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Written By BBC Hindi
Last Modified: बुधवार, 10 नवंबर 2021 (08:36 IST)

अफगानिस्तान: मजबूरी में लोग खुलेआम बेच रहे हैं बच्चे

अफगानिस्तान: मजबूरी में लोग खुलेआम बेच रहे हैं बच्चे - children in Afghanistan
योगिता लिमये, बीबीसी संवाददाता
हम जैसे ही हेरात शहर से बाहर निकले, भीड़-भाड़ वाली सड़कों के बाद हमें एक लंबा और खाली हाइवे मिला। तालिबान के जिन दो चौकियों को हमने पार किया, वे बता रही थीं कि अब अफगानिस्तान पर कौन राज कर रहा है।
 
सबसे पहली चौकी पर मिलने वाले लड़ाके मिलनसार थे। लेकिन उन्होंने हमारी कारों और वहां के संस्कृति मंत्रालय से मिले परमिट की उन्होंने अच्छे से जांच की।
 
हम वहां से जैसे ही जाने लगे तो एक शख़्स, जिसके कंधे से असॉल्ट राइफ़ल लटक रही थी, उसने चौड़ी मुस्कान के साथ कहा, ''तालिबान से मत डरो। हम अच्छे लोग हैं।'' हालांकि दूसरी चौकी पर मौज़ूद पहरेदार थोड़े अलग थे: ठंडे और थोड़े ख़तरनाक से।
 
आपको इस बात का कभी अंदाज़ा नहीं होता कि आपकी किस तरह के तालिबान से भेंट होगी। उनके कुछ लड़ाकों ने विरोध-प्रदर्शन को कवर करने के लिए अफ़ग़ान पत्रकारों को बेरहमी से पीटा था। और हाल के एक ऑनलाइन वीडियो में दिखा कि एक विदेशी फोटोग्राफर को वे अपनी बंदूकों के बट से मार रहे थे।
 
शुक़्र की बात ये रही कि हमें चेकप्वाइंट से जल्दी छुटकारा मिल गया, पर एक बयान के साथ जो हमें चेतावनी जैसी लग रही थी। उन्होंने कहा था, ''हमारे बारे में अच्छी बातें लिखी जाएं ये तय कीजिएगा।''
 
एक बच्चे की क़ीमत 65 हज़ार
हेरात से क़रीब 15 किलोमीटर दूर हम एक कमरे के भूरे, मिट्टी और ईंट के बने घरों की एक बड़ी बस्ती में पहुँच गए। सालों की लड़ाई और सूखे से विस्थापित होकर दूर-दराज के अपने घरों से निकलकर कई लोग यहां चले आए थे, ताकि पास के शहर में काम और सुरक्षा मिल सके। हम जैसे ही अपनी कार से बाहर निकले तो धूल उड़ने लगी। हवा में एक चुभन थी, जो कुछ हफ़्तों में कड़ाके की ठंड में बदल जाएगी।
 
हम वहां ये पड़ताल करने गए थे कि अपनी ग़रीबी से परेशान होकर लोग क्या वाक़ई अपने बच्चे बेच रहे हैं। मैंने जब पहली बार इसके बारे में सुना तो मन ही मन सोचा: निश्चित तौर पर ऐसे एकाध मामले ही होंगे। लेकिन हमने जो पाया उसके लिए मैं पूरी तरह से तैयार नहीं थी।
 
हमारे वहां पहुंचने के थोड़ी देर बाद एक शख़्स ने हमारी टीम के एक सदस्य से सीधे पूछ लिया कि क्या हम उनके किसी बच्चे को खरीदेंगे। वो इसके बदले 900 डॉलर (क़रीब 65 हज़ार भारतीय रुपए) मांग रहे थे। इस पर मेरे सहयोगी ने उनसे पूछा कि वो अपने बच्चे को क्यों बेचना चाहते हैं। तो उस व्यक्ति ने कहा कि उसके और 8 बच्चे हैं, पर उनके पास उन्हें खिलाने को भोजन नहीं है।
 
बच्चे बेचकर भोजन जुटाने की मजबूरी
हम थोड़ा ही आगे बढ़ पाए थे कि हमारे पास एक बच्ची लिए एक महिला आई। वो तेजी से और घबराकर बात कर रही थी। हमारे अनुवादक ने बताया कि वो कह रही हैं कि डेढ़ साल के गोद के बच्चे को पैसे की सख़्त ज़रूरत के चलते वो पहले ही बेच चुकी हैं।
 
इससे पहले कि हम उनसे कुछ और पूछ पाते, हमारे आसपास जमा हुई भीड़ में से एक युवक ने हमसे कहा कि उनकी 13 महीने की भांजी को पहले ही बेच दिया गया है।

उन्होंने बताया कि घोर प्रांत के एक क़बीले के एक व्यक्ति ने काफी दूर से आकर उसे खरीद लिया। खरीदने वाले शख़्स ने उनके परिवार को बताया कि जब वो बड़ी हो जाएगी, तो उसकी शादी अपने बेटे से कर देगा। इन बच्चों के भविष्य के बारे में कोई भी निश्चित तौर पर नहीं बता सकता।
 
एक घर में हमने 6 महीने की एक बच्ची को पालने में सोते हुए देखा। पता चला कि जब वो चलने लगेगी तो उसका खरीदार उसे ले जाएगा। उसके माता-पिता के तीन और बच्चे हैं- हरी आंखों वाले छोटे लड़के।
 
इनके पूरे परिवार को कई दिन बिना भोजन के भूखे बिताना पड़ता है। इस बच्ची के पिता कूड़ा-करकट इकट्ठा करके अपना गुजारा कर रहे थे।
 
उन्होंने हमें बताया, ''अब ज्यादातर दिन मैं कुछ नहीं कमा पाता। जब कोई कमाई होती है, तो हम छह या सात ब्रेड खरीद लेते हैं। और उसे आपस में बांट लेते हैं। मेरी पत्नी बेटी को बेचने के मेरे फैसले से सहमत नहीं है। इसलिए परेशान है, लेकिन मैं लाचार हूँ। जीने का और कोई रास्ता नहीं बचा है।''
 
मैं उनकी पत्नी की आंखों को कभी नहीं भूलूंगी। उसमें क्रोध और लाचारी दोनों दिख रही थी। बच्ची को बेचने से उन्हें जो पैसा मिलने वाला है, वो उन्हें ज़िंदा रहने में मदद करेगा। इससे बच्चों के लिए भोजन का इंतज़ाम हो पाएगा, पर केवल कुछ ही महीनों तक।
 
हम जैसे ही वहां से निकलने लगे कि हमारे पास एक दूसरी महिला आई। पैसे का इशारा करते हुए वो साफ तौर पर अपने बच्चों को वहीं सौंपने को तैयार थीं।
 
'हमें ऐसे हालात की उम्मीद तक नहीं थी'
हमने तो ये उम्मीद तक नहीं की थी कि यहां इतने सारे परिवार अपने बच्चे बेचने को मजबूर होंगे। इस बारे में आपस में खुलकर बात करने की बात तो छोड़ ही दीजिए।
 
हमारे पास जो जानकारी उपलब्ध थी, उसे बताने के लिए हमने संयुक्त राष्ट्र की बच्चों की संस्था यूनिसेफ़ से संपर्क किया। उन्होंने हमें बताया कि वे ऐसे परिवारों तक पहुंचने और उनकी मदद करने की कोशिश करेंगे।
 
अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था विदेशी धन से चलती रही है। तालिबान ने अगस्त में जब सत्ता संभाली तो धन के उन स्रोतों को रोक दिया गया। इसका मतलब ये हुआ कि हर तरह के सरकारी खर्चे चाहे सरकारी कर्मचारियों के वेतन हों या सरकार के विकास कार्य, सब के सब रूक गए।
 
इससे अर्थव्यवस्था के निचले पायदान पर मौजूद लोगों के लिए तबाही वाले हालात पैदा हो गए, जो अगस्त के पहले भी मुश्किल से गुज़ारा कर पा रहे थे।
 
मानवाधिकारों की रक्षा की गारंटी न मिले और धन कैसे खर्च हो, उसकी पड़ताल किए बिना, तालिबान को पैसा देना ख़तरनाक है। लेकिन समस्या का हल न मिलने के साथ जैसे-जैसे हर दिन ​बीत रहा है, वैसे-वैसे अफ़ग़ान लोग भुखमरी की ओर जाने को मजबूर हैं।
 
हमने हेरात में जो देखा, उससे ये साफ है कि बिना किसी बाहरी मदद के अफगानिस्तान के लाखों लोग सर्दी का ये मौसम नहीं बिता पाएंगे।
 
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