21 अप्रैल की सुबह पाल साब की मौत हो गई।
पाल साहेब मेरे पड़ोसी थे, मैं उनको नहीं जानता था, जब भी घर से निकलता था तो देशभक्ति और जनसेवा वाले रंग से पुती हुई एक तख़्ती पर उनका नाम लिखा नज़र आता था- टीआई यशवंत पाल।
मैं उनकी पत्नी मीना पाल को बहुत पहले से जानता था, जब नईदुनिया मे रिपोर्टर था तो उनकी पत्नी देवास जिले में तहसीलदार थीं, वे देवास के एक क्षेत्र में खनन माफियाओं पर कार्रवाई करने गयीं थी तो माफियाओं ने डंपर के साथ उनका पीछा कर उन पर हमला किया था, जंगल मे भागकर उन्होंने माफियाओं से अपनी जान बचाई थी। यह ख़बर और फोटो सभी अखबारों में पहले पेज पर छपा था। मैंने देवास से इस खबर का लंबे समय तक फॉलोअप किया था। तब सरकारी अधिकारियों पर खनन माफियाओं के हमले बहुत आम थे।
पाल मैडम से वर्जन लेने के लिए मैं कई बार फोन पर बात कर चुका था, लेकिन देखा नहीं था। एक दिन वे मेरे घर के पास नज़र आईं, यशवंत पाल लिखी हुई तख़्ती के ठीक सामने। उस दिन पता चला वो यशवंत पाल की पत्नी हैं।
पाल मैडम को पता था कि मैं पत्रकार हूं इसलिए वे मुझसे ज्यादा बात नहीं करती, थोड़ी उखड़ी हुई ही रहती थी। लेकिन पाल साहब बगैर परिचय के ही देखकर हर बार ऐसे मुस्करा देते जैसे लंबे वक्त से जानते हो। पुलिस की नौकरी में होते हुए भी बेहद सौम्य और सरल। देखकर लगता नहीं कि दिन रात अपराधियों से निपटते होंगे। हम उन्हें नमस्ते करें उसके पहले ही वो जय हिंद बोल कर गर्दन झुका देते थे।
मौत के 15 दिन पहले उन्होंने अपने घर के गेट पर लाइट लगवाई थी। घर की पुतवाई करवाई। बहुत सारे पौधें और फूलों के प्लांट खरीदे। उन्हें दीवार पर रखकर सजाया। पूरा घर व्यवस्थित करवाया। लगता था वे सरकारी क्वार्टर में रहते हुए थक गए थे, अब वे इत्मिनान से अपने इस घर में रहना चाहते थे, शायद इसलिए ही घर को दुरुस्त करवाया होगा।
लेकिन यह ख़्याल आने के बाद वे एक दिन भी इस घर में नहीं गुजार सके। अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ आइसोलेट हुए थे, लेकिन 21 अप्रैल को सिर्फ उनकी पत्नी मीना पाल और दो छोटी बेटियां घर वापस लौटीं। रोटी बिलखती। एक उदास वर्तमान में अनिश्चित भविष्य को ताकती हुईं।
इन तीन स्त्रियों की ज़िंदगी में इस अकेले पुरुष को अंतिम समय में भी वे देख नहीं सकीं, छू नहीं सकीं, दुलार नहीं सकीं।
इस वायरस की सबसे बड़ी त्रासदी संभवतः यही है, कि वो हमें प्रिजर्व करने के लिए वो अंतिम विदा भी नहीं देता, अंतिम क्षण भी नहीं देता। अन्तयेष्टि या कॉफिन की तरफ मुड़कर देखने का मौका भी नहीं देता। हम उनकी चिता की लौ भी आंखों में नहीं रख सकते।
इस वक़्त रात के डेढ़ बजे यशंवत पाल के नाम से चस्पा इस घर में तीन स्त्रियां अकेली सुबक रही हैं, या नींद में उनकी गर्दनें झुककर लटक गईं है या वे शून्य में ताक रही हैं, यह देखने या दर्ज करने वाला कोई होशमंद भी उनके पास नहीं है।
मैं पाल साब के प्रवेश द्वार पर लगी उनके नाम की तख़्ती के बारे में सोच रहा हूं। उस तख़्ती के नहीं होने पर उसके बगैर पीछे छूट चुके तीन नामों का अस्तित्व क्या और कैसा होगा?
यह सब सोचकर मेरी आत्मा का स्वाद बिगड़ जाता है।