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Last Updated : गुरुवार, 15 मार्च 2018 (16:06 IST)

गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ हार गए या 'हरवा' दिए गए?

गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ हार गए या 'हरवा' दिए गए? - Yogi Adityanath Narendra Modi Uttar Pradesh bye-election
- प्रदीप कुमार
गोरखपुर उप चुनाव के नतीजे आने से पहले वाराणसी में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और नरेंद्र मोदी के साथ खड़े योगी आदित्यनाथ की बॉडी लैंग्वेज से इस बात के कयास लगाए जाने लगे थे कि उपचुनाव के नतीजे फ़ेवर में नहीं होंगे। अमूमन तेज़-तेज़ और हाथों को झटक-झटक कर चलने वाले योगी आदित्यनाथ समारोह के दौरान हाथों को हाथों से बांधे खड़े नज़र आए। 
 
योगी आदित्यनाथ के निकट सहयोगी के मुताबिक, "ऐसे इनपुट पहले ही मिलने लगे थे और मतदान के दिन जब पोलिंग प्रतिशत कम हुआ तो हार की आशंका मुख्यमंत्री को पहले से हो गई थी। गोरखपुर में चुनाव प्रचार के दौरान भी योगी आदित्यनाथ को इस बात की आशंका सताने लगी थी। गोरखपुर में लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे कुमार हर्ष कहते हैं कि पहले से प्रस्तावित दौरों के अलावा योगी आदित्यनाथ ने इलाक़े में दो अतिरिक्त चुनावी सभाएं भी की थीं। 
 
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तो इन आशंकाओं की वजहें क्या रही होंगी? इसकी सबसे बड़ी और बुनियादी वजह योगी आदित्यनाथ की अपनी छवि और अंदाज़ ही रहा है। 
 
योगी की छवि पर असर
जिस तरह से 2017 में विधानसभा चुनाव के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया, उसको लेकर राजनीतिक गलियारों में यह बात भी कही गई कि उन्होंने इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव बनाया। इसलिए जब 300 से ज्यादा विधायकों वाली सरकार में जब योगी आदित्यनाथ के साथ दो-दो उपमुख्यमंत्री बनाए गए तो ये माना गया कि उन पर अंकुश रखने के लिए ऐसा किया गया है। 
 
बहरहाल, केंद्रीय नेतृत्व ने उनकी छवि और उनके अंदाज़ का इस्तेमाल गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान भी किया। लेकिन जब गोरखपुर उप चुनाव के लिए उम्मीदवार चुनने की बात आई तो केंद्रीय नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ की सलाह पर ध्यान नहीं दिया। भारतीय जनता पार्टी ने गोरक्षा पीठ मठ से बाहर के आदमी को अपना उम्मीदवार बनाया। 
 
 
योगी से जुड़े विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि 'ये धारणा तो रही है कि 'नो इफ़ नो बट, गोरखपुर में ओनली मठ.' अगर हमारे मठ का उम्मीदवार होता तो ये तस्वीर नहीं होती। मठ के नाम मात्र से लोग एकजुट हो जाते हैं।
 
''हम लोगों ने मठ के पुजारी कमलनाथ का नाम आगे बढ़ाया था, जो जातिगत आधार पर भी पिछड़ा होने की वजह से मज़बूत उम्मीदवार साबित होते।
 
योगी का क़द हुआ कम? 
वैसे 1989 से लगातार इस लोकसभा क्षेत्र में मठ के उम्मीदवारों का डंका रहा है। नौवीं, दसवीं और ग्यारहवीं लोकसभा चुनाव में महंत अवैद्यनाथ चुनाव जीतने में कायमाब हुए थे। इसके बाद से 1998 से लगातार पांच बार योगी आदित्यनाथ सांसद रहे। 
 
गोरखपुर में मौजूद स्थानीय पत्रकार कुमार हर्ष कहते हैं कि 'दरअसल, मठ के अंदर का उम्मीदवार होने से संसदीय क्षेत्र में मतदान में जातिगत गणित पीछे छूट जाता है. बीजेपी ने ब्राह्मण उम्मीदवार को खड़ा किया जिसकी आबादी वोटिंग के लिहाज से चौथे पायदान पर थी। 
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हालांकि एक राष्ट्रीय दैनिक के गोरखपुर एडिशन के संपादक का कहना है कि उम्मीदवार के चयन में बीजेपी से ग़लती हुई, अगर साफ़-सुथरे विधायक को टिकट दिया जाता था तो बात दूसरी होती। गोरखपुर शहरी क्षेत्र के विधायक राधामोहन दास अग्रवाल बेहतर उम्मीदवार हो सकते थे। जहां तक मठ के अंदर से उम्मीदवार की बात है, तो योगी आदित्यनाथ ने उस तरह से किसी शख़्स को तैयार ही नहीं किया है। 
 
इसके अलावा एक अहम बात यह भी रही कि भारतीय जनता पार्टी की ओर से चुनाव प्रचार के लिए न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और न ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ही गए। योगी आदित्यनाथ के एक क़रीबी सलाहकार का कहना है कि पार्टी के संगठन ने भी अपना पूरा दम नहीं लगाया। संगठन के कार्यकर्ता लोगों को बूथ तक लाने में कामयाब नहीं रहे। संघ की ओर से भी उस तरह से ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई थी, जैसा कि अमूमन अहम चुनावों में होता रहा है।
 
बहरहाल, जिन उपेंद्रनाथ शुक्ला को भारतीय जनता पार्टी ने टिकट दिया, उनकी कभी योगी आदित्यनाथ से पटी नहीं थी। इसलिए एक थ्योरी ये भी है कि योगी आदित्यनाथ ने इस उम्मीदवार को जिताने के लिए अपना पूरा ज़ोर नहीं लगाया। योगी आदित्यनाथ की हिन्दू वाहिनी भी इस बार सक्रिय नहीं दिखी। 
 
इस थ्योरी के पक्ष में यह भी कहा जा रहा है कि योगी आदित्यनाथ कभी नहीं चाहेंगे कि गोरखपुर की संसदीय राजनीति में उनके विकल्प के तौर पर किसी की ज़मीन बने।
 
हालांकि योगी आदित्यनाथ से जुड़े सूत्र ऐसी किसी बात से इंकार करते हैं, ''मुख्यमंत्री बनने के एक दिन बाद ही उन्होंने अपने संगठन को निष्क्रिय कर दिया था तो ऐसा नहीं है कि हिन्दू वाहिनी के लोग केवल चुनाव के दौरान सक्रिय नहीं रहे। आप ये भी तो देखिए कि योगी आदित्यनाथ ने इलाक़े में कितनी सभाएं कीं। उपेद्र शुक्ला को सबसे ज़्यादा नुकसान इलाक़े से ही आने वाले दो ब्राह्मण नेताओं ने पहुंचाई है।
 
दबाव नहीं डाल पाएंगे योगी
गोरखपुर के स्थानीय पत्रकार कुमार हर्ष के मुताबिक "अपने गढ़ में हारने जितना बड़ा जोख़िम योगी आदित्यनाथ नहीं ले सकते थे, क्योंकि इस हार से केवल उनकी छवि को नुकसान पहुंचता और इसका एहसास उनको निश्चित तौर पर रहा होगा। 
 
कुछ विश्लेषकों की राय में बीजेपी को ब्राह्मण बनाम राजपूत वर्चस्व की लड़ाई की क़ीमत चुकानी पड़ी है। हालांकि समाजवादी पार्टी की ओर से निषाद समुदाय के उम्मीदवार के उतारे जाने से और बहुजन समाज पार्टी का साथ मिल जाने से ये लड़ाई उतनी आसान भी नहीं रह गई थी।
 
गोरखपुर में मतदाताओं के लिहाज से निषाद समुदाय के सबसे ज़्यादा साढ़े तीन लाख मतदाता हैं, जबकि दो-दो लाख मतदाता दलित और यादव समुदाय के हैं, जबकि ब्राह्मण मतदाता की संख्या केवल डेढ़ लाख की है।
 
इसके अलावा ये पहला मौका है जब गोरखपुर की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती योगी आदित्यनाथ के सामने है क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। 
 
गोरखपुर के सांसद के तौर पर योगी आदित्यनाथ की पहचान लोगों के लिए आंदोलन करने वाले नेता की बन गई थी, सत्ता में आने के बाद लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना और सबको संतुष्ट कर पाना उनके लिए आसान नहीं रह गया है। 
 
बहरहाल, अब एक बात बिल्कुल साफ़ हो गई है कि गोरखपुर में चुनावी हार के बाद योगी आदित्यनाथ अब उस तरह से बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव की रणनीति नहीं बना पाएंगे। 
 
हिन्दुत्व की राजनीति के चेहरे के तौर पर उनकी पहचान को धक्का लगा है जिसे उनके नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर उभर पाने की उम्मीदों को झटका लगा है। उप चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की उदासीनता से इस थ्योरी को बल मिलता है। 
 
लेकिन एक राष्ट्रीय दैनिक के गोरखपुर संस्करण के संपादक कहते हैं, "इस हार के बाद भी गोरखपुर और पूर्वोत्तर में योगी आदित्यनाथ का असर कम नहीं हुआ है। भारतीय जनता पार्टी चाहे भी तो योगी आदित्यनाथ के असर को कम नहीं कर सकती है। हालांकि चुनाव में हार के बाद प्रेस कॉन्फेंस में योगी आदित्यनाथ का मुरझाया हुआ चेहरा बता रहा था कि इस हार ने उनके क़द को कम कर दिया है।
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