कृष्ण,
तुम्हें शब्दों में बांधना वैसा ही है
जैसे आकाश को हथेली में भरने की कोशिश,
जैसे सागर को प्यास की परिभाषा में समेटना,
जैसे प्रकाश को केवल दीपक तक सीमित कर देना।
तुम जन्म लेते हो
मथुरा की उस अंधेरी रात में
जब दीवारों पर बंद कारागार की नमी थी,
और आकाश पर बादलों का भारी साया।
तुम्हारे रोने की पहली ध्वनि
मानो अन्याय के सीने में पहला तीर हो,
जिसने अत्याचार की नींद तोड़ी।
गोकुल की गलियों में
तुम्हारी हंसी,
गायों की घंटियों की झंकार में घुलकर
एक नए युग की शुरुआत करती है।
यशोदा की गोदी में झूलते हुए
तुम्हारी आंखों में जो चमक है,
वह बताती है
दैवीयता, बालपन में भी खेल सकती है।
तुम केवल माखन चुराने वाले
शरारती बालक नहीं,
तुम वह हो
जो हर चोरी में प्रेम बांटते हो,
हर शरारत में जीवन की
सहजता सिखाते हो।
तुम्हारे हाथों में गोवर्धन पर्वत उठता है,
पर तुम्हारी मुस्कान कहती है
'शक्ति का उद्देश्य रक्षा है, प्रदर्शन नहीं।'
राधा तुम्हारे नाम का वह स्वर है
जो मौन में भी सुना जा सकता है,
गोपियां तुम्हारे चारों ओर नृत्य करती हैं,
पर तुम्हारी दृष्टि,
हर आत्मा को उसके
अपने प्रेम में लौटा देती है।
तुम मथुरा लौटते हो,
कंस के सामने खड़े होते हो
सिर्फ मामा और भांजे का
संवाद नहीं,
यह है अधर्म और धर्म का टकराव।
तुम विजय पाते हो,
लेकिन प्रतिशोध नहीं,
तुम मुक्ति देते हो।
द्वारका तुम्हारा राज्य है,
पर तुम्हारी गद्दी
सिंहासन से अधिक
जनता के हृदय में है।
तुम कूटनीति में निपुण हो,
पर तुम्हारी हर योजना के पीछे
मानवता की रक्षा है,
न कि सत्ता की प्यास।
कुरुक्षेत्र में
तुम रथ के सारथी हो,
पर वास्तव में
अर्जुन के संशय के सारथी भी हो।
गीता के श्लोकों में
तुम जीवन का वह विज्ञान देते हो
जो समय, स्थान और युग से परे है।
तुम सिखाते हो
'कर्तव्य ही जीवन है,
फल की चिंता व्यर्थ है।'
यादव वंश का अंत देखना,
अपने ही लोगों का पतन देखना
यह भी तुम्हारी कथा का हिस्सा है।
पर तुम टूटते नहीं,
क्योंकि तुम्हें पता है
कि देह मिट सकती है,
पर सत्य और धर्म शाश्वत हैं।
कृष्ण,
तुम में मैं देखता हूं
एक बालक की निश्छलता,
एक मित्र की निष्ठा,
एक नेता की दूरदृष्टि,
एक दार्शनिक की गहराई,
और एक योगी की स्थिरता।
तुम वह हो
जो युद्धभूमि में भी
शांति बांट सकते हो,
जो प्रेम में भी विरक्ति का
ज्ञान दे सकते हो,
जो हँसी में भी जीवन का रहस्य
छुपा सकते हो।
कृष्ण,
तुम पर लिखना,
दरअसल खुद को लिखना है
क्योंकि तुम हर मनुष्य के भीतर हो।
कभी मासूम बालक बनकर,
कभी मार्गदर्शक गुरु बनकर,
कभी प्रेम का रस बनकर,
कभी सत्य की तलवार बनकर।
तुम्हें परिभाषित करने के लिए
मुझे न तो शब्द पर्याप्त मिलते हैं,
न ही भाव।
क्योंकि तुम वही हो
सर्वकालिक, सर्वव्यापी,
भावातीत, अपरिभाषित।
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