज्य से आती है, जो 16वीं शताब्दी की है। मराठा रसोइया भीमराव, जो शायद शिवाजी महाराज के पूर्ववर्ती मराठा राजघरानों में काम करते थे, पारसी मिठाई 'हलवा-ए-फारसी' से प्रेरित हुए। यह मिठाई बादाम और चीनी से बनती थी।
भीमराव ने सोचा, क्यों न काजू आजमाएं? पुर्तगालियों के नए तोहफे काजू को पीसकर, घी में भूनकर, उन्होंने मुलायम, रेशमी मिठाई तैयार की। मराठा राजपरिवार ने सराहा, और 'काजू कतली' नाम पड़ा- काजू से बनी पतली कटिंग।
शिवाजी महाराज के समय तक यह मराठा सेनाओं की ऊर्जा का स्रोत बन चुकी थी, क्योंकि काजू पोषक तत्वों से भरपूर है। लेकिन यहां भी कोई लिखित प्रमाण नहीं- सिर्फ लोककथाएं।
रहस्य बरकरार: कौन जीता, मुगल या मराठा?
दोनों कथाओं में एक समानता है- काजू पुर्तगालियों का योगदान, और शाही रसोई का जादू। इतिहासकार मानते हैं कि काजू कतली 16वीं-17वीं शताब्दी में विकसित हुई, जब काजू भारत पहुंचा।
आज यह वैश्विक हो गई है, लेकिन जड़ें वही राजसी हैं। तो अगली बार काजू कतली खाएं, तो सोचिए क्या आपको लगता है, यह मुगलों की है या मराठों की?- वैसे, स्वाद तो दोनों का एक जैसा ही मीठा है!