- समीरात्मज मिश्र (इटावा से)
"चुनौती तो है ही। चुनाव में जो भी खड़ा है, उम्मीद लेकर ही खड़ा है। सभी के पास अपनी उम्मीद के आधार हैं और जीत के दावे हैं। लेकिन मुक़ाबले में कोई टिक नहीं पा रहा है क्योंकि लोगों ने पांच साल मोदी जी के काम को देखा है।"... ये कहना है इटावा सुरक्षित सीट से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार प्रोफ़ेसर रामशंकर कठेरिया का।
राष्ट्रीय एससी-एसटी कमीशन के चेयरमैन कठेरिया कड़ी धूप में सुबह की शिफ़्ट का चुनाव प्रचार करके होटल में कुछ देर के लिए विश्राम करने पहुंचे थे, जहां उनसे हमारी मुलाक़ात हुई। हमारा दूसरा सवाल था कि लोग नरेंद्र मोदी के काम पर ही वोट दे रहे हैं या फिर सांसदों के काम को भी देखा जा रहा है?
प्रोफ़ेसर कठेरिया ने जवाब में कहा कि सांसदों का भी काम देखा जा रहा है, लेकिन जवाब उन्होंने थोड़ा रुककर दिया। दरअसल, रामशंकर कठेरिया साल 2014 में आगरा सीट से बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीते थे लेकिन इस बार पार्टी ने उन्हें इटावा सीट से उम्मीदवार बनाया है।
कठेरिया के मुक़ाबले कौन?
इटावा से बीजेपी के मौजूदा सांसद अशोक दोहरे को पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो वो कांग्रेस में चले गए और कांग्रेस ने उन्हें तुरंत टिकट दे दिया। वहीं सपा-बसपा गठबंधन से सपा उम्मीदवार कमलेश कठेरिया हैं तो इस बार शिवपाल यादव की पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) ने बसपा छोड़कर आए शंभूदयाल दोहरे को मैदान में उतारा है।
इटावा समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार का गृह जनपद है। हालांकि इनका पैतृक गांव सैफ़ई मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र में आता है और परिवार के लोग वहीं मतदान करते हैं लेकिन गृह जनपद होने के नाते यह सीट पार्टी की ही नहीं बल्कि परिवार की भी प्रतिष्ठा से जुड़ी रहती है।
पिछली बार इस सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल की थी जबकि आस-पास की पांच सीटों पर 'मोदी लहर' के बावजूद समाजवादी पार्टी ही जीती थी। सुरक्षित सीट होने के नाते यहां मुलायम परिवार का कई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ा था जबकि चुनाव जीते पांचों सदस्य इसी परिवार के थे।
प्रचार में जुटे असरानी
इटावा में लंबे समय से राजनीति कवर करने वाले पत्रकार दिनेश शाक्य कहते हैं कि मुक़ाबला इस बार भी बहुत आसान नहीं है, "समाजवादी पार्टी ने हालांकि यहां के कद्दावर नेता और सांसद रहे प्रेमदास कठेरिया के बेटे को टिकट दिया है और रामशंकर कठेरिया को बाहरी उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जा रहा है। लेकिन कठेरिया ने आते ही जिस तरह से अन्य दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपने पक्ष में एकजुट करने की कोशिश की है, उससे उन्हें फ़ायदा मिल सकता है।"
साथ ही वो कहते हैं, "शिवपाल यादव की पार्टी भी चुनावी मैदान में है और उनके पास भी वही मतदाता हैं जो गठबंधन को वोट देते हैं।" रामशंकर कठेरिया के पक्ष में प्रचार करने के लिए फ़िल्म अभिनेता असरानी पिछले कई दिनों से गांव-मोहल्लों की ख़ाक छान रहे हैं। रामशंकर कठेरिया प्रसन्नता के साथ बताते हैं, "असरानी साहब पूरे चुनाव तक रहेंगे, सुष्मिता सेन भी आने वाली हैं।"
प्रोफ़ेसर रामशंकर कठेरिया कुछ दिन तक मोदी सरकार में मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री भी थे। मोदी सरकार की उपलब्धियों के बीच उनके ख़ुद के मंत्रालय की क्या ख़ास उपलब्धियां रहीं, इसके ज़्यादा आंकड़े तो उनके पास नहीं हैं लेकिन उनका मानना है कि 'आम मतदाता को ये सब पता है।'
इटावा का राजनीतिक समीकरण
बीजेपी ने रामशंकर कठेरिया का आगरा से टिकट काटकर इटावा से चुनाव लड़ने के लिए भेजा है। हालांकि कठेरिया का गृह जनपद इटावा ही है लेकिन आगरा विश्वविद्यालय में अध्यापन करने की वजह से वो लंबे समय से आगरा में ही रह रहे हैं।
2014 में बीजेपी उम्मीदवार अशोक कुमार दोहरे को 4,39,646 वोट मिले जबकि उनके निकटतम उम्मीदवार सपा के प्रेमदास कठेरिया को 2,66,700 वोट, बसपा के अजय पाल सिंह जाटव को 1,92,804 वोट और कांग्रेस के हंस मुखी कोरी को महज 13000 वोट मिले थे।
'विकास का दावा' और 'विकास का वादा' जैसे मुद्दों पर सभी उम्मीदवार भले ही वोट मांग रहे हों लेकिन सच यही है कि सभी की जीत की उम्मीदें जातीय समीकरणों पर ही टिकी हैं। जानकार बताते हैं कि इटावा लोकसभा क्षेत्र में क़रीब 17 लाख मतदाता हैं जिनमें सबसे ज़्यादा क़रीब 4 लाख दलित मतदाता हैं। उसके बाद क़रीब दो लाख ब्राहमण, दो लाख यादव और डेढ़ लाख मुस्लिम मतदाता हैं।
बसपा के साथ गठबंधन होने से सपा उम्मीदवार कमलेश कठेरिया की उम्मीदें दलित, यादव और मुस्लिम वोटों पर टिकी हैं। जबकि रामशंकर कठेरिया शिवपाल यादव की पार्टी के उम्मीदवार की मौजूदगी को अपने पक्ष में देख रहे हैं। वहीं बीजेपी का दामन छोड़कर कांग्रेस का पंजा थामने वाले अशोक दोहरे ने भी मुक़ाबले को दिलचस्प बना दिया है।
समाजवादी पार्टी का गढ़
अशोक दोहरे ने पिछले चुनाव में बीजेपी के टिकट पर बड़ी जीत हासिल करके सपा से ये सीट छीन ली थी लेकिन उनकी मज़बूती इस बात पर भी निर्भर करती है कि इस सीट पर कांग्रेस कितनी मज़बूत है। अशोक दोहरे कहते हैं, "इटावा की जनता बाहरी व्यक्ति को नहीं बल्कि स्थानीय व्यक्ति को चुनेगी। देश भर में बदलाव की बहार है और इटावा के लोग भी सरकार बदलने के लिए वोट करेंगे।"
इटावा पिछले क़रीब बीस-पच्चीस साल से एक तरह से समाजवादी पार्टी का गढ़ रहा है। 1996 से लेकर अब तक हुए लोकसभा के छह चुनावों में चार बार समाजवादी पार्टी और दो बार बीजेपी को जीत हासिल हुई है। 1991 में यहां से कांशीराम बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर जीते थे। दिलचस्प बात ये है कि कांग्रेस पार्टी अपने उस दौर में भी यहां कुछ ज़्यादा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई जब न सिर्फ़ प्रदेश बल्कि देश भर में उसकी तूती बोलती थी।
दिनेश शाक्य बताते हैं, "मुलायम परिवार की राजनीतिक मौजूदगी से पहले भी यहां समाजवादियों का अच्छा-ख़ासा प्रभाव रहा है। लोकसभा सीट पर अब तक यहां हुए 16 चुनावों में कांग्रेस सिर्फ़ चार बार जीत पाई है, वो भी 1984 तक। 1984 में कांग्रेस उम्मीदवार ने आख़िरी बार यहां से जीत हासिल की थी। कांग्रेस की मज़बूती के दौर में भी यहां सोशलिस्ट पार्टी, लोकदल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी जैसे दल विजयी होते रहे हैं।"
'सपा में सत्ता पाने की लड़ाई'
जहां तक समाजवादी पार्टी की मज़बूती का सवाल है तो इस बार शिवपाल यादव के अलग होने और ख़ुद की पार्टी बना लेने से आस-पास की क़रीब आठ सीटों पर सपा को नुक़सान होने की बात कही जा रही है लेकिन बसपा का साथ होने के कारण वह इस नुक़सान की भरपाई भी आसानी से कर ले रही है। ख़ुद शिवपाल यादव फ़िरोज़ाबाद सीट से चुनाव लड़ रहे हैं और वहां उनका मुक़ाबला अपने भतीजे और रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय कुमार से है।
प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और इटावा ज़िला कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सूरज सिंह यादव उपनिषद के एक श्लोक का उदाहरण देते हुए कहते हैं, "जहां सब महत्व की इच्छा रखते हों, उस परिवार को पतन की ओर जाना ही है। इस परिवार में हर व्यक्ति सत्ता से जुड़ा रहा या यूं कहें कि हर पद पर अपने परिवार को सौंपने की मुलायम सिंह यादव ने हमेशा कोशिश की लेकिन इसमें दरार तो पड़नी ही थी। शुरुआत सीधे तौर पर सत्ता पाने की लड़ाई से हुई और अब सीधे तौर पर आमने-सामने हैं।"
'इटावा में समाजवादी पार्टी ने किया क्या है?'
सूरज सिंह यादव का दावा है कि मुक़ाबला कांग्रेस पार्टी और बीजेपी में ही जिसमें कांग्रेस पार्टी भारी पड़ेगी लेकिन इटावा बस स्टैंड के बाहर कुछ लोगों से जब हमने बात की तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन लगा जो सूरज सिंह के दावे में था।
वहां मौजूद सुरेंद्र दीक्षित कहते हैं, "इटावा समाजवादी पार्टी का गढ़ भले ही कहा जाता हो लेकिन इटावा में इस पार्टी ने किया क्या है? आप ख़ुद देख सकते हैं। न कोई उद्योग, न स्कूल, न कॉलेज। पहले जो कुछ उद्योग थे भी, पिछले बीस-पच्चीस साल में वो सब भी बंद हो गए।"
हालांकि सुरेंद्र दीक्षित की ये शिकायत सभी राजनीतिक दलों से है लेकिन 1990 से पहले कांग्रेस सरकारों में किए गए कार्यों को वो याद करते हैं और मौजूदा दलों से उसे बेहतर बताते हैं। वहीं, उन्हीं के एक साथी राम किशोर शाक्य उन्हीं की बातों को काटते हुए कहते हैं, "सत्तर साल में कांग्रेस ने कुछ किया ही होता तो ये नौबत क्यों आती कि उसे कुछ हज़ार वोट से संतोष करना पड़ता। यहां मुक़ाबला बीजेपी और प्रसपालो (शिवपाल यादव की पार्टी) में ही है।"
बहरहाल, इटावा शहर से सटे एक गांव में कुछ महिलाओं से जब हमारी मुलाक़ात हुई तो चुनाव संबंधी सवालों पर एक बुज़ुर्ग महिला का जो जवाब था वो न सिर्फ़ इटावा की बल्कि देश के लोकतंत्र की कई परतों को उघाड़ रहा था, "पचास साल से वोट देते चले आए हैं। इससे होता क्या है, हमें नहीं मालूम। घर के लोग जहां कह देते हैं, पहले वहीं मुहर मार देते थे, अब बटन दबा देते हैं।"