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Written By ND

मैं और मेरा स्थायी विपक्ष

-डॉ. आशीष कुमार जैन

मैं और मेरा स्थायी विपक्ष -
'निन्दक नियरे राखिए....' से प्रेरित होकर मेरे परिवार वालों ने मेरा विवाह इस सुकुमारी से कर दिया। इस बात को दस वर्षों से अधिक हो गए। आज तक इस 'गठबंधन धर्म' के पालन मे सैकड़ों समझौते किए हैं। इतने सालों के अनुभव से मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि दोहा लिख देने से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है दोहे पर जीवन का अनुसरण करना। गत दस वर्षों से यह सुकुमारी मेरे जीवन में स्थायी विपक्ष की भूमिका निभा रही है। घर संसद बन गया है। और राजनीति जोरों पर है। रोज नए दाँव खेले जाते हैं और रोज नए पैतरे बदले जाते हैं। अजब प्रेम की गजब कहानी।

मैं स्वयं को इस घर की राजनीति में सत्ता पक्ष का दर्जा देता हूँ। मजेदार बात यह है कि श्रीमतीजी की भी यही राय है स्वयं अपने बारे में। विरोध यहीं से शुरू होता है... गद्दी का सवाल है भई!! विवाद किसी न किसी बात पर आए दिन हो ही जाता है। हमारे घर संसद सत्र बारहों महीने चलता है। न कोई छुट्टी, न कोई अवकाश। यहाँ तक कि कोई छोटा या बड़ा नेता भी मर जाए तो भी दो मिनट तक का मौन नसीब में नहीं। अपने यहाँ बहस के लिए मुद्दों की आवश्यकता नहीं होती... उनके निरर्थक तर्कों को शांत करने के उद्देश्य से मैंने कहा। उनके तीखे नयनों ने मुझे इस तरह घूरा मानो कह रही हो सदन में हो रही किसी बहस के लिए मुद्दों के होने की क्या आवश्यकता? बहस अपनी जगह है और मुद्दे अपनी जगह।

हमारा विवाह संजय गाँधी के मरने के बाद हुआ था इसलिए हमने बिना किसी दबाब या धमकी से 'हम दो हमारे दो' को अंगीकृत किया और इसी के विज्ञापन की तरह कृत्रिम मुस्कराहट लिए एक फोटो हम चारों ने खिंचवाया था। दीवार पर टँगी फोटो की धूल को साफ करें तो बच्चों की मासूम शक्लें दिखाई देती हैं और उनकी यह मासूमियत, अफसोस, सिर्फ फोटों में ही दिखाई देती है।

दरअसल ये शातिर अपनी भूमिकाएँ बदलने मे ऐय्यारों को भी मात दे दें। दल बदलू कहीं के। कभी अपनी बात मनवानी हो तो स्पीकर, ना मानो तो मार्शल बनकर मुझे धक्का देकर कमरे से निकाल देते हैं। और तो और पत्रकार बनकर घर की बातें पड़ोसियों को भी चटखारे ले कर सुनाते हैं। उस दिन मैंने क्या सुना कि छोटा वाला 'सनसनी' की नकल उतारकर पड़ोसिनों को सुना रहा था हम जिसे अपना बाप समझते हैं वो दरसल एक वहशी दरिंदा है... फिर क्या था, मेरे क्रोध की कोई सीमा नहीं रही। मेरा खून खोलने लगा... मानो साक्षात 'इमरजेंसी' गाँधी की आत्मा मेरे अंदर प्रवेश कर गई हो। आव देखा ना ताव दिए दो घुमा के कान के नीचे। गाल लाल हो गए और असली आँसू गिरने लगे। पर मुझे आज भी शक है कि उसे जितना जोर से लगे थे उससे कहीं ज्यादा जोर से वह रो रहा था।

माँ से विरासत में मिली राजनीति रंग लाई। मुझे घेरने की तैयारी शुरू हो गई। पड़ोसियों के रूप बदले...मानवाधिकारों की बातें होने लगीं। घर में लीबिया जैसे हालात हो गए। विपक्ष बात करने को राजी नहीं था। श्रीमतीजी ने जाटों से प्रेरित होकर घर में घुसने और बाहर निकलने के सारे रास्ते जाम कर दिए। मेरे विरुद्घ विशेषाधिकार प्रस्ताव लाने की तैयारी होने लगी। लोकतंत्र में स्वतंत्र 'प्रेस' पर हमले से सभी बौखला गए थे। ये बात अलग है कि वो पत्रकार जो मन में चाहे ऊलजलूल किस्से बनाएँ। मैंने सार्वजनिक रूप से सदन मे अपनी गलती स्वीकार की। कभी-कभी ये कदम 'कमजोर' लोगों के लिए राजनीतिक रूप से सही होता है, फिर चाहे वो देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो।

खैर, बात आई गई हो गई, किसी उच्च स्तरीय कमेटी की रिपोर्ट की तरह। यह जीवन भी कबीर के दोहों की तरह है, सुनने में मधुर और सरल, पर अगर असली जिंदगी में उस पर अमल करो तो सिर चकरा जाए। मेरा विपक्ष दरसल स्थायी नहीं है... वह तो घूमता रहता है... चक्की के पाट की तरह और मैं उसमें पिसे जा रहा हूँ। ये कबीर ने मुझ जैसों के लिए ही लिखा था- दुइ पाटन के बीच में साबुत बचा न कोई...कहा था न दोहे पर जीवन का अनुसरण खतरनाक हो सकता है।