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Written By DW
Last Updated : बुधवार, 30 मार्च 2022 (11:31 IST)

बंगाल की राजनीति से हिंसा का साथ नहीं छूटता

बंगाल की राजनीति से हिंसा का साथ नहीं छूटता - Violence does not leave Bengal's politics
रिपोर्ट : प्रभाकर मणि तिवारी
 
पश्चिम बंगाल में राजनीति और हिंसा का साथ 70 के दशक से शुरू हुआ। हिंसा में पार्टियां और चेहरे तो बदलते रहे हैं, लेकिन हिंसा का स्वरूप नहीं बदला है। यहां की राजनीति में किसी खानदानी झगड़े की तरह हिंसा की विरासत पल रही है। राज्य के बीरभूम जिले में बीते सप्ताह जो भयावह हादसा हुआ वह राजनीतिक हिंसा के खांचे में भले पूरी तरह फिट नहीं बैठती हो, लेकिन यह राजनीति और अपराध के घालमेल का एक और सबूत बनकर उभरी है।
 
बीते एक दशक में या फिर ममता बनर्जी की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद यह पहला सामूहिक हत्याकांड है। इसने जहां ममता और उनकी सरकार को बैकफुट पर धकेल दिया वहीं इसने विपक्ष को उनके खिलाफ एक मजबूत हथियार भी दे दिया है।
 
यह घटना दरअसल राज्य की राजनीति में वर्चस्व, इलाकों पर कब्जे और कमाई के संसाधनों पर पकड़ बनाए रखने की पुरानी और लगातार चलने वाली लड़ाई का नतीजा है। इस घटना के बाद सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी बीजेपी, कांग्रेस और सीपीएम के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर काफी आक्रामक हो गया है। इस बीच, हाईकोर्ट के आदेश पर इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई है।
 
क्या थी घटना
 
बीते सोमवार की रात को करीब साढ़े आठ बजे गांव के पास मुख्य सड़क पर ही कुछ अज्ञात हमलावरों ने बम फेंक कर तृणमूल कांग्रेस नेता और स्थानीय पंचायत के उप-प्रधान भादू शेख की हत्या कर दी। उसके कुछ देर बाद ही कुछ लोगों ने गांव में भादू के कथित विरोधियों के कम से कम 10 घर जला दिएजिसमें आठ लोगों की जल कर मौत हो गई। इस आगजनी में घायल तीन लोग अब भी अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं।
 
राजनीतिक हिंसा से यह घटना इस वजह से अलग है कि इस मामले में तमाम पीड़ित तृणमूल कांग्रेस के ही हैं। वह चाहे भादू शेख हों या फिर आग में जलकर मरने वाले लोग। मृतकों में बच्चे और महिलाएं ही ज्यादा हैं।
 
इस घटना के अगले दिन से ही मंगलवार सुबह से ही गांव से फरार होने वाले लोग अब तक लौट नहीं सके हैं। इससे पूरे गांव में खौफ और सन्नाटे का आलम है। अब गांव के लोगों से कहीं ज्यादा तादाद वहां तैनात पुलिस के जवानों की है। गांव के पास मुख्य सड़क से कुछ अंदर जाते ही रास्ते पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं ताकि कोई बाहरी व्यक्ति वहां नहीं पहुंच सके।
 
यह दृश्य कोई 15 साल पहले पूर्व मेदिनीपुर जिले के नंदीग्राम के नजारे की याद दिलाता है। वहां भी जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन के दौरान पुलिस की फायरिंग में 14 लोगों की मौत के बाद इलाके में जाने वाली सड़क को इसी तरह बैरिकेड लगा कर घेर दिया गया है।
 
इस गांवों में गए बिना इसके अपराधिक समीकरण और लोगों में खौफ की वजह को समझना संभव नहीं है। आसपास के लोगों से बातचीत में यह सामने आया है की गांव के हर घर का कोई ना कोई व्यक्ति बालू और पत्थर के अवैध खनन में शामिल था। इस गांव ही नहीं आसपास के कई गांवों की अर्थव्यवस्था भी बालू और पत्थरों की अवैध खुदाई और बिक्री पर निर्भर है।
 
रामपुरहाट बाजार में एक चाय दुकान पर बैठे निर्मल शेख बताते हैं कि बोगतुई के लोग पहले लकड़ी की तस्करी करते थे। अब बालू और पत्थर की अवैध खुदाई और बिक्री ही उनका प्रमुख धंधा है। वो बताते हैं यह सब बरसों से चल रहा है, जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर सत्तारूढ़ पार्टी के लोग ही इस काम में शामिल हैं। पार्टी बदलती है, चेहरे वही रहते हैं। पुलिस और प्रशासन सब कुछ जान कर भी आंखें मूंदे रहता है।
 
बैकफुट पर ममता
 
बंगाल में अपने 11 वर्षों के शासनकाल के दौरान बीरभूम जिले में सामूहिक हत्या की पहली घटना ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस सरकार को बैकफुट पर धकेल दिया है। लेफ्ट फ्रंट सरकार के कार्यकाल में खासकर वर्ष 2000 के बाद ऐसी जो घटनाएं हुई हैं उनको सीपीआईएम के कथित अत्याचारों के खिलाफ मुद्दा बना कर ही ममता ने टीएमसी को सत्ता के करीब पहुंचाने की राह बनाई थी। यही वजह है कि इस घटना की सूचना मिलते ही ममता बिना देरी किए डैमेज कंट्रोल की कवायद में जुट गई हैं।
 
मंगलवार सुबह घटना की जानकारी मिलते ही उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेता फिरहाद हकीम को हेलीकॉप्टर से मौके पर भेजा और पहली नजर में दोषी दो पुलिसवालों को हटा दिया। उसके बाद गुरुवार को ममता जब मौके पर पहुंची तो अपने साथ मुआवजे के चेक भी ले आई थी। एक पीड़िता ने जब कहा कि इसमें क्या होगा, हमारी जीवन भर की पूंजी भी घर के साथ जल गई है तो ममता ने फौरन यह रकम दोगुनी कर दी।
 
हिंसा की विरासत
 
पश्चिम बंगाल देश विभाजन के बाद से ही हिंसा के लंबे दौर का गवाह रहा है। विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर बंगाल में भारी हिंसा होती रही है। साल 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिन्दू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है। उसके बाद इस इतिहास में ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े।
 
दरअसल, 60 के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था। किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं।
 
1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ उसने पहले की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया। 1977 के विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन की भी वजह बनी। सत्तर के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है।
 
विभाजन, सामाजिक असमानता और वर्चस्व की लड़ाई से पनपी डाला है कि कई दशक बीतने के बाद भी यह राज्य उससे मुक्त नहीं हो पा रहा है। हिंसा किसी खानदानी झगड़े की तरह एक पीढ़ी से दूसरी और दूसरी से तीसरी या फिर एक दल से दूसरे दल में विरासत की तरह पल रही है।
 
राजनीतिक दलों के उभार के बाद बढ़ती हिंसा
 
इतिहास गवाह है कि पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ दल को जब भी किसी विपक्षी पार्टी से कड़ी चुनौती मिलती है तो हिंसा की घटनाएं तेज हो जाती हैं। यह सिलसिला वाममोर्चा और उससे पहले कांग्रेस की सरकार के दौर में जारी रहा है। इसी कड़ी में अबतृणमूल कांग्रेस को बीजेपी की तरफ से मिलने रही चुनौती और वर्चस्व की लड़ाई के कारण हिंसा की घटनाएं हो रही हैं।
 
लेफ्ट के सत्ता में आने के बाद कोई एक दशक तक राजनीतिक हिंसा का दौर चलता रहा था। बाद में विपक्षी कांग्रेस के कमजोर पड़ने की वजह से टकराव धीरे-धीरे कम हो गया था। लेकिन वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया। उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई। उसके बाद राज्य के विभिन्न इलाकों में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता की वजह से भी हिंसा को बढ़ावा मिला।
 
पहले ममता के मजबूत होने की वजह से जो हालात पैदा हुए थे वही हालात अब बीते पांच वर्षों में बंगाल में बीजेपी की मजबूती की वजह से बने हैं। अब कांग्रेस और सीपीएम के राजनीति के हाशिए पर पहुंचने की वजह से वो तो इससे थोड़े अलग हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच वर्चस्व की बढ़ती लड़ाई राजनीतिक हिंसा की आग में लगातार घी डाल रही है।
 
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर सुकुमार घोष बताते हैं कि लेफ्ट के सत्ता में आने के बाद कोई एक दशक तक राजनीतिक हिंसा का दौर चलता रहा था। बाद में विपक्षी कांग्रेस के कमजोर पड़ने की वजह से टकराव धीरे-धीरे कम हो गया था। लेकिन वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया। उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई।
 
सुकुमार घोष का कहना है कि टीएमसी के उभरने के बाद राज्य के विभिन्न इलाकों में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता की वजह से भी हिंसा को बढ़ावा मिला। उस दौरान ममता बनर्जी जिस स्थिति में थीं अब उसी स्थिति में बीजेपी है। नतीजतन टकराव लगातार तेज हो रहा है।
 
दिलचस्प बात यह है कि हिंसा के लिए तमाम दल अपनी कमीज को दूसरों से सफेद बताते हुए उसे कठघरे में खड़ा करते रहे हैं। इस मामले में मौजूदा मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी भी अपवाद नहीं हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल में सत्ता का रास्ता ग्रामीण इलाकों से ही निकलता है। ऐसे में जमीनी पकड़ बनाए रखने के लिए असामाजिक तत्वों को संरक्षण देना राजनीतिक नेतृत्व की मजबूरी है। जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर कोई भी राजनीतिक पार्टी इस मामले में पीछे नहीं है।
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