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भाजपा से पार पाने के लिए एकता का खेल शुरू

भाजपा से पार पाने के लिए एकता का खेल शुरू - BJP, Uttar Pradesh Lok Sabha by-election
2019 के आम चुनाव के लिए बिसात बिछने लगी है। गोटियों के बंद डिब्बे खुलने लगे हैं। हाथी-घोड़ों की चालें सोची जाने लगी हैं। भाजपा के नेतृत्व में राजग के अश्वमेध का रथ देश के हर राज्य में विजय पताका फहरा रहा है, लेकिन उपचुनावों में भाजपा को लगातार मुंह की खानी पड़ रही है। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर उपचुनाव भी वह हार गई। ये परिणाम चौंकाने वाले हैं।


खासतौर से इसलिए कि भाजपा ने इन सीटों से जीते अपने प्रत्याशियों को राज्य का मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया था। वह मानकर चल रही थी कि इन सीटों को तो वह फिर जीत लेगी, लेकिन अति आत्मविश्वास के चलते उसने 2014 की मोदी लहर में पहली बार जीती फूलपुर सीट तो गंवाई ही, 1989 से जीतती आ रही गोरखपुर सीट से भी वह हाथ धो बैठी। उप्र के साथ बिहार के उपचुनाव में भी विपक्षी दल राजद ने सफलता हासिल की है, भले ही भाजपा कहती रहे कि राजद ने अपनी ही सीटें फिर हासिल की हैं।

जो भी हो उप्र, बिहार के इन परिणामों ने विपक्ष में उत्साह का संचार तो किया ही है। गोरखपुर और फूलपुर की जीत समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ का ही नतीजा है। अगर ये गठजोड़ नहीं होता तो फिर भाजपा की ही जीत तय थी। कांग्रेस तो यहां वैसे ही अस्तित्वहीन जैसी है। वह गठजोड़ में शामिल नहीं हुई और अपने प्रत्याशियों की जमानत जब्त करा बैठी। इन परिणामों से विपक्ष की समझ में यह भी आ गया है कि भाजपा से पार पाना है तो सभी विपक्षी दलों को लामबंद होना ही पड़ेगा।

याद कीजिए बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव, जब जनता दल (यू) ने राजद और कांग्रेस के साथ गठजोड़ किया और वह सत्ता में आ गई। हालांकि तब मुलायम सिंह यादव अपनी बात को लेकर ऐनवक्त पर इस महागठबंधन से बाहर हो गए थे। यह भी एक अलग बात है कि बाद में लालू यादव के 'सपूतों' के कारण नीतीश कुमार ने राजद से नाता तोड़ लिया और पुन: भाजपा से नाता जोड़कर राजग में शामिल हो अपनी सरकार कायम रखी। विपक्षी एकता के महत्व को आंक कर और देश के हर कोने में भाजपा की चालों से मुंह की खाती कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी ने एक बार फिर विपक्ष को एकजुट करने का बीड़ा अपने हाथ में लेने की पहल की है।

भले ही उन्होंने पार्टी की कमान पुत्र राहुल को सौंप दी हो, लेकिन वे यह बात भली-भांति जानती हैं कि राहुल का नेतृत्व सभी दलों को स्वीकार्य नहीं होगा। सोनिया द्वारा डिनर डिप्लोमेसी के तहत 20 दलों को रात्रिभोज पर बुलाए जाने पर यह बात साबित भी हुई। इस भोज में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती स्वयं शामिल नहीं हुए और उन्होंने अपने प्रतिनिधि इसमें भेजे। शामिल होने वाले नेताओं में शरद पवार, उमर अब्दुल्ला, शरद यादव हैं।

विपक्षी एकता का एक अभियान नवगठित राज्य तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव भी चला रहे हैं। वे तीसरे मोर्चे के गठन के पक्षधर हैं जिसे ममता बनर्जी और वामदलों का समर्थन हासिल है। यह अब भी सौ टके का सवाल है कि क्या विपक्ष वाकई एक हो सकेगा? क्या विपक्ष में कोई ऐसा नेता है जिसे सभी स्वीकार कर सकें। राहुल गांधी की स्वीकार्यता हमेशा सवालों के घेरे में रही है। ममता बनर्जी बंगाल में बन रही अपनी पकड़ ढीली नहीं छोड़ना चाहेंगी। सोनिया गांधी 2004 के अनुभव को भूली नहीं होंगी, जब उनके विदेशी मूल का होने के कारण बावेला खड़ा हुआ और प्रधानमंत्री की कुर्सी मनमोहन सिंह के हाथ लग गई, जैसा कि पहले एक बार देवेगौड़ा के हाथ लगी थी। तो क्या इस बार भी ऐसा ही होगा? मिलकर चुनाव तो लड़ा जाए और अगर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा तो सबसे बड़े दल के द्वारा चुने गए नेता को सभी अपना नेता मान लेंगे।

सारी परिस्थितियों के मद्देनजर फ़िलहाल तो यही कहा जा सकता है कि बहुत कठिन है डगर पनघट की, लेकिन यह भी सत्य है कि क्रिकेट की तरह राजनीति भी अनिश्चितताओं की डगर पर ही चल रही है। कब कौन कहां फिसल जाए कहा नहीं जा सकता। अभी चार बड़े राज्यों कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव इस वर्ष होने हैं। इनके परिणाम भी नए समीकरणों को जन्म दे सकते हैं।
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