-रेहान फ़ज़ल (बीबीसी संवाददाता)
(बीबीसी ने पिछले हफ़्ते से एक नई साप्ताहिक सिरीज़ शुरू की है 'छोटी उम्र बड़ी ज़िंदगी' जिसमें उन लोगों की कहानी बताई जा रही है जिन्होंने दुनिया में नाम तो बहुत कमाया, लेकिन 40 साल से पहले इस दुनिया को अलविदा कह दिया। दूसरी कड़ी में भगत सिंह की कहानी।)
Bhagat Singh: उनकी फांसी का समय कुछ असामान्य था। सुबह तड़के न होकर, 23 मार्च की शाम 7.30 बजे। सूरज डूब चुका था। लाहौर जेल के चीफ़ सुपरिंटेंडेंट मेजर पीडी चोपड़ा एक 23 साल के छरहरे युवा और उसके 2 साथियों के साथ चलते हुए फांसी के तख़्ते की तरफ़ बढ़ रहे थे। ये सारा नज़ारा देख रहे डिप्टी जेल सुपरिंटेंडेंट मोहम्मद अकबर ख़ान बड़ी मुश्किल से अपने आंसू रोकने की कोशिश कर रहे थे।
फांसी के फंदे की तरफ़ बढ़ रहा वो शख़्स उस समय शायद भारत का सबसे मशहूर शख़्स बन चुका था।
भगत सिंह के साथ-साथ उनके 2 और साथी सुखदेव और राजगुरु भी चल रहे थे।
उन तीनों ने अंग्रेज़ सरकार से अनुरोध किया था कि राजनैतिक क़ैदियों के उनके दर्जे को देखते हुए उन्हें साधारण अपराधियों की तरह फांसी पर न चढ़ाकर गोलियों से मारा जाए।
लेकिन अंग्रेज़ सरकार ने उनके इस अनुरोध को ठुकरा दिया था। भगत सिंह उन तीनों के बीचोंबीच चल रहे थे। सुखदेव उनके बाईं तरफ़ और राजगुरु उनके दाहिनी तरफ़ थे।
चलते समय भगत सिंह एक गीत गा रहे थे, 'दिल से न निकलेगी मरकर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वतन आएगी।'
उनके दोनों साथी उनके सुर में सुर मिला रहे थे।
तीनों ने फांसी के फंदे को चूमा
भगत सिंह ने फांसी से पहले फंदे को चूमा। सतविंदर जस अपनी किताब 'द एक्सेक्यूशन ऑफ़ भगत सिंह' में लिखते हैं, 'इस क्षण को महसूस करने के लिए भगत सिंह ने अपनी ज़िंदगी देश के लिए न्योछावर कर दी बल्कि उन्होंने इस क्षण का बाकायदा इंतज़ार किया था। इसकी योजना बनाई थी। फांसी के फंदे को उन्होंने ख़ुद अपने गले में पहना था। भगत सिंह के बाद राजगुरु और सुखदेव के गले में भी फांसी के फंदे पहना दिए गए थे।'
उन्होंने भी पहनाए जाने से पहले फंदे को चूमा था। उनके हाथ और पैर बांध दिए गए थे।
कुलदीप नैयर अपनी किताब 'विदाउट फ़ियर, द लाइफ़ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह' में लिखते हैं, 'जल्लाद ने पूछा था कौन पहले जाएगा? सुखदेव ने जवाब दिया था, मैं सबसे पहले जाऊंगा। जल्लाद ने एक के बाद एक तीन बार फांसी का फंदा खींचा था। तीनों के शरीर बहुत देर तक फांसी के तख़्ते से लटकते रहे थे।'
इसके बाद वहां मौजूद डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था। वहां मौजूद एक जेल अफ़सर इन युवा क्रांतिकारियों के साहस से इतना प्रभावित हुआ था कि उसने उनके मृत शरीर को पहचानने से इनकार कर दिया था। उसको तत्काल सस्पेंड कर दिया गया था।
पहले योजना थी कि इन तीनों का अंतिम संस्कार जेल में ही किया जाएगा, लेकिन फिर सोचा गया कि उठते हुए धुएं को देखकर बाहर खड़ी भीड़ उत्तेजित हो जाएगी। इसलिए तय किया गया कि उनका अंतिम संस्कार सतलज के तट पर कसूर में किया जाएगा।
रातोंरात जेल के पिछवाड़े की दीवार तोड़ी गई। वहां से एक ट्रक को अंदर लाया गया। इन तीनों के पार्थिव शरीर को घसीटते हुए ले जाकर उन ट्रकों में फेंक दिया गया।
मन्मथनाथ गुप्त अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन रिवॉल्यूशनरी मूवमेंट' में लिखते हैं, 'सतलज नदी के तट पर दो पुजारी उन शवों का इंतज़ार कर रहे थे। उन तीनों के मृत शरीर को चिता पर रखकर आग लगा दी गई, जैसे ही भोर होने लगी जलती चिता की आग बुझाकर आधे जले हुए शरीरों को सतलज नदी में फेंक दिया गया। बाद में इस जगह की शिनाख़्त चौकी नंबर 201 के रूप में हुई। जैसे ही पुलिस और पुजारी वहां से हटे, गांव वाले पानी के अंदर घुस गए। उन्होंने अधजले शरीर के टुकड़ों को पानी से निकाला और फिर ढंग से उनका अंतिम संस्कार किया।'
महात्मा गांधी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन
भगत सिंह और उनके साथियों को 24 मार्च को फांसी दी जानी थी, लेकिन उन्हें निर्धारित समय से 11 घंटे पहले फांसी पर लटका दिया गया। जैसे ही ये ख़बर फैली भारतीय जनता में आक्रोश और सदमा छा गया।
न्यूयॉर्क में 'डेली वर्कर' अख़बार ने इस फांसी को ब्रिटिश लेबर सरकार के सबसे ख़ूनी काम की संज्ञा दी। महात्मा गांधी को, जो उन दिनों कराची की यात्रा पर थे, इन फांसियों के लिए परोक्ष रूप से ज़िम्मेदार ठहराया गया।
सतविंदर सिंह जस लिखते हैं, 'जैसे ही गांधी जी की ट्रेन कराची स्टेशन पर पहुंची, प्रदर्शनकारियों ने उनके हाथ में विरोध जताने के लिए काले फूल पकड़ा दिए। उन पर आरोप लगे कि उन्होंने भारत के भविष्य के बारे में होने वाली बातचीत में लॉर्ड इरविन के सामने भगत सिंह को फांसी न दिए जाने की शर्त नहीं रखी।'
जवाहरलाल नेहरू ने ज़रूर इन फांसियों की कड़े शब्दों में निंदा की।
श्रीराम बख़्शी अपनी किताब 'रिवॉल्यूशनरीज़ एंड द ब्रिटिश राज' में लिखते हैं, 'मैं भगत सिंह जैसे शख़्स के साहस और आत्म-बलिदान की कद्र करता हूं। भगत सिंह जैसा साहस बहुत दुर्लभ है। अगर वायसराय को हमसे ये उम्मीद है कि हम इस साहस की तारीफ़ नहीं करेंगे तो उनको बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है। उनको अपने दिल से पूछना चाहिए कि उन्होंने क्या किया होता अगर भगत सिंह अंग्रेज़ होते और उन्होंने इंग्लैंड के लिए ये क़दम उठाया होता?'
अख़बार में की नौकरी
बीसवीं सदी के पहले दशक में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत की आग पूरे देश में फैल चुकी थी। भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह और पिता किशन सिंह दोनों ग़दर पार्टी के सदस्य थे।
28 सितंबर, 1907 जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ, उसी दिन उनके पिता और चाचा अंग्रेज़ों की जेल से छूटे।
पहले भगत सिंह का नाम भगनलाल रखा गया था। सन् 1923 में उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाख़िला लिया।
पढ़ाई में वो अच्छे थे। उनको उर्दू, हिंदी, गुरमुखी, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषाओं पर महारत हासिल थी।
सन् 1924 में उन पर शादी करने के लिए परिवार वालों का दबाव पड़ने लगा।
माता-पिता को मनाने में नाकाम होने के बाद भगत सिंह ने लाहौर का अपना घर छोड़ दिया और कानपुर आ गए।
वहां उन्होंने मशहूर स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी के साप्ताहिक अख़बार 'प्रताप' में काम किया। उस अख़बार में वो बलवंत के नाम से लेख लिखा करते थे।
कानपुर में उनकी मुलाकात दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा और बीके सिन्हा से हुई।
भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की नज़दीकी
अजय घोष ने अपनी किताब 'भगत सिंह एंड हिज़ कॉमरेड्स' में लिखा है, 'मुझे भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त ने मिलवाया था। उस ज़माने में लंबे और बहुत दुबले हुआ करते थे। उनके कपड़े पुराने-धुराने होते थे और वो बहुत चुप रहा करते थे। वो एक गंवार लड़के जैसे दीखते थे। उनमें बिल्कुल भी आत्मविश्वास नहीं था। पहली नज़र में वो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आए थे। उनके चले जाने के बाद मैंने ये बात बटुकेश्वर दत्त को बताई भी थी।'
वे आगे लिखते हैं, 'दो सालों के अंदर भगत सिंह की शख़्सियत में ज़बरदस्त बदलाव आया था। वो बहुत अच्छे वक्ता बन गए थे। वो इतनी ताक़त, जुनून और ईमानदारी के साथ बोलते थे कि लोग उनके मुरीद हुए बिना नहीं रह सकते थे। सन् 1924 में वो हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए थे। चंद्रशेखर आज़ाद उसके कर्ता-धर्ता थे और भगत सिंह उनके बहुत नज़दीक आ गए थे।'
लाला लाजपत राय की मौत का बदला
सन् 1927 में काकोरी कांड के सिलसिले में भगत सिंह को पहली बार गिरफ़्तार किया गया था। दरअसल, उन्होंने इस घटना के समर्थन में अपना नाम बदलकर 'विद्रोही' नाम से एक लेख लिखा था।
लाहौर में दशहरे के मेले में बम विस्फोट का आरोप भी उन पर लगाया गया था। बाद में अच्छे व्यवहार के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था। उसी साल जब साइमन कमीशन भारत आया तो लाला लाजपत राय ने उसका ज़ोरदार विरोध किया।
विरोध प्रदर्शन के दौरान एसपी जेए स्कॉट ने भीड़ पर लाठीचार्ज करने का आदेश दिया। उसने दूर से ही लाला लाजपतराय को देख लिया। उसने उन पर बेंत बरसाना शुरू कर दिया और तब तक बेंत चलाता रहा जब तक वो लहूलुहान होकर ज़मीन पर नहीं गिर गए। बेहोश होने से पहले उन्होंने चिल्लाकर कहा था, 'हमारे ऊपर चलाई गई हर लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में ठोकी गई कील साबित होगी।'
जवाहरलाल नेहरू ने पुलिस के इस काम की निंदा करते हुए इसे एक 'राष्ट्रीय शर्म' बताया था। 17 नवंबर को लाला लाजपत राय का निधन हो गया। 10 दिसंबर, 1928 को देश भर के क्रांतिकारियों की लाहौर में बैठक हुई जिसकी अध्यक्षता भगवतीचरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी ने की।
इसी बैठक में तय हुआ कि लाला जी की मौत का बदला लिया जाएगा। भगत सिंह और उनके साथी दुनिया को बताना चाहते थे कि भारत लालाजी की मौत को चुपचाप सहन नहीं करेगा।
सैंडर्स को गोली मारी
तय हुआ कि भगत सिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद और जय गोपाल एसपी स्कॉट को मारने के अभियान में भाग लेंगे। 2 दिन पहले यानी 15 दिसंबर को क्रांतिकारियों ने उस जगह का दौरा किया जहां उन्हें स्कॉट को मारना था।
भगत सिंह ने एक लाल बॉर्डर का पोस्टर तैयार किया जिस पर लिखा था 'स्कॉट किल्ड।' बाद में उनके हाथ से लिखे इस पोस्टर को लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में उनके ख़िलाफ़ सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया गया।
एक युवा साथी जयगोपाल को ज़िम्मेदारी दी गई कि जब स्कॉट थाने पहुंचें तो वो इन तीनों को इस बारे में बता दें। स्कॉट की कार का नंबर था 6728। जयगोपाल से कहा गया कि वो इस नंबर को याद कर लें।
आश्चर्यजनक बात थी कि जयगोपाल ने पहले स्कॉट को कभी नहीं देखा था। उस दिन स्कॉट पुलिस स्टेशन आए ही नहीं। उन्होंने एक दिन की छुट्टी ले रखी थी क्योंकि उसी दिन उनकी सास इंग्लैंड से लाहौर आने वाली थीं।
जब पुलिस स्टेशन से असिस्टेंट एसपी जेपी सैंडर्स बाहर आए तो जयगोपाल ने समझा यही स्कॉट हैं। उन्होंने इसकी सूचना भगत सिंह और राजगुरु को दे दी। दोपहर बाद जब सैंडर्स पुलिस स्टेशन से बाहर आकर अपनी मोटर साइकिल स्टार्ट कर रहे थे तब राजगुरु ने उन्हें अपनी जर्मन माउज़र पिस्टल से गोली मार दी।
भगत सिंह चिल्लाते ही रह गए 'नहीं, नहीं, नहीं ये स्कॉट नहीं हैं।' लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जब सैंडर्स गिरे तो भगत सिंह ने भी उनके मृत शरीर में कुछ गोलियां मार दीं।
चानन सिंह को भी मारी गोली
पहले से तय योजना के अनुसार, भगत सिंह और राजगुरु डीएवी कालेज की तरफ़ भागे। वहां चंद्रशेखर आज़ाद ने उनको कवर देने के लिए पोज़ीशन ली हुई थी।
स्वतंत्रता सेनानी शिव वर्मा अपनी किताब 'रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ फ़ेलो रिवोल्यूशनरीज़' में लिखते हैं, 'जब भगत सिंह और राजगुरु सैंडर्स को मारने के बाद भाग रहे थे तो एक हेड कॉन्सटेबल चानन सिंह उनका पीछा करने लगा। जब आज़ाद के चिल्लाने पर भी वो नहीं रुका तो राजगुरु ने उसे भी गोली मार दी। उस समय हॉस्टल की खिड़की से बहुत से लोग ये दृश्य देख रहे थे। उनमें से एक थे, बाद में महान कवि बने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़।'
अगले दिन शहर की दीवारों पर लाल स्याही से बने पोस्टर चिपके पाए गए जिन पर लिखा था 'सैंडर्स इज़ डेड। लाला लाजपत राय इज़ एवेंज्ड।' सैंडर्स की हत्या के बाद लाहौर से बाहर निकलना नामुमकिन था। शहर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी।
दुर्गा भाभी के साथ लाहौर से निकलने में कामयाब
सैंडर्स को मारने से पहले भगत सिंह ने अपने बाल कटवा दिए थे। पुलिस को उनके नए भेष के बारे में मालूम नहीं था। वो बाल और दाढ़ी रखने वाले एक सिख युवक को ढूंढ रही थी। तय हुआ कि भगत सिंह साहबों जैसे कपड़े पहनकर ट्रेन पर सवार होंगे। उनके साथ दुर्गा भाभी उनकी पत्नी के रूप में जाएंगी।
मलविंदरजीत सिंह बड़ाइच अपनी किताब 'भगत सिंह द एटर्नल रेबेल' में लिखते हैं, 'भगत सिंह ने ओवरकोट और हैट पहन रखी थी। उन्होंने अपने कोट का कॉलर भी ऊंचा कर रखा था। उन्होंने अपनी गोद में दुर्गा भाभी के बेटे शचि को इस तरह से पकड़ रखा था कि उनका चेहरा न दिखाई दे। भगत सिंह और दुर्गा भाभी फ़र्स्ट क्लास के कूपे में थे जबकि उनके नौकर के भेष में राजगुरु तीसरे दर्जे में सफ़र कर रहे थे। दोनों के पास लोडेड रिवॉल्वर थी।'
लखनऊ स्टेशन पर उतरकर उन्होंने कुछ घंटे स्टेशन के वेटिंग रूम में बिताए। यहां से राजगुरु दूसरी तरफ़ निकल गए और भगत सिंह और दुर्गा भाभी ने कलकत्ता का रुख़ किया जहां दुर्गा भाभी के पति भगवतीचरण वोहरा पहले से ही मौजूद थे।
सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने का फ़ैसला
कलकत्ता में कुछ दिन रहने के बाद भगत सिंह आगरा आए जहां उन्होंने 'हींग की मंडी' मोहल्ले में 2 घर किराए पर लिए। आगरा में ही भगत सिंह और उनके साथियों की एक बैठक हुई जिसमें सैंडर्स को मारे जाने के परिणाम पर बड़ी बहस हुई। सबका मानना था कि इस हत्या का वो असर नहीं हुआ जिसकी वो सब उम्मीद कर रहे थे। उनको उम्मीद थी कि इससे डरकर बड़ी संख्या में अंग्रेज़ भारत छोड़ देंगे।
उन्हीं दिनों असेंबली में 2 बिलों पर विचार किया जाना था। एक था पब्लिक सेफ़्टी बिल जिसमें सरकार को बिना मुक़दमा चलाए किसी को भी गिरफ़्तार करने का अधिकार दिया गया था। दूसरा था ट्रेड डिस्प्युट बिल जिसमें श्रमिक संगठनों को हड़ताल करने की मनाही हो गई थी।
जिस दिन ये बिल पेश किए जाने थे यानी 8 अप्रैल को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ख़ाकी कमीज़ और शॉर्ट्स पहने हुए सेंट्रल असेंबली की दर्शक दीर्घा में पहुंच गए। उस समय असेंबली में कई बड़े नेता जैसे विट्ठलभाई पटेल, मोहम्मद अली जिन्ना और मोतीलाल नेहरू मौजूद थे।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास
कुलदीप नैयर लिखते हैं, भगत सिंह ने बहुत सावधानी से उस जगह बम लुढ़काया जहां एसेंबली का कोई सदस्य मौजूद नहीं था। जैसे ही बम फटा पूरे हॉल में अंधेरा छा गया। बटुकेश्वर दत्त ने दूसरा बम फेंका। तभी दर्शक दीर्घे से असेंबली में कागज़ के पैम्फ़लेट उड़ने लगे। असेंबली के सदस्यों को 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' और 'लॉन्ग लिव प्रोलिटेरियट' के नारे सुनाई दिए।
उन पैम्फ़लेटों पर लिखा था, 'बहरों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है।' न ही भगत सिंह और न ही बटुकेश्वर दत्त ने वहां से भागने की कोशिश की, जैसा कि पहले से तय था उन्होंने अपने-आप को गिरफ़्तार करवाया।
वहीं पर भगत सिंह ने अपनी वो पिस्टल सरेंडर की जिससे उन्होंने सैंडर्स की हत्या की थी। उनको पता था कि ये पिस्टल सैंडर्स की हत्या में उनके शामिल होने का सबसे बड़ा सबूत होगी।
दोनों को अलग-अलग थानों में ले जाया गया। भगत सिंह को मुख्य थाने और बटुकेश्वर दत्ते को चांदनी चौक के थाने पर लाया गया। इसका उद्देश्य था कि दोनों से अलग-अलग पूछताछ की जाए ताकि सच का पता लगाया जा सके।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को इस काम के लिए आजीवन कारावास की सज़ा मिली, लेकिन सैंडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सज़ा सुनाई गई।
लाहौर में शोक जुलूस
भगत सिंह को फांसी दिए जाने से कुछ दिन पहले पंडित मदन मोहन मालवीय ने वायसराय लॉर्ड इरविन को तार भेजकर भगत सिंह की मौत की सज़ा को उम्र क़ैद में परिवर्तित करने की मांग की, लेकिन उनके इस अनुरोध को ठुकरा दिया गया।
फांसी दिए जाने के अगले दिन पूरे लाहौर में हड़ताल रखी गई। उनकी याद में नीला गुंबद से एक शोक जुलूस निकाला गया। ये जगह उस जगह के बहुत पास थी जहां सैंडर्स को गोली मारी गई थी।
हज़ारों हिन्दू, मुस्लिम और सिख 3 मील लंबे जुलूस का हिस्सा बने। पुरुषों ने अपनी बांह में काली पट्टी बांध रखी थी जबकि महिलाओं ने विरोधस्वरूप काली साड़ी पहन रखी थी। मॉल से गुज़र कर पूरा जुलूस अनारकली बाज़ार के बीचोबीच रुक गया।
तभी घोषणा की गई कि भगत सिंह का पूरा परिवार तीनों शहीदों की अस्थियां लेकर फ़िरोज़पुर से लाहौर पहुंच गया है।
भगत सिंह की अस्थियों को लाहौर लाया गया
तीन घंटे बाद फूलों से लदे तीन ताबूत उस जुलूस का हिस्सा बन गए। वहां मौजूद हर शख़्स की आंखों में आंसू थे। उस मौके पर एक उर्दू अख़बार के संपादक मौलाना ज़फ़र अली ख़ां ने एक नज़्म पढ़ी। जिस जेल में भगत सिंह को फांसी दी गई थी वहां के वॉर्डेन चरत सिंह धीमे क़दमों से अपने कमरे की तरफ़ बढ़े और फूट-फूट कर रोने लगे।
अपने 30 साल के करियर में उन्होंने बहुत से लोगों को फांसी होते देखी थी। लेकिन किसी ने इतनी बहादुरी से मौत को गले नहीं लगाया था जितना भगत सिंह और उनके 2 साथियों ने। भगत सिंह की मौत के 16 साल, 4 महीने और 23 दिन बाद भारत आज़ाद हुआ था और अंग्रेज़ों को यहां से हमेशा के लिए जाना पड़ा था।
(बीबीसी की नई साप्ताहिक सिरीज़ 'छोटी उम्र बड़ी ज़िंदगी' में आज आपने भगत सिंह के संघर्ष और साहस की कहानी पढ़ी। पहली कड़ी में हमने स्वामी विवेकानंद के जीवन पर नज़र डाली थी। इस सिरीज़ की अगली कड़ियों में आपको उन लोगों की कहानी बताई जाएगी जिन्होंने दुनिया में नाम तो बहुत कमाया, लेकिन 40 साल से पहले इस दुनिया को अलविदा कह दिया।)