- लाइफ स्टाइल
» - साहित्य
» - विजयशंकर की कविताएँ
बारिश में स्त्री
विजयशंकर चतुर्वेदी बारिश हैया घना जंगल बाँस काउस पार एक स्त्री बहुत धुँधलीमैदान के दूसरे सिरे पर झोपड़ीजैसे समंदर के बीच कोई टापूवह दिख रही है योंजैसे परदे पर चलता कोई दृश्यजैसे नजर के चश्मे के बगैर देखा जाए कोई एलबमजैसे बादलों में बनता है कोई आकारजैसे पिघल रही हो बर्फ की प्रतिमाघालमेल हो रहा है उसके रंगों मेंऊपर मटमैला
नीचे लालबीच में मटमैला-सा लालस्त्री निबटा रही है जल्दी-जल्दी कामबेखबरकि देख रहा है कोई चली गई है झोपड़ी के पीछे
बारिश हो रही है तेजतरजैसे आत्मा पर बढ़ता बोझनशे में डोलता है जैसे संसारपुराने टीवी पर लहराता है जैसे दूरदर्शन का लोगोदृश्य में हिल रही है वह स्त्रीमाँज रही है बर्तन उलीचने लगती है बीच-बीच मेंघुटने-घुटने भर आया पानीतन्मयता ऐसी किकब हो गई सराबोर सर से पाँव तकजान ही नहीं पाईअंदाजा लगाना है फिजूलकि होगी उसकी कितनी उम्रलगता है कि बनी है पानी ही कीकभी दिखने लगती है बच्चीकभी युवतीकभी बूढ़ीशायद कुछ बुदबुदा रही है वहया विलाप कर रही है रह-रह करमैदान में बारिश से ज्यादा भरे हैं उसके आँसूथोड़ी ही देर में शामिल हो गई उसकी बेटीफिर निकला पति नंगे बदनहाथ में लिए टूटा-फूटा तसलावे चुनौती देने लगे सैलाब कोजो घुसा चला आता था ढीठ उनके संसार में
बारिश होती गई तेजतरतीनों डूबने-उतराने लगे दृश्य मेंजैसे नाविक लयबद्ध चप्पू चलाएँऔर महज आकृतियाँ बनते जाएँमैं ढीठ नजारा कर रहा था परदे की ओट सेतभी अचानक जागा गँदले पानी की चोट सेइस अश्लीलता की सजाआखिरकार मिल ही गई मुझे।