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शहीद दिवस विशेष : जब भगतसिंह सगाई का नाम सुनकर घर से भाग खड़े हुए थे...

शहीद दिवस विशेष : जब भगतसिंह सगाई का नाम सुनकर घर से भाग खड़े हुए थे... - Shaheed Bhagat Singh
भगतसिंह और ‘भाग्य’! निश्चय ही भगतसिंह के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखने वालों के लिए यह बात विस्मयजनक है। आमतौर पर भगतसिंह के बारे में यह तथ्य है कि वह एक घोषि‍त नास्तिक थे, फिर भला ‘भाग्य’ से उनका क्या वास्ता हो सकता है!
 
मगर हो सकता है नहीं, बल्कि था। 23 वर्ष की छोटी सी जिंदगी के मालिक भगतसिंह का नन्हा सा जीवन भी सौभाग्य और दुर्भाग्य की एक लंबी यातना-कथा है।
 
इतिहास अपने चमत्कारपूर्ण किस्सों के लिए मशूहर है, पर क्या यह चमत्कार नहीं है कि केवल 22-23 वर्ष का एक नौजवान राष्ट्र-यज्ञ की पूर्णाहुति की तैयारी कर रहा था, जो साधनों के नाम पर शून्य था और साथियों के नाम पर ‘आत्माहुति’ ही जिसकी एकमात्र शक्ति थी।
 
हमारे लोकगीत गायकों ने लैला-मजनू, हीर-रांझा के समर्पणों को तो घर-घर पहुंचा दिया है, पर आत्मार्पण की यह कथा अछूत-सी क्यों रही? स्वामी विवेकानंद 39 वर्ष की उम्र में, महामानव ईसा 33 वर्ष की उम्र में और महापुरुष शंकराचार्य 30 वर्ष की उम्र में अपना काम कर गए थे।
 
मगर भगतसिंह ने बेहद तेजी से इन सबका रिकॉर्ड तोड़ दिया और सिर्फ 23 वर्ष की उम्र में दुनिया को अपना चमत्कार दिखा दिया।
 
बचपन में जब भगतसिंह सगाई का नाम सुनकर घर से भाग खड़े हुए थे, तब मां विद्यावतीजी पर मानो वज्रपात हो गया, उनके सपनों पर पानी-सा फिर गया। वह लाहौर के ग्वालमंडी में एक प्रसिद्ध ज्योतिषी के पास गई। उसने उनसे भगतसिंह का कोई कपड़ा मांगा। इस पर जब उनकी पगड़ी पेश की गई तो कुछ देर मंत्र पढ़कर ज्योतिषी ने कहा,
 
‘तुम्हारा बेटा कुछ दिनों बाद ही आ तो जाएगा, मगर फिर चला जाएगा। इस लड़के का भाग्य भी अद्भुत है। या तो यह तख्त पर बैठेगा या तख्ते पर झूलेगा’
 
क्रांतिकारी परिवार की विद्यावतीजी के विचारों में ‘तख्त’ कहां से आता, तख्ता ही घूम गया और उन्हें लगा, जैसे एक साथ अनेक बिच्छुओं ने डंक मार दिए हों। अपने बुढ़ापे में जब वह इस घटना को सुनातीं तो मानो कहीं दूर खो जातीं और फिर निकल पड़ते उनके मुखारविंद से चमत्कारों के कई संस्मरण और किस्सों पर किस्से।
 
उन दिनों भगतसिंह का मुकदमा चल रहा था। उनके गांव के बाहर एक साधु आकर बैठ गया। उसने धूनी जलाई। दो-चार दिनों में ही उसकी सिद्धि की चर्चा गांव भर में होने लगी। किसी ने विद्यावतीजी से कहा, ‘उस साधु के पास जाओ, शायद भगतसिंह बच जाएगा’
 
उन्हें ऐसी बातों पर बहुत विश्वास तो नहीं था, मगर फिर भी मां की ममता ने जोर मारा और वह रात के समय कुलवीर को लेकर उस साधु के पास गई। उसने कुछ पढ़कर एक पुड़िया में राख उन्हें दी और कहा कि इसे भगतसिंह के सिर पर डाल देना।
 
जब मुलाकात का दिन आया तो वह राख साथ ले गई और भगतसिंह के पास बैठकर उनके सिर पर हाथ फेरने की कोशिश करने लगीं, ताकि धीरे से राख उनके सिर पर डाल सकें। उनका हाथ अभी भगतसिंह के सिर तक भी न था, वह अभी कमर ही थपथपा रही थीं कि भगतसिंह बोले, 
‘बेबे, जो राख मेरे सिर पर डालना चाहती हैं, वह कुलवीर के सिर पर डालिए, ताकि वह हमेशा आपके पास रहे’
मां बताती थीं, ‘मेरे लिए यह एक आश्‍चर्यजनक घटना थी। मैं बहुत दिनों तक यह सोचती रही कि मेरे मन की बात आखिर उसे पता कैसे चली?’
 
उन्हीं दिनों, जब वह भगतसिंह को लेकर बेहद विकल, बेचैन और व्यथित थीं, उन्होंने अखंड पाठ करवाया, इसी कामना से कि मेरे बेटे को फांसी न लगे।
 
अंत में ग्रंथी ने अरदास की तो उसके मुंह से से निकला, ‘वाहे गुरू! माताजी चाहती हैं कि उनका बेटा बच जाए, पर बेटा चाहता है कि उसे जरूर फांसी हो जाए। दोनों ही बात मैंने आपके सामने रख दी है, इसलिए हे सच्चे पादशाह! न्याय करना।’
 
इस पाठ के बाद जब मां भगतसिंह से मिलने जेल गई तो उन्होंने गंभीरतापूर्वक मां से पूछा, ‘सच-सच बताइए बेबे, अरदास में ग्रंथीजी ने क्या कहा?’
 
मां ने बताया, तो बोले, ‘आपकी बात तो गुरू साहब ने भी नहीं मानी, अब मुझे कौन बचा सकता है?’अपने न बचने की बात उन्होंने इतने उत्साह से कही मानो उनकी कोई लॉटरी खुलने वाली हो।
मां परेशान थीं। तरह-तरह के लोग, तरह-तरह के सुझाव। ऐसे समय में जिसने जो बता दिया, वही करने चल पड़ती। किसी ने सुझाया, किसी जेठे सुंदर-से बच्चे का ‘झगला’ लेकर’ भगतसिंह के पास रख देना, वह बच जाएगा। मां ने ऐसा भी किया। जब वह ‘झगला’ लेकर भगतसिंह के पास गई तो उन्होंने पूछा, ‘ क्या है यह?’
 मां ने कहा, ‘यह छोटा सा झगला है, बेटा। इसे अपने पास रख ले।’
 
उन्होंने उसे वापस करते हुए कहा, ‘इसे आप संभालकर रखें, मां, अंग्रेजों की जड़ें काटकर कुछ समय बाद मैं जब फिर जन्म लूंगा तब इसे पहनूंगा, तब यह काम आएगा’
 
23 और 13 के अंक का भी अद्भुत महत्व था। जेल से लिखे उनके ज्यादातर पत्रों, लेखों या साहित्य में 23 और 13 तारीख ही अंकित है। उनकी फांसी 23 तारीख, 1931 की शाम को ही हुई, तब वह अपने जीवन के 23 वर्ष पूरे कर चले थे।
 
उनकी पहली गिरफ्तारी भी लाहौर में दशहरा बम-कांड के सिलसिले में 23 अक्तूबर को ही हुई थी। फांसी से दो दिन पहले जब मां उनसे अंतिम बार मिलने गई तो देखा, उसके खाना खाने के लोहे के बरतन में गुलाब के ताजे फूल रखे हैं। मां ने पूछा, ‘भगतसिंह, ये फूल कहां से आए?’
 
अपनी सदा की मस्तानी मुद्रा में उन्होंने कहा, ‘मेरे लिए तो मां, संसार में चारों तरफ फूल-ही-फूल हैं’
 
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