गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. Why abdul ghani baradar fails to become Afghanistan PM
Written By
Last Modified: गुरुवार, 9 सितम्बर 2021 (11:31 IST)

अफगानिस्तान: तालिबान 'नंबर टू' मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर प्रधानमंत्री बनने से कैसे चूक गए?

अफगानिस्तान: तालिबान 'नंबर टू' मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर प्रधानमंत्री बनने से कैसे चूक गए? - Why abdul ghani baradar fails to become Afghanistan PM
अनंत प्रकाश, बीबीसी संवाददाता
तालिबान के सह-संस्थापक अब्दुल ग़नी बरादर को अफगानिस्तान की अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री बनाया गया है। साल 2010 से लेकर 2018 तक पाकिस्तान की जेल में रहने वाले बरादर ने तालिबान और अमेरिकी सरकार के बीच समझौते में अहम भूमिका निभाई थी।
 
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़, बीते तीन सितंबर को कम से कम तीन सूत्रों ने बताया था कि बरादर को अंतरिम सरकार में सर्वोच्च पद मिल सकता है। मीडिया में आई कुछ अन्य रिपोर्ट्स में अनुमान लगाया जा रहा था कि उनकी टीम में शेर मोहम्मद अब्बास स्तनिकज़ई एक अहम भूमिका निभा सकते हैं।
 
लेकिन तीन सितंबर से सात सितंबर के बीच कुछ ऐसा हुआ जिसके बाद बरादर की कुर्सी मुल्ला मोहम्मद हसन अख़ुंद को मिल गई और दोहा समझौता वार्ता में तालिबान का नेतृत्व करने वाले तालिबान के सह-संस्थापक मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर उनके नीचे उप-प्रधानमंत्री बनाए गए।
 
ऐसे में सवाल उठता है कि इन चार दिनों में ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से बरादर प्रधानमंत्री से उप-प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। सवाल ये उठता है कि क्या तीन सितंबर तक मीडिया की रिपोर्ट्स और विशेषज्ञों के आकलन आधारहीन थे। या इन चार दिनों में ऐसा कुछ हुआ है जिससे अफगानिस्तान में राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं।
 
इस सवाल का जवाब जानने के लिए अब्दुल ग़नी बरादर के इतिहास और तीन से सात सितंबर के बीच काबुल में जो कुछ हुआ उसे जानने की ज़रूरत है।
 
आख़िर कौन हैं अब्दुल ग़नी बरादर?
अफगानिस्तान की अंतरिम तालिबान सरकार में उप-प्रधानमंत्री बनने वाले मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर का जन्म अफगानिस्तान के उरुज़्गान प्रांत में हुआ था। प्रभावशाली पश्तून कबीले में जन्म लेने वाले अब्दुल ग़नी ने अपनी युवावस्था में ही मुल्ला उमर के साथ मिलकर सोवियत संघ की सेना का सामना किया था।
 
ऐसा माना जाता है कि सोवियत संघ के ख़िलाफ़ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते हुए दोनों नेताओं के बीच ऐसी दोस्ती हुई कि मुल्ला उमर ने अब्दुल ग़नी को बरादर उपनाम दिया जिसका शाब्दिक अर्थ 'भाई' होता है।
 
समाचार एजेंसी एएफ़पी के मुताबिक़, सोवियत संघ की सैन्य वापसी के बाद गृह युद्ध और भ्रष्टाचार से जूझ रहे अफगानिस्तान में दोनों दोस्तों ने मिलकर तालिबान का गठन किया। इसके बाद साल 1996 से लेकर 2001 तक चली पहली तालिबान सरकार में बरादर ने कई महत्वपूर्ण पदों को संभाला। इनमें उप-रक्षा मंत्री का पद सबसे प्रमुख माना जाता है।
 
लेकिन पद चाहे जो रहा हो, मुल्ला उमर के क़रीबी होने की वजह से अब्दुल ग़नी बरादर ने हमेशा तालिबान में एक मज़बूत उपस्थिति बनाए रखी। इसके बाद साल 2001 में अमेरिकी नेतृत्व में अफगानिस्तान आई गठबंधन सेना ने तालिबान को सत्ता से बाहर कर दिया।
 
अमेरिकी मैग़जीन न्यूज़वीक में छपे लेख के मुताबिक़, बरादर ने अंतरिम सरकार के मुखिया हामिद करज़ई से एक संभावित शांति समझौते के लिए संपर्क किया था। इसके तहत चरमपंथी नयी अफ़ग़ान सरकार को अपनी स्वीकार्यता देते। लेकिन बरादर की ये कोशिशें सफल नहीं हुईं।
 
इसके बाद साल 2010 में पाकिस्तान ने बरादर को कराची में गिरफ़्तार कर लिया और अगले 8 साल तक नहीं छोड़ा, जब तक कि अमेरिकी सरकार ने उन पर दबाव नहीं बनाया।
 
अमेरिकी सरकार के दबाव में पाकिस्तानी जेल से बाहर आने के तीन महीने के भीतर बरादर ने क़तर स्थित तालिबान के राजनीतिक दफ़्तर के मुखिया का पद संभाल लिया। इसके बाद अमेरिकी सरकार और तालिबान के बीच दोहा में ऐतिहासिक डील हुई जिसके तहत अमेरिका ने बीती 31 अगस्त से पहले अपने सैनिकों को वापस बुला लिया।
 
पाकिस्तान और बरादर के बीच संबंध
पाकिस्तान और मुल्ला बरादर के बीच रिश्तों को लेकर अगर एक बात कही जा सकती है तो वो ये है कि दोनों के बीच रिश्ते अविश्वास से भरे रहे हैं।
 
साल 2010 में कराची के एक मदरसे से बरादर को गिरफ़्तार करने के बाद से लेकर उनकी रिहाई तक पाकिस्तान ने बरादर के मामले में बेहद सावधानी से क़दम उठाए हैं।
 
पाकिस्तान पर आरोप लगता रहा है कि वह ये नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में शांति समझौता उसकी भूमिका के बग़ैर हो। जबकि बरादर दो बार ऐसी कोशिशें कर चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बरादर को प्रधानमंत्री पद नहीं हासिल करने देने में पाकिस्तान की कोई भूमिका है।
 
क्योंकि बीते तीन सितंबर तक मीडिया रिपोर्ट्स में अब्दुल ग़नी बरादर को सरकार में प्रधानमंत्री बनता हुआ बताया जा रहा था।
 
लेकिन तीन सितंबर की शाम काबुल में गोलियां चलने की ख़बर आई। तालिबान प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने इसे ख़ुशी में की गई फ़ायर करार दिया।
 
लेकिन समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक़, ये गोलीबारी पंजशीर पर तालिबानी जीत की वजह से नहीं की गयी थी बल्कि ये हक़्क़ानी नेटवर्क और बरादर के बीच सत्ता संघर्ष का परिणाम थी। इस हिंसा में मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर के जख़्मी होने की ख़बरें भी आई थीं।
 
लेकिन इस सबके बीच पाकिस्तान की ख़ुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख जनरल फ़ैज़ हामिद काबुल पहुंचे और बरादर से मुलाक़ात की।
 
इस समय तक ये आकलन लगाया जा रहा था कि क़तर से लेकर काबुल तक तालिबान को लेकर आने वाले मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर को ही प्रधानमंत्री बनाया जाएगा।
 
लेकिन हामिद की काबुल यात्रा के बाद कट्टरपंथी और रहबरी-शूरा काउंसिल के प्रमुख मुल्ला मोहम्मद हसन अख़ुंद के प्रधानमंत्री बनने की घोषणा हो गयी।
 
पाकिस्तान, अफगानिस्तान और तालिबान के बीत रिश्तों की जटिलताओं को समझने वाले भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के पूर्व अधिकारी आनंद अर्नी मानते हैं कि ये स्वाभाविक है कि पाकिस्तान और अब्दुल ग़नी बरादर के बीच मधुर रिश्ते नहीं रहे हैं।
 
वह कहते हैं, "पाकिस्तान अब्दुल ग़नी बरादर पर पूरा भरोसा करने की स्थिति में नहीं है। इसकी एक वजह बरादर को पाकिस्तान जेल में रखा जाना है जो कि बरादर के लिए एक अच्छा अनुभव नहीं था।
 
वहीं, कुछ हलकों में ये भी माना जाता है कि अमेरिकी सरकार बरादर के साथ तार जोड़े रखती है।
 
यही नहीं, बरादर कंधार पश्तून कबीले से आते हैं जबकि हक़्क़ानी नेटवर्क का ताल्लुक़ जादरान पश्तून कबीले से है। ऐसे में पाकिस्तान और हक़्क़ानी नेटवर्क दोनों बरादर के इरादों को संदेह भरी नज़रों से देखते हैं।"
 
अफगानिस्तान की सुरक्षा करेगा हक़्क़ानी नेटवर्क
अफगानिस्तान की नयी अंतरिम सरकार में जहां बरादर को प्रधानमंत्री की जगह उप-प्रधानमंत्री पद से संतोष करना पड़ रहा है।
 
वहीं, हक़्क़ानी नेटवर्क के मुखिया सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को गृह मंत्री बनाया गया है जिसका मतलब ये है कि अफगानिस्तान की आंतरिक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हक़्क़ानी नेटवर्क संभालेगा।
 
बता दें कि अमेरिका ने हक़्क़ानी नेटवर्क को 'आतंकी संगठनों' की सूची में डाल रखा है। वहीं, इसके मुखिया और अफगानिस्तान के नए गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी 'वांछित आतंकवादियों' की सूची में शामिल हैं।
 
विशेषज्ञ मानते हैं कि पाकिस्तान और हक़्क़ानी नेटवर्क के संबंध कितने गहरे हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी एजेंसी एफ़बीआई मानती है कि सिराजुद्दीन हक़्क़ानी संभवत: पाकिस्तान में रह रहे हैं।
 
साल 2011 में ज्वॉइंट चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन ने हक़्क़ानी नेटवर्क को पाकिस्तानी ख़ुफिया एजेंसी की एक शाखा बताया था।
 
लेकिन अब्दुल ग़नी बरादर एक ऐसे नेता हैं जिन्हें तालिबान समूह में बेहद सम्मान के साथ देखा जाता है और मुल्ला उमर के बाद उनका दूसरा स्थान माना जाता है।
 
ऐसे में देखना ये होगा कि पाकिस्तान आने वाले दिनों में बरादर के साथ अपने रिश्तों को सुदृढ़ करने के लिए क्या क़दम उठाता है।
ये भी पढ़ें
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 71वें जन्मदिन की भव्य तैयारी के सियासी मायने क्या?