जनहित याचिका
विजयशंकर चतुर्वेदी
न्यायाधीश,न्याय की भव्य-दिव्य कुर्सी पर बैठकरतुम करते हो फैसला संसार के छल-छद्म कादमकता है चेहरा तुम्हारा सत्य की आभा से।देते हो व्यवस्था इस धर्मनिरपेक्ष देश में।जब मैं सुनता हूँ दिन-रात यह चिल्लपों-चीख पुकार। अधार्मिक होने के लिए मुझ पर पड़ती है समाज की जो मारउससे मेरी भावनाओं को भी पहुँचती है ठेस,मन हो जाता है लहूलुहान।
न्यायाधीश, इसे जनहित याचिका मानकरजल्द करो मेरी सुनवाई।सड़क पर, दफ्तर या बाजार जाते हुएमुझे इंसाफ की कदम-कदम पर जरूरत है।