बंगाल में बीते तीन-चार दशकों के दौरान शायद ही ऐसा कोई चुनाव हो जब हिंसा व खूनखराबा नहीं हुआ हो। मौजूदा लोकसभा चुनाव भी इनका अपवाद नहीं है। यहां सरकारें बदलती रही हैं लेकिन हिंसा की परंपरा में कोई बदलाव नहीं आता है। लोकसभा चुनावों के तीसरे दौर में हुई हिंसा में एक वोटर की मौत हो गई और तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और बीजेपी के कई समर्थक घायल हो गए। इससे पहले बीते साल पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा ने पहले के तमाम रिकार्ड तोड़ दिए थे।
वैसे, बंगाल में राजनीति और हिंसा का संबंध बेहद पुराना है। देश की आजादी के पहले से ही बंगाल की राजनीति पर हिंसा का साया मंडराता रहा है। वर्ष 1946 में कलकत्ता में हुई सामूहिक हत्याएं, सत्तर के दशक की शुरुआत का नक्सल आंदोलन और बाद में लेफ्टफ्रंट सरकार के दौरान मरीचझांपी जैसे सामूहिक हत्याकांड बंगाल की राजनीति के इतिहास में बड़े कलंक के तौर पर दर्ज हैं। ऐसी घटनाओं की सूची काफी लंबी है। दिलचस्प बात यह है कि इसके लिए तमाम दल अपनी कमीज को दूसरों से सफेद बताते हुए उसे कटघरे में खड़ा करते रहे हैं। इस मामले में मौजूदा मुख्यमंत्री और सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी भी अपवाद नहीं हैं।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि हिंसा तो पहले भी होती रही हैं। लेकिन अस्सी के दशक के बाद धीरे-धीरे जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर इस पर सत्तारुढ़ पार्टी का एकाधिकार हो गया और विभिन्न परियोजनाओँ के लिए मिलने वाला धन भ्रष्ट नेताओं व अधिकारियो की जेब में जाने लगा।
राज्य में लेफ्टफ्रंट ने वर्ष 1977 में सत्ता में आने के बाद लोगों को जमीन का मालिकाना हक देने के लिए जिस आपरेशन बर्गा की शुरुआत की थी, उससे लगभग दो दशक तक उसका ग्रामीण वोट बैंक अटूट रहा। लेकिन उसके बाद भावी पीढ़ियों के बीच जमीन के बंटवारे की वजह से मिलने वाले छोटे-छोटे हिस्से पर खेती करना फायदे का सौदा नहीं रही। उसके बाद इस वोट बैंक में बिखराव नजर आने लगा। खेती लायक जमीन नहीं होने और रोजगार के अभाव ने ग्रामीण इलाकों की इस युवा पीढ़ी को राजनीति की ओर प्रेरित किया। इससे ग्रामीण समाज दो-फाड़ होने लगे। लेफ्ट के समय इस समर्थन से ही ग्रामीण इलाके की राजनीति तय होती थी। लेफ्ट का फार्मूला था कि या तो आप हमारे साथ हैं या फिर खिलाफ। तब तटस्थता नामक कोई चीज नहीं थी।
21वीं सदी के शुरुआती दौर में राज्य के केशपुर, गड़वेत्ता, गोघाट और खानूकूल जैसी जगहों पर वर्चस्व की लड़ाई में जिस हिंसा की शुरुआत हुई उसकी लपटें आगे चल कर नंदीग्राम और सिंगुर समेत दूसरे इलाकों तक पहुंचने लगीं। बंगाल की राजनीति में लेफ्ट को हाशिए पर पहुंचाने की योजना पर काम करने वाली ममता बनर्जी ने लोहे से लोहा काटने की तर्ज पर वही फार्मूला अपनाया जिसके बूते लेफ्टफ्रंट यहां दशकों तक राज कर चुका था।
1970 के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है। लेकिन राजनीतिक हिंसा का इतिहास देश की आजादी से पहले का है। उस दौरान कांग्रेस के समर्थन वाले जमींदारों के खिलाफ किसान आंदोलन होते रहे हैं। जमींदारी प्रथा खत्म होने की वजह से ही सीपीएम को राज्य में अपनी जड़ें जमाने का मौका मिला।
समाजशास्त्री आलोक बनर्जी कहते हैं, "बंगाल के युवा समाज में राजनीतिक जुड़ाव से ही सामाजिक पहचान तय होती है। छात्र राजनीति में होने वाली हिंसा से भी इस मानसिकता का पता चलता है।” वर्ष 1972 से 1977 के बीच सिद्धार्थ शंकर रे की कांग्रेस सरकार के जमाने में पहली बार बंगाल में हिंसा रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गई। वर्ष 1972 में राष्ट्रपति शासन के तहत हुए विधानसभा चुनावों में भारी धांधली की सहायता से सत्ता में पहुंची कांग्रेस ने राज्य में बड़े पैमाने पर नक्सलियों और वामपंथियों के सफाए का अभियान चलाया था।
लेफ्ट के सत्ता में आने के बाद कोई एक दशक तक राजनीतिक हिंसा का दौर चलता रहा। लेकिन ग्रामीण इलाकोम पर पकड़ मजबूत होने के बाद इसमें कुछ कमी आई थी। तब कांग्रेस भी कमजोर पड़ने लगी थी। लेकिन वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद वर्चस्व की इस लड़ाई ने नए सिरे से हिंसा को जन्म दिया। उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई।
उसके बाद राज्य के विभिन्न इलाको में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दो पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता ने एक बार फिर खून-खराबे का जो दौर शुरू किया था वह अब तक जस का तस है। उन आंदोलनों व राजनीतिक हिंसा की वजह से सीपीएम के पैरों तले की जमीन खिसकने लगी थी। उस समय ममता के मजबूत होने की वजह से जो हालात पैदा हुए थे वही हालात अब बीते पांच वर्षों में बंगाल में बीजेपी की मजबूती की वजह से बने हैं। अब कांग्रेस और सीपीएम के राजनीति के हाशिए पर पहुंचने की वजह से तृणणूल कांग्रेस व बीजेपी के बीच वर्चस्व की बढ़ती लड़ाई राजनीतिक हिंसा की आग में लगातार घी डाल रही है।
राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती सवाल करते हैं, "हर चुनाव में अगर आम लोग इस हिंसा की चपेट में आकर जान गंवा रहे हैं तो लोकतंत्र कहां हैं?” लेकिन एक अन्य विश्लेषक आलोक बनर्जी कहते हैं, "सत्ता की लड़ाई का लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है। भ्रष्ट राजनेता व नौकरशाही से साथ पंचायत स्तर से ही भारी मात्रा में धन की उपलब्धता और वोट बैंक को अटूट बने रखने की लड़ाई ही बंगाल में राजनीतिक हिंसा की प्रमुख वजहें हैं।” विशेलषकों का कहना है कि वर्चस्व की जंग के लगातार तेज होने की वजह से यहां फिलहाल हिंसा पर अंकुश लगने के आसार नहीं नजर आते।
रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता