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Written By अजीज अंसारी

दहशत गर्दी का खात्मा सूफ़ीइज़्म से-प्रो. सादिक़

मशहूर फ़नकार प्रो. सादिक़ से अज़ीज़ अंसारी की गुफ्तगू

दहशत गर्दी का खात्मा सूफ़ीइज़्म से-प्रो. सादिक़ -
प्रो. सादिक़ की मादरी ज़ुबान उर्दू है लेकिन उन्हें हिन्दी, मराठी, गुजराती, सिन्धी, पंजाबी, वग़ैरा ज़ुबानें न सिर्फ़ आती हैं बल्कि इन ज़ुबानों में भी उन्हें वैसी ही महारत हासिल है जैसी उर्दू में। इन तमाम ज़ुबानों के अदब का गहरा मुतालेआ आप बरसों से करते आ रहे हैं। इन तमाम ज़ुबानों में मुनअक़िद होने वाले जलसों में आप मदऊ किए जाते हैं और अपने इल्म की रोशनी से लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को रोशन कर देते हैं। इन दिनों आप हिन्दी ग़ज़ल और दहशत गर्दी का खात्मा जैसे अहम मोज़ूँ पर अवाम से रूबरू हो रहे हैं। इस से पहले कि हम इन अहम मोज़ूआत पर आप से गुफ़्तगू का आग़ाज़ करें, ये मालूम किए चलते हैं कि आपकी पैदाइश कब और इब्तिदाई तालीम कहाँ हुई।

Aziz AnsariWD
सवाल- सादिक़ साहब आप खुद इन बातों पर रोशनी डालें तो अछा हो।
जवाब- मेरा नाम सैय्यद सादिक़ अली वल्द सैय्यद पीर अली है। मेरी पैदाइश काली दास की नगरी उज्जैन(मालवा) में 10 अप्रैल 1943 को हुई। अभी मेरी उम्र मुश्किल से पाँच साल रही होगी कि वालिद साहब अल्लाह को प्यारे हो गए। परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी बड़े भाई मरहूम जनाब महमूद ज़की साहब ने इस तरह संभाली कि वालिद साहब की कमी महसूस न होने दी। न सिर्फ़ इब्तिदाई तालीम मेरी उज्जैन में हुई, बल्कि मैंने बी.ए. का इम्तेहान भी यहीं से पास किया।

सवाल- अदबी ज़ौक़ कैसे पैदा हुआ और इस ज़ौक़ को कैसे आपने परवान चढ़ाया
जवाब- उज्जैन और नाटक का बहुत पुराना और गहरा रिश्ता है। जब मैं मिडिल स्कूल में था तब मैंने स्टेज के लिए एक नाटक लिखा था। ये नाटक बहुत मक़बूल हुआ और कई बार स्टेज किया गया। इस तरह मेरा झुकाव नाटक की तरफ़ हुआ। मेरी पहली कविता मुकता में 1965 में शाए हुई। इस तरह स्कूल-कॉलेज के वक़्त से ही मेरी दिलचस्पी नाटक, कविता, और ग़ज़ल से हो गई थी। ब.ए. के बाद मैं औरंगाबाद (महाराष्ट्र) चला गया और फिर वहीं से एम.ए. और पी.एचडी. की डिग्री हासिल की। 1971 से 1977 तक वहीं औरंगाबाद में महाराष्ट्र आर्ट्स कॉलेज में लेक्चरर रहा। 1978 से तरक़्क़ी-उर्दू-बोर्ड में और फिर दिल्ली युनिवर्सिटी के शोबा-ए-उर्दू में रीडर और फिर प्रोफ़ेसर की हैसयत से काम किया।

सवाल- अब कुछ अपने अदबी सफ़र के बारे मेबताइए
जवाब- मेरी पहली किताब का नाम था दस्तखत जो 1973 में शाए हुई थी। दूसरी किताब सिलसिला 1976 में छपी। फिर तीसरी किताब आई 1996 में इस किताब का नाम था कुशाद। अब तक क़रीब 25 किताबें शाए हो चुकी हैं।

किताबों के साथ साथ मुख्त्लिफ़ मोज़ूँ पर बोलना भी मेरा एक अहम काम हो गया है। आजकल हिन्दी में ही नहीं पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, वग़ैरा ज़ुबानों भी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं और मक़बूल भी हैं। इन ज़ुबानों में ग़ज़ल की क्या हैसियत है, इसे किस तरह बहतर बनाया जा सकता है, अच्छी ग़ज़ल में कौन कौन सी खूबियाँ होना चाहिए, इन तमाम बातों को लेकर मुझे तक़रीरें करना पड़ रही हैं। इसी सिलसिले में दो बार पाकिस्तान का भी दौरा कर चुका हूँ। बरतानिया और अमेरिका के कई शहरों में मेरी ताक़रीरें और मेरी पेंटिग्स की नुमाइशें भी हो चुकी हैं।

सवाल-- ग़ज़ल के अलावा शायरी की दूसरी सिंफ़ों पर भी आप काम करते रहे हैं। कुछ उनके बारे में भी बताइए।
जवाब-- ग़ज़ल के अलावा मैंने हज़लें भी लिखी हैं जो लगातार कई माह तक दैनिक भास्कर में हर हफ़्ते छपती रही हैं।
आज़ाद नज़्में भी लिखता रहा हूँ। एक छोटी सी नज़्म है,जिस का उनवान है 'मोहब्बत'

जहाँ तुमको
नफ़रत ही नफ़रत नज़र आए
उस सरज़मीन में
मेरा दिल दबा देना
इक दिन वहाँ से
मोहब्बत उगेगी

सवाल---बहुत खूब! ग़ज़लें, नज़्में और मज़ामीन के अलावा और क्या शौक़ हैं आपके?
जवाब-- नाटक का ज़िक्र मैं पहले कर चुका हूँ। पेंटिग में मोडर्न-आर्ट से मुझे गहरी दिलचस्पी है। मेरे स्केचेज़ कई रिसालों में छपते रहे हैं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के अशआर पर मेरी पेंटिग्स की एक नुमाइश भोपाल में भी हो चुकी है। लोक साहित से भी मुझे रग़बत है। इसके लिए मैंने संस्कृत सीखी और उसका मुतालेआ किया। इसके अलावा मुझे हॉकी, तैराकी और शतरंज खेलना अच्छा लगता है।

सवाल--कुछ और ज़िम्मेदारियाँ भी आपने निबाही हैं। सुना है आप नेशनल लेवल की कई जमाअतों से मुनसलिक रहे हैं।
जवाब-- 1995 - 97 तक उर्दू अकादमी दिल्ली का चेयरमेन और यहाँ से निकलने वाले माहाना रिसाइल 'उमंग' और 'ईवान-ए-उर्दू' की इदारती ज़िम्मेदारियाँ भी निबाहीं। 88-89 भारतीय ज्ञानपीठ का मुशीर। 91-92 में बिरला फ़ाउंडेशन की इलाक़ाई एवार्ड कमेटी का कनवीनियर रहा। इस के अलावा नेशनल मेयार के एवार्ड देने वाली कई कमेटियों से मैं मुनसलिक रहा।

सवाल-- इन दिनों आपकी मसरूफ़ियत के क्या हाल हैं
जवाब-- बहुत मसरूफ़ हूँ। हिन्दी ग़ज़ल पर बोलने के लिए अपने मुल्क के शहरों के अलावा मुल्क से बाहर जाकर भी तक़रीर करना पड़ती है। इस के अलावा इक और मेरा महबूब सबजेक्ट है सूफ़ीइज़्म। इस पर भी मेरी अच्छी स्टडी है। इस उनवान पर भी मुझे बोलने के लिए अक्सर मदऊ किया जाता है। मेरा एक शे'र है,

सच बोलना था इसलिए सच बोलते रहे
देखा नहीं कि कौन कहाँ है खड़ा हुआ

बस इसी उसूल को अपना रखा है। बड़े-बड़े जलसों में, बड़े-बड़े लोगों के सामने सच्चाई बयान करता हूँ।

सवाल-- हिन्दी और उर्दू ज़ुबानों के आपसी रिशतों के बारे में आपके क्या ख्यालात हैं।
जवाब- मैं बुनियादी तौर पर इन दोनों ज़ुबानों को एक ही मानता हूँ। मुंशी प्रेम चन्द की तरह मेरा भी कहना है कि जिस ज़ुबान के फ़ाइल और मफ़ऊल में कोई फ़र्क़ न हो वो दो कैसे हो सकती हैं।

सवाल-- मौजूदा हालात और अदब के बारे में आपकी क्या राय है।
जवाब-- उर्दू के साथ ही भारत की दूसरी ज़ुबानों में भी अच्छा अदब तखलीक़ हो रहा है। इसकी पहचान भारतीय साहित्य की शक्ल में होना चाहिए। हमें भी ये पहचान बनाने के लिए पूरी कोशिश करना चाहिए। अगर हम इसमें कामयाब हो गए तो हमारा साहित्य दुनिया में सबसे ऊपर होगा।

सवाल - आजकल दहशतगर्दी की बहुत बातें हो रही हैं। इसके ख़ात्मे का कोई नुस्खा कोई सूरत आपकी नज़र में।
जवाब-- मेरी नज़र में इसके खात्मे की एक सूरत है'सूफ़ीइज़्म'। हमें चाहिए कि हम इस का प्रचार-प्रसार करें। इसका तअल्लुक़ सभी मज़ाहिब से है और ये सारे मज़ाहिब और उनके मानने वालों को जोड़ता है।

सादिक़ साहब आज हमने आपका काफ़ी वक़्त ले लिया। हम बातों में ऎसे मसरूफ़ हुए कि आपसे आपका कलाम सुनना भी भूल गए। आप अपनी कुछ ताज़ा ग़ज़लें हमें भेजिएगा जिन्हें हम भी पढ़ेंगे और वेबदुनिया के देखने वालों को भी उन्हें पढ़ने का मौक़ा देंगे। आपका शुक्रिया।