सोमवार, 23 दिसंबर 2024
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‘लॉकडाउन’ में दो शहरों के ‘चर‍ित्र की कहानी’… दुबई की जुबानी

‘लॉकडाउन’ में दो शहरों के ‘चर‍ित्र की कहानी’…  दुबई की जुबानी - Lockdown
कोरोना महामारी ने पूरी मानवता के सामने अजीब सा संकट पैदा कर दिया है। आज हम जिन परिस्थितियों से जूझ रहे हैं, उसके बारे में बड़े से बड़े चिंतक ने भी कभी कल्पना नहीं की थी। क्या कोरोना वायरस एक जैविक हथियार है, क्या ये विश्‍व के मजबूत देशों को आर्थिक रूप से तोड़ देने की चीन की चाल है ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब कई सालों तक खोजे जाएंगे और चर्चा में रहेंगे।

मुझे ऐसा लगता है कि कोरोना बीमारी एक इंसान और समुदाय के रूप में हमारा कैरेक्टर टेस्ट यानी चरित्र परीक्षण भी कर रही है। एक इंसान के तौर पर हम क्या सोचते हैं, क्या बोलते हैं और क्या करते हैं इसका सबसे अच्छा परीक्षण परेशानी के दौर में होता है। मेरा जुड़ाव दो ऐसे खूबसूरत शहरों से हैं जहां ये वायरस अपनी घुसपैठ बना चुका है। एक हैं मेरा घर, मेरा इंदौर और दूसरा हैं मेरा अस्थाई ठि‍काना दुबई। महामारी के इस दौर में मेरे दिल और दिमाग में इन दो शहरों से जुड़े दो परिदृश्‍यों पर अलग-अलग चिंताएं उभरती हैं।

चलिए इंसान के चरित्र से शुरूआत करते हैं, जब भारत में लॉकडाउन की घोषणा हुई, मेरे एक मित्र और सहयोगी रहे सर ने इंदौर में अपने घर के बाहर एक तख्ती टांग दी। जिस पर लिखा था कि कोई भी घरेलू सहायक इस दौरान काम करने ना आए। मानदेय की चिंता ना करे, वेतन पूरा दिया जाएगा परंतु काम पर ना आए। ये बोर्ड देखकर बहुत अच्छा लगा, सर खरे चरित्र के व्यक्ति हैं इस बोर्ड ने मेरी इस सोच को और मजबूती दे दी। आगे जाकर जिस सख्ती से शहर में तालाबंदी हुई, घरेलू सहायक जिन्हें इंदौर में कामवाली बाई भी बोलते हैं, के आने की संभावना भी खत्म हो गई।

अब बात करते हैं दुबई की, यहां तालाबंदी प्यार से लगाई गई। स्टेप बाय स्टेप यहां गतिविधियां बंद हुई, ग्रासरी (किराना) और मेडिकल स्टोर्स यहां आज भी खुले है। जरूरी काम के लिए सरकार से ऑनलाइन परमि‍शन लेकर लोग बाहर जा सकते हैं। जिन लोगों को किसी जरूरी काम मसलन मेडिकल इमरजेंसी के लिए बाहर जाना हो मगर खुद की कार ना हो, ऐसे लोगों के लिए सरकारी बसें निशुल्क चल रही हैं, टैक्सी का किराया भी कम कर दिया गया है। ऐसे हालातों में मेरी एक पड़ोसन लगातार अपने घरेलू सहायक को काम पर बुला रही है, इसके लिए वो बिल्डिंग वॉचमैन से तू-तू, मैं-मैं कर चुकी हैं, खुद के बड़े परिवार (जिसमें दो जवान बच्चे भी शामिल हैं) के काम से होने वाली थकान का वास्ता दे चुकी है। और तो और बहस करने पर यह भी कह देती है कि हम काम नहीं करवाएंगे तो बेचारा कमाएगा कहां से।

लॉकडाउन के पहले यही देवीजी मुझे लिफ्ट में मिल गई, उस दिन अपने बेटे की कंपनी को कोस रही थी कि अभी तक कंपनी ने वर्क फार्म होम के ऑर्डर नहीं दिए हैं।

मेरा बेटा रोज ऑफिस जाता है। काश, वो आंटी समझ पाती कि उनके बेटे की तरह ही सफाई करने वाला लड़का भी किसी का बेटा है, इसकी जान भी किसी मां के लिए बहुत कीमती है। खैर कोरोना के मामले में तो हर एक का संक्रमण से बचा रहना, सबके बचे रहने के लिए जरूरी है।

अब बात करते हैं सामूहिक चरित्र की।

जिन आंटी के बारे में मैंने जिक्र किया वो महिला और इंदौर के जिन वरिष्ठ सहयोगी की समझदारी का जिक्र मैंने ऊपर किया दोनो भारत में एक ही शहर और एक ही समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। मेरे वरिष्ठ सहयोगी कई साल पहले नौकरी के कारण इंदौर आए। जिन प्रौढ़ महिला के बारे में मैंने जिक्र किया कई साल पहले उनके पति की नौकरी दुबई में लग गई, वो यहां रहने लगी। अब यदि आंटी के साथ मेरे अनुभव को लेकर मैं सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणियां लिखने कहूं और कहूं कि फलां समुदाय के लोग, फलां शहर के लोग ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, ये करते हैं, वो करते हैं तो हो सकता है कि जो लोग मुझसे जुडे़ हैं, वो भी इसी तरह के मिलते-जुलते अनुभव बताने लगे। धीरे-धीरे एक सिलसिला बन जाए, उस जगह के लोगों का मजाक उड़ाने का, उनके बारे में उटपटांग कहने का।

तब क्या यह सही होगा? जब-जब हम गलत करने वाले एक व्यक्ति के कारण पूरे समुदाय पर सवाल उठाएंगे, तब तब हम सही करने वाले का नैतिक बल भी तोड़ते जाएंगे। यही गलती आज हमारी सोशल मीडिया पर हो रही हैं जो अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारी सोच और चरित्र पर सवालिया निशान लगा रही हैं। नफरत फैलाने वाले कुछ ट्वीट पर कल खाड़ी देशों में आपत्ति ली गई। आपत्ति आने के बाद ट्वीट करने वालों ने माफी मांगी और अपने अकाउंट ही डिलीट कर दिए।

माफी मांगना इस बात का प्रमाण हैं कि पोस्ट में कुछ गलत था। हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां प्रोपेगंडा खड़ा करना बहुत आसान हैं ऐसे में सच के प्रति हमारी निष्ठा का महत्व और बढ़ जाता हैं। मैं सच लिखने और सच बोलने की समर्थक हूं। जो सच हैं वो लिखा जाना चाहिए, बोला जाना चाहिए और बार-बार बोलना चाहिए। यदि हम अपने सच को प्रभावी और आकर्षक बनाने के लिए झूठ के लिबास पहना देंगे तो हमारा सच छुप जाएगा और झूठ नजर आएगा। बेहतर होगा कि कोरोना से संभलने के साथ हम अपने चरित्र और इंसानियत को भी संभालते चले।