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चाँदनी की रश्मियों से चित्रित छायाएँ
रविवार,अक्टूबर 11, 2009
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शुक्रवार,नवंबर 7, 2008
मुझे आने दो हँसते हुए अपने घर
एक बार मैं पहुँचना चाहता हूँ
तुम्हारी खिलखिलाहट के ठीक-ठीक करीब
जहाँ तुम मौजूद हो पूरे घरेलूपन के साथ...
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शुक्रवार,नवंबर 7, 2008
तुम वे फूल चढ़ा सकती थीं मंदिर में
या खोंस सकती थीं जूड़े में
मगर रख आईं समंदर किनारे रेत पर मेरा नाम खोदकर....
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शुक्रवार,नवंबर 7, 2008
झाँझ बजती है तो बजे
मँजीरे खड़कते हैं तो खड़कते रहें
लोग करते रहें रामधुन
पंडित करता रहे गीता पाठ मेरे सिरहाने
नहीं, मैं ऐसे नहीं जाऊँगा।
आखिर तक बनाए रखूँगा भरम
कि किसके नाम है वसीयत
किस कोठरी में गड़ी हैं मुहरें
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शुक्रवार,नवंबर 7, 2008
बाबा की खिड़की से
हवा चली आती है दरख्तों के चुंबन ले
रात-बिरात पहचान में आती हैं ध्वनियाँ
मिल जाती है आहट आनेवाले तूफान की
अंधेरे- उजाले का साथी शुक्रतारा दिखाई देता है यहाँ से
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शनिवार,अक्टूबर 25, 2008
चेहरे थे तो दाढ़ियाँ थीं
बूढ़े मुस्कुराते थे मूछों में
हर युग की तरह
इनमें से कुछ जाना चाहते थे बैकुंठ
कुछ बहुओं से तंग़ थे चिड़चिड़े
कुछ बेटों से खिन्न
पर बच्चे खेलते थे इनकी दाढ़ी से
और डरते नहीं थे ....
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शुक्रवार,अक्टूबर 17, 2008
गाँठ से छूट रहा है समय
हम भी छूट रहे हैं सफर में
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शनिवार,अक्टूबर 11, 2008
पहला तीखा बहुत खाता था इसलिए मर गया
दूसरा मर गया भात खाते-खाते
तीसरा मरा कि दारू की थी उसे लत
चौथा नौकरी की तलाश में मारा गया
पाँचवें को मारा प्रेमिका की बेवफाई ने .....
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शनिवार,अक्टूबर 11, 2008
बहुत गुजरना है समय
दसों दिशाओं को रहना है अभी यथावत
खनिज और तेल भरी धरती
घूमती रहनी है बहुत दिनों तक
वनस्पतियों में बची रहनी हैं औषधियाँ ...
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शुक्रवार,अक्टूबर 3, 2008
कपास के ये नन्हें पौधे क्यारीदार
जैसे असंख्य लोग बैठ गए हों
छतरियाँ खोलकर
पौधों को नहीं पता
उनके किसान ने कर ली है आत्महत्या...
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शुक्रवार,अक्टूबर 3, 2008
अंतरिक्ष में बसी इंद्र नगरी नहीं
न ही पुराणों में वर्णित कोई ग्राम
बनाया गया इसे मिट्टी के लोंदों से
राजा का किला नहीं
यह नगर है बिना परकोटे का.....
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शुक्रवार,सितम्बर 26, 2008
मैं सोचता था
पानी उतना ही साफ पिलाया जाएगा
जितना होता है झरनों का
चिकित्सक बिलकुल ऐसी दवा देंगे
जैसे माँ के दूध में तुलसी का रस
मैं जहर खाने जाऊँगा....
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शनिवार,सितम्बर 20, 2008
जिनकी चली जाती है नौकरी पाने की उम्र
उनके आवेदन पत्र पड़े रह जाते हैं दफ्तरों में
तांत्रिक की अँगूठी भी ग्रहों में नहीं कर पाती फेरबदल
नहीं आता बरसोंबरस कहीं से कोई जवाब...
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शनिवार,सितम्बर 20, 2008
न्यायाधीश,
न्याय की भव्य-दिव्य कुर्सी पर बैठकर
तुम करते हो फैसला संसार के छल-छद्म का
दमकता है चेहरा तुम्हारा सत्य की आभा से।
देते हो व्यवस्था इस धर्मनिरपेक्ष देश में...
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शनिवार,सितम्बर 13, 2008
बारिश है
या घना जंगल बाँस का
उस पार एक स्त्री बहुत धुँधली
मैदान के दूसरे सिरे पर झोपड़ी
जैसे समंदर के बीच कोई टापू....
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शनिवार,सितम्बर 13, 2008
कदम आते हैं घिसटते हुए
लटपटाते हुए कदम आते हैं
कदम आते हैं बूटदार
खड़ाऊदार कदम आते हैं...
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शुक्रवार,सितम्बर 12, 2008
आती थीं ऐसी चिट्ठियाँ
जिनमें बाद समाचार होते थे सुखद
अपनी कुशलता की कामना करते हुए
होती थीं हमारी कुशलता की कामनाएँ....
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शनिवार,सितम्बर 6, 2008
बाढ़ में फँसने पर
वैसे ही बिदकते हैं पशु
जैसे ईसा से करोड़ साल पहले।
ठीक वैसे ही चौकन्ना होता है हिरन
शेर की आहट पाकर...
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कितने ईसा
कितने बुद्ध
कितने राम
कितने रहमान
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शनिवार,जुलाई 12, 2008
बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़
उनके हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता
वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर में
वे बुद्घि के ढेर
इंद्रियाँ झकाझक उनकी
सर्दी-खाँसी से परे
ट्रेन से कटकर नहीं मरते
रहते हैं पत्थर में बनकर प्राण
कभी नहीं उठती उनके ...
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