मंदिर निर्माण का श्रेय इतिहास में किसके नाम दर्ज होगा?
चौबीस जुलाई के दिन जब लगभग पांच लाख की आबादी वाले अयोध्या में मंदिर निर्माण के भूमि पूजन की तैयारियों के साथ-साथ शहर की कोई बीस मस्जिदों में मुस्लिम शुक्रवार की नमाज़ पढ़ते रहे थे, भारतीय जनता पार्टी और पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापकों में से एक 92 वर्षीय लाल कृष्ण आडवाणी दिल्ली से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए लखनऊ की एक सीबीआई अदालत के समक्ष अपने बयान दर्ज करवा रहे थे। राम मंदिर आंदोलन के जनक आडवाणी जब तीस वर्ष पूर्व (25 सितम्बर 1990) मंदिर निर्माण के लिए संघर्ष के रथ पर सवार होकर सोमनाथ से निकले थे, किसी ने भी ऐसी कल्पना नहीं की होगी कि आगे चलकर किसी अदालत के समक्ष वे यह कहना चाहेंगे कि बाबरी ढांचे के विध्वंस की कारवाई में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी?
मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक़, आडवाणी से करीब साढ़े चार घंटों तक पूछे गए कोई हज़ार से ऊपर सवालों के जवाब का सार यही रहा कि 6 दिसम्बर 1992 को वे अयोध्या में एक कार सेवक की हैसियत से उपस्थित अवश्य थे पर बाबरी ढांचे को गिराए जाने की कारवाई में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी। इस सवाल के जवाब में कि तब उनका नाम भी घटना के आरोपियों की सूची में क्यों शामिल किया गया, उनका जवाब था (केंद्र में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा ) 'राजनीतिक कारणों’ से।
उनके एक दिन पूर्व डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने भी अपने कथन में वही कहा था जो आडवाणी ने कहा। केवल आडवाणी और डॉ जोशी ही नहीं, वरिष्ठ भाजपा नेत्री उमा भारती और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी कथित तौर पर अदालत से यही कहा कि केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक बदले की भावना से उन पर बाबरी के विध्वंस का आरोप मढ़ा गया था।
सवाल यह है कि कोई एक सौ पैंतीस वर्षों की अदालती जद्दो-जहद, इतने लम्बे संघर्ष और हज़ारों लोगों के बलिदानों के बाद कल (5 अगस्त को) अपरान्ह बारह बजकर पंद्रह मिनट पंद्रह सेकंड पर उपस्थित होने वाले उस चिर-प्रतीक्षित क्षण के जब आडवाणी सहित ये तमाम नेता प्रत्यक्ष अथवा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए साक्षी बनेंगे, तब क्या हृदय के अंदर भी वैसा ही अनुभव करेंगे जैसा कि कथित तौर पर लखनऊ की सीबीआई अदालत में उनके द्वारा दर्ज कराया गया है, या कुछ भिन्न महसूस करेंगे? अगर गर्व के साथ भिन्न महसूस करना चाहेंगे तो फिर विवादित ढांचे के विध्वंस में अपने भी योगदान का दावा क्यों नहीं करना चाहते? उस अवसर पर रिकार्ड किए गए भाषणों व चित्रों की वीडियो क्लिपिंग्स, प्रकाशित अखबारी रिपोर्ट्स व अन्य दस्तावेज क्या सभी असत्य हैं और राजनीतिक बदले की भावना से तैयार किए गए थे?
देश की जनता के हृदय में इस तरह का सोच मात्र भी कल्पना से परे होगा कि आडवाणी, डॉ जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह या कोई भी अन्य भाजपा नेता-कार्यकर्ता मंदिर निर्माण के कार्य में अपने बड़े से बड़े बलिदान में पल भर का भी कभी संकोच करेंगे। तब क्या कारण हो सकता है कि आडवाणी और तमाम नेता उस श्रेय को लेने से इनकार कर रहे हैं जिसके वे पूरी तरह से हक़दार हैं? क्या ऐसा मान लिया जाए कि बाबरी का विध्वंस एक अलग घटना थी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने फ़ैसले के ज़रिए मंदिर-निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया जाना एक अलग घटना।
दोनों के श्रेय के हक़दार भी अलग-अलग हैं? दोनों के बीच सम्बंध है भी और नहीं भी! हो सकता है कि केंद्रीय नेतृत्व बाबरी विध्वंस के साथ एक पार्टी के रूप में भाजपा की किसी भी तरह की संबद्धता नहीं चाहता हो और उसे विश्व हिंदू परिषद आदि संगठनों के मार्गदर्शन में की गई स्वतंत्र कार्रवाई निरूपित करना चाहता हो! और इसके ज़रिए देश-दुनिया के मुस्लिमों को भी कोई ‘सकारात्मक’ संदेश देना चाहता हो! तब क्या देश के वे तमाम नागरिक जो इतने वर्षों से एक निरपेक्ष भाव से अपनी आँखों के सामने सब कुछ घटित होता देखते रहे हैं वे भी ऐसा ही स्वीकार करने को तैयार हो जाएंगे?
भाजपा नेतृत्व की मंशा का सम्बंध क्या इस बात से भी जोड़ा जा सकता है कि आडवाणी द्वारा अपना कथन दर्ज कराने के एक दिन पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और अयोध्या केस के एक प्रसिद्ध अभिभाषक तथा भाजपा सांसद भूपेन्द्र यादव ने कथित तौर पर पूर्व उप-प्रधानमंत्री से भेंट की थी? तब क्या ऐसा मुमकिन है कि आडवाणी का पहले मूल सोच उनके द्वारा सीबीआई अदालत में दर्ज कराए कथन से भिन्न रहा हो? ऐसा होने की स्थिति में क्या ऐसा असम्भव होता कि मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन की पूर्व संध्या पर आडवाणी का किसी भी आशय का ‘अन्य कथन’ राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन जाता (आश्चर्यजनक रूप से उनके द्वारा सीबीआई अदालत में दर्ज कराए गए कथन पर कोई राष्ट्रीय बहस नहीं हुई) और अयोध्या में मनने जा रहे पर्व पर उपस्थित होने वाले चेहरों की चमक को प्रभावित कर देता।
अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर की स्थापना के अपने प्रयासों के तहत आडवाणी द्वारा बाबरी ढांचे के विध्वंस में अपनी भूमिका को लेकर दर्ज कराए गए कथन के बाद क्या इस बात पर थोड़ा-बहुत खेद व्यक्त किया जा सकता है कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचकर भी आडवाणी ने उस संतोष और श्रेय को प्राप्त करने से अपने आप को ‘स्वेच्छापूर्वक’ वंचित कर लिया जिसके लिए वे इतने वर्षों से संघर्ष कर रहे थे और शायद प्रतीक्षा भी! मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने का श्रेय इतिहास में फिर किसके नाम दर्ज किया जाना चाहिए? इस सवाल का आधिकारिक उत्तर क्या अनुत्तरित ही रह जाएगा? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)