national religious demographics: भारत, अपनी अद्वितीय धार्मिक विविधता के लिए जाना जाता है, जहां विभिन्न धर्मों के लोग सदियों से एक साथ रहते आए हैं। हालांकि, हाल के वर्षों में धार्मिक जनसांख्यिकी में बदलाव और उसके संभावित प्रभावों को लेकर बहस तेज हो गई है। यह सवाल अक्सर उठाया जाता है कि क्या भारत में किसी विशेष धर्म की आबादी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक बन सकता है? आइए, आंकड़ों और तथ्यों की रोशनी में इस संवेदनशील मुद्दे को समझते हैं।
जनगणना के आंकड़े: एक विस्तृत विश्लेषण
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल आबादी 121 करोड़ से अधिक थी। इस आबादी में धार्मिक वितरण कुछ इस प्रकार था:
• हिंदू: 96.63 करोड़ (कुल आबादी का 79.8%)
• मुस्लिम: 17.22 करोड़ (कुल आबादी का 14.2%)
• ईसाई: 2.78 करोड़ (2.3%)
• सिख: 2.08 करोड़ (1.7%)
• बौद्ध और जैन: इनकी आबादी कुल 1% से भी कम थी।
वृद्धि दर की तुलना (2001-2011): 2001 की तुलना में 2011 में भारत की कुल आबादी 17.7% बढ़ी थी। इस दौरान विभिन्न धार्मिक समूहों की वृद्धि दरें इस प्रकार थीं:
• मुस्लिम: लगभग 25% (जो सभी धर्मों में सबसे अधिक थी)
• हिंदू: 17% से कम
• ईसाई: 15.5%
• सिख: 8.4%
• बौद्ध: 6.1%
• जैन: 5.4%
दीर्घकालिक तुलना (1951-2011): अगर हम 1951 से 2011 तक की लंबी अवधि की तुलना करें, तो जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े और भी स्पष्ट होते हैं:
• मुस्लिम: 1951 में 3.54 करोड़ से बढ़कर 2011 में 17.22 करोड़ हो गए, यानी 386% की वृद्धि।
• हिंदू: 1951 में 30.35 करोड़ से बढ़कर 2011 में 96.62 करोड़ हो गए, यानी 218% की वृद्धि।
• सिख: 235% की वृद्धि।
• ईसाई: 232% की वृद्धि।
धार्मिक हिस्सेदारी में बदलाव (1951-2011): जनसंख्या में हिस्सेदारी के लिहाज़ से भी बदलाव देखा गया:
• 1951 में, हिंदू कुल आबादी का 84% थे, जो 2011 में घटकर 79.8% हो गए।
• मुस्लिम 1951 में 9% थे, जो 2011 में बढ़कर 14.2% हो गए।
• ईसाई और सिख की हिस्सेदारी में मामूली बदलाव हुआ।
क्या अल्पसंख्यक बन रहे बहुसंख्यक?
यह सवाल कि क्या भारत में बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक बन जाएगा, इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक हालिया टिप्पणी के बाद फिर से चर्चा में आया है। साल 2024 में एक मामले की सुनवाई के दौरान, जस्टिस रोहित रंजन ने चिंता जताते हुए कहा था कि अगर धर्मांतरण को रोका नहीं गया, तो एक दिन बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी। उन्होंने विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में अनुसूचित जाति/जनजाति और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बड़े पैमाने पर ईसाई धर्म में धर्मांतरण पर चिंता व्यक्त की थी।
यह चिंता वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी देखी जाती है। जहां बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल देशों में बहुसंख्यक समुदाय की आबादी में हिस्सेदारी बढ़ी है, वहीं भारत (हिंदू) के साथ-साथ नेपाल (हिंदू) और म्यांमार (बोद्ध) की बहुसंख्यक आबादी में गिरावट आई है।
धर्मांतरण के तरीके:
धर्मांतरण अक्सर दो मुख्य तरीकों से होता है:
1. सॉफ्ट कन्वर्जन: यह एक धीमी और सूक्ष्म प्रक्रिया है, जहां गरीबी, बीमारी, जातिगत भेदभाव या प्राकृतिक आपदा जैसी कमजोरियों का लाभ उठाया जाता है। ब्रिटिश भारत में ईसाई मिशनरियों ने स्कूल और अस्पतालों के माध्यम से इसी रणनीति का इस्तेमाल किया, जहां शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के बदले अप्रत्यक्ष रूप से धर्म परिवर्तन को बढ़ावा दिया गया। यह तरीका अधिक टिकाऊ माना जाता है क्योंकि इसमें लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान तक खो देते हैं।
2. सामूहिक धर्मांतरण: यह किसी विशेष घटना या तात्कालिक दबाव के कारण होता है, जहां एक साथ बड़ी संख्या में लोग अपना धर्म बदलते हैं। इसके पीछे अक्सर एक संगठित नेटवर्क काम करता है।
जबरन धर्मांतरण पर कानून
भारत में जबरन धर्मांतरण के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कोई केंद्रीय कानून नहीं है, लेकिन कई राज्यों में इसे लेकर कानून बनाए गए हैं। इनमें ओडिशा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य शामिल हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने 2021 में जबरन धर्मांतरण के खिलाफ एक कानून पारित किया था, जिसमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है। भारत के पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और भूटान में भी जबरन धर्मांतरण के खिलाफ कानून मौजूद हैं।
भारत में धार्मिक जनसांख्यिकी में बदलाव एक जटिल मुद्दा है, जिसके कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आयाम हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर अन्य समुदायों की तुलना में अधिक रही है, जिससे धार्मिक हिस्सेदारी में कुछ बदलाव आए हैं।