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झपूर्जा कला एवं संस्कृति संग्रहालय, पुणे : ऐसी दीवानगी देखी नहीं कहीं

झपूर्जा कला एवं संस्कृति संग्रहालय, पुणे : ऐसी दीवानगी देखी नहीं कहीं - Zapurza art and culture museum
लगभग आठ एकड़ में खड़ा कर दिया दालान
पुणे को महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। ऐसा क्यों भला? तो यहां हर दूसरे दिन कला-संस्कृति के क्षेत्र में कुछ नायाब होता रहता है जैसे बमुश्किल दो-तीन दिन पहले शुरू हुआ ‘झपूर्जा कला एवं संस्कृति संग्रहालय’। आप अगला सवाल करेंगे ‘झपूर्जा’ मतलब क्या? आधुनिक मराठी कविता के जनक केशव सुत ने सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग किया था। ‘झपूर्जा’ को सरल हिंदी में समझें तो, दीवानगी की हद तक जीना। अब किसी संग्रहालय का दीवानगी से क्या संबंध हो सकता है? संग्रहालय तो एकदम नीरस और बेजान वस्तुओं का संग्रह भर होता है। 
 
आप पुणे के पास स्थित कुणजे गांव में हो आइए। यहां तक जाना आपको कठिन लग रहा हो तो शहर के प्रमुख इलाकों डेक्कन और स्वारगेट से यहां के लिए शीघ्र ही विशेष बस सेवा भी प्रारंभ की जाने वाली है। प्रतिदिन सुबह 11 बजे से शाम 7 बजे तक यह संग्रहालय सभी के लिए खुला है।

कला और संस्कृति को समृद्ध करने का जिम्मा या उनके नाम पर संग्रहालय जैसा कुछ बनाने का जिम्मा मोटे-मोटे तौर पर हम शासन पर डाल देते हैं। पुणे के प्रसिद्ध ज्वैलर्स पु.ना.गाडगिल के वंशज अजित गाडगिल उसमें अपना भी योगदान मानते हैं। उनके पास जो भव्य तैल चित्र थे जिन्हें एम.एफ़ हुसैन, राजा रवि वर्मा, जैमिनी रॉय, जे. स्वामीनाथन, सदानंद बकरे और अन्य कई लोगों ने बनाया था, पिछली सदी के पुराने जड़न-घड़न के बर्तन जैसे चायदानी, खिलौनों के बर्तन, छोटे मंदिर, ट्रे, बॉउल, गुलाबदानी थे, वे कुछ पैठणी साड़ियां जो लोग उनके पास इसलिए बेचने आते थे कि उसमें सोने की जरी होती थी, उन सबको संभालकर उन्होंने रखा और इस तरह इस कला दालान के लिए ही जैसे चीज़ें संग्रहीत होती चली गईं। 
लगभग 7.5 एकड़ में फैले इस संग्रहालय में आठ कला दालान हैं, ऐम्फ़ीथियेटर और ऑडिटोरियम हैं। महाराष्ट्र आर्ट स्कूल का एक स्टूडियो भी यहां है जो भक्ति आंदोलन एवं अन्य आंदोलनों के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव को दिखाता है। इसे बनाने में मुंबई, पुणे, कोल्हापुर, नासिक सहित महाराष्ट्र के अन्य इलाकों के कलाकारों ने भागीदारी की है। संग्रहालय के आर्किटैक्ट शिरीष बेरी को इसे बनाने में चार साल का समय लगा। संग्रहालय के निरीक्षक राजू सुतार की कल्पनाशीलता देखी जा सकती है, जैसे प्रिंटिंग गैलेरी में कदम रखते ही सफ़ेद पृष्ठभूमि पर काला बिंदु दिखता है, ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि मीडिया प्रकाशन चाहे अखबार हो या किताबें, वहां सफ़ेद पर काले से लिखा जाता है। इसके विपरीत यदि लैम्प गैलेरी में प्रवेश करते हैं तो काली पृष्ठभूमि पर सफेद प्रकाश दृष्टिगोचर होगा। पुणे के उदीयमान कलाकारों को बढ़ावा देने के लिए भी कुछ दालान सुरक्षित रखे गए हैं। ज्वैलरी और टैक्सटाइल के दो खास दालान हैं। चांदी के जेवर और बर्तन डेढ़ सौ साल से भी अधिक पुराने हैं। जिन्हें पुणे के गोडबोले जैसे कलाकारों ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था।

लगभग दो सौ साल से भी अधिक पैठणी साड़ियों को भी बड़े दुलार से सँभाला गया है। खास रोशनी, नमी और हवा-प्रकाश की व्यवस्था इस तरह की गई है कि उनका वास्तविक रंग यथावत् रहे। इस संग्रहालय में आगामी काल में परंपरागत कलाओं के साथ संगीत-नृत्य की कार्यशालाओं का भी आयोजन किया जाएगा।  
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