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महान सम्राट कृष्णदेव राय का संपूर्ण इतिहास

महान सम्राट कृष्णदेव राय का संपूर्ण इतिहास | krishna dev rai
भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक कृष्ण देवराय (1509 ई.-1529 ई.) :- राजा कृष्ण देवराय के पूर्वजों ने एक महान साम्राज्य की नींव रखी जिसे विजयनगर साम्राज्य (लगभग 1350 ई. से 1565 ई.) कहा गया। देवराय ने इसे विस्तार दिया और मृत्यु पर्यंत तक अक्षुण बनाए रखा। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना इतिहास की एक कालजयी घटना है। 'विजयनगर' का अर्थ होता है 'जीत का शहर'।


इस राज्य की प्रमुख राजधानी का नाम हम्पी और डम्पी था। हम्पी के मंदिरों और महलों के खंडहरों को देखकर जाना जा सकता है कि यह कितना भव्य रहा होगा। इसे यूनेस्को ने विश्‍व धरोहर में शामिल किया है। जिस तरह वर्तमान में न्यूयॉर्क, दुबई और हांगकाग विश्व व्यापार और आधुनिकता के शहर हैं, वैसे ही उस काल में हम्पी हुआ करता था। भारतीय इतिहास के मध्यकाल में दक्षिण भारत के विजयनगर साम्राज्य को लगभग वैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी, जैसी कि प्राचीनकाल में मगध, उज्जैनी या थाणेश्वर के साम्राज्य को प्राप्त थी।
 
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इस साम्राज्य के सबसे यशस्वी सम्राट कृष्ण देवराय की ख्याति उत्तर के चित्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कंदगुप्त, हर्षवर्धन और महाराजा भोज से कम नहीं है। जिस तरह उत्तर भारत में महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी महाराज, बाजीराव और पृथ्वीराज सिंह चौहान आदि ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था, उसी तरह दक्षिण भारत में राजा कृष्ण देवराय और उनके पूर्वजों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा और सम्मान को बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था।
 
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महान सम्राट का जन्म : महान राजा कृष्ण देवराय का जन्म 16 फरवरी 1471 ईस्वी को कर्नाटक के हम्पी में हुआ था। उनके पिता का नाम तुलुवा नरसा नायक और माता का नाम नागला देवी था। उनके बड़े भाई का नाम वीर नरसिंह था। नरसा नायक सालुव वंश का एक सेनानायक था। नरसा नायक को सालुव वंश के दूसरे और अंतिम अल्प वयस्क शासक इम्माडि नरसिंह का संरक्षक बनाया गया था। इम्माडि नरसिंह अल्पायु था, इसलिए नरसा नायक ने उचित मौके पर उसे कैद कर लिया और सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया। तुलुवा नरसा नायक ने 1491 में विजयनगर की बागडोर अपने हाथ में ली। यह ऐसा समय था, जब साम्राज्य में इधर-उधर विद्रोही सिर उठा रहे थे। 1503 ई. में नरसा नायक की मृत्यु हो गई।
 
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राज्याभिषेक : राजा कृष्ण देवराय के पूर्व उनके बड़े भाई वीर नरसिंह (1505-1509 ई.) राज सिंहासन पर विराजमान थे। 1505 में वीर नरसिंह ने सालुव वंश के कैदी नरेश इम्माडि नरसिंह की हत्या कर स्वयं विजयनगर साम्राज्य के सिंहासन पर अधिकार कर 'तुलुवा वंश' की स्थापना की थी। कुछ लोग मानते हैं कि वे 1510 ई. में विजयनगर की गद्दी पर बैठे थे और चालीस वर्ष की उम्र में किसी अज्ञात बीमारी से उनकी मृत्यु हो गई थी। नरसिंह का पूरा शासनकाल आन्तरिक विद्रोह एवं आक्रमणों से प्रभावित रहा। 1509 ई. में वीर नरसिंह की मृत्यु हो गई। वीर नरसिंह के देहांत के बाद 8 अगस्त 1509 ई. को कृष्ण देवराय का विजयनगर साम्राज्य के सिंहासन पर राजतिलक किया गया। 
 
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अष्ट दिग्गज : अवंतिका जनपद के महान राजा विक्रमादित्य ने नवरत्न रखने की परंपरा की शुरुआत की थी। इस परंपरा का अनुसरण कई राजाओं ने किया। तुर्क के मुगल राजा अकबर ने कृष्ण देवराय के जीवन से बहुत कुछ सीख लेकर उनका अनुसरण किया था। कुमार व्यास का 'कन्नड़-भारत' कृष्ण देवराय को समर्पित है। कृष्ण देवराय के दरबार में तेलुगु साहित्य के 8 सर्वश्रेष्ठ कवि रहते थे, जिन्हें 'अष्ट दिग्गज' कहा जाता था।
 
 
इनके नाम हैं:- अल्लसानि, पेदन्ना, नन्दी तिम्मन, भट्टूमुर्ति, धूर्जटि, मादय्यगरि मल्लन मुदुपल्ककु, अच्चलराजु रामचन्द्र और पिंगलीसूरन्न। अष्ट प्रधान या अष्ट दिग्गजों की मंत्रिपरिषद समाज के रक्षण कार्य पर दृष्टि रखती थी। सेना और गुप्तचर सीधे राजा के अधीन थे। राजा तक प्रजा की सीधे पहुंच थी और कोई भी व्यक्ति निश्चित समय पर राजा को अपनी वेदना सुना सकता था।
 
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साहित्यकार : कृष्ण देवराय कन्नड़ भाषी क्षेत्र में जन्मे ऐसे महान राजा थे, जिनकी मुख्य साहित्यिक रचना तेलुगु भाषा में रचित थी। कृष्ण देवराय तेलुगु साहित्य के महान विद्वान थे। उन्होंने तेलुगु के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अमुक्त माल्यद’ या 'विस्वुवितीय' की रचना की। उनकी यह रचना तेलुगु के पांच महाकाव्यों में से एक है। कृष्ण देवराय ने संस्कृत भाषा में एक नाटक ‘जाम्बवती कल्याण’ की भी रचना की थी। इसके अलावा संस्कृत में उन्होंने 'परिणय’, ‘सकलकथासार– संग्रहम’, ‘मदारसाचरित्र’, ‘सत्यवधु– परिणय’ भी लिखा।
 
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तेनालीराम : कृष्ण देवराय का अनुसरण करते हुए ही अकबर ने अपने नवरत्नों में बीरबल को रखा था। राजा कृष्ण देवराय के दरबार का सबसे प्रमुख और बुद्धिमान दरबारी था तेनालीराम। असल में उसका नाम रामलिंगम था। तेनाली गांव का होने के कारण उसे तेनालीराम कहा जाता था। तेनालीराम की बुद्धिमत्‍ता के चर्चे दूर-दूर तक थे और यह राजा कृष्ण देवराय का प्रमुख सलाहकार भी था। इसकी सलाह और बुद्धिमत्‍ता के कारण ही राज्य आक्रमणकारियों से तो सुरक्षित रहता ही था, साथ ही राज्य में इसके कारण कला और संस्कृति को भी बढ़ावा मिला था। यह विजयनगर साम्राज्य का चाणक्य था।
 
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'आंध्र भोज' : राजा भोज का नाम तो आपने सुना ही होगा। कृष्ण देवराय को 'आंध्र भोज' की उपाधि प्राप्त थी। इसके अलावा उन्हें 'अभिनव भोज', और 'आन्ध्र पितामह' भी कहा जाता था।
 
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कृष्ण देवराय का साम्राज्य : इस महान सम्राट का साम्राज्य अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक भारत के बड़े भूभाग में फैला हुआ था जिसमें आज के कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, गोवा और ओडिशा प्रदेश आते हैं। महाराजा के राज्य की सीमाएं पूर्व में विशाखापट्टनम, पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक पहुंच गई थीं। हिन्द महासागर में स्थित कुछ द्वीप भी उनका आधिपत्य स्वीकार करते थे। उनके राज्य की राजधानी हम्पी थी। हम्पी के एक और  तुंगभद्रा नदी तो दूसरी ओर ग्रेनाइड पत्थरों से बनी प्रकृति की अद्भुत रचना देखते ही बनती है। इसकी गणना दुनिया के महान शहरों में की जाती है। हम्पी मौजूदा कर्नाटक का हिस्सा है।
 
कृष्ण देवराय के राज्‍य में आंतरिक शांति होने के कारण प्रजा में साहित्य, संगीत और कला को प्रोत्साहन मिला। जनता भी स्वतंत्रता से जीवनयापन करती थी, जिसके कारण कुछ लोग विलासी भी हो गए थे। मदिरालयों और वेश्यालयों पर कराधान होने के कारण इनका व्यापार स्वतंत्र था। अत्यधिक स्वतंत्रता का जनता ने खूब लाभ उठाया। जनता के बीच राजा लोकनायक की तरह पूजे जाते थे।
 
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कृष्णदेव राय के उल्लेखनीय कार्य : कृष्ण देवराय की उपलब्धि उन्हें महान सम्राटों युधिष्ठिर, पोरस, चन्द्रगुप्त, अशोक एवं हर्षवर्धन के समकक्ष खड़ा करती है। सम्राट कृष्ण देवराय जहां भी गए, वहां उन्होंने आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए या खंडहर में बदल चुके प्राचीन मंदिरों का जीर्णोंद्धार किया। राजगोपुरम्, रामेश्वरम्, राजमहेन्द्रपुरम, अनन्तपुर तक अनेक मंदिर बनवाए। उनके मंदिर निर्माण के फलस्वरूप विजयनगर स्थापत्य शैली का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ। इस शैली पर कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
 
 
कृष्ण देवराय महान भवन निर्माता भी थे। उन्होंने विजयनगर में भव्य राम मंदिर तथा हजार मंदिर (हजार खम्भों वाले मंदिर) का निर्माण कराया। उन्होंने विजयनगर के पास एक नया शहर बनवाया और बहुत बड़ा तालाब खुदवाया, जो सिंचाई के काम भी आता था। स्थापत्य कला के क्षेत्र में कृष्ण देवराय ने 'नागलपुर' नामक नए नगर की स्थापना की थी। उन्‍होंने हज़ारा एवं विट्ठलस्वामी नामक मंदिर का निर्माण भी करवाया। मंदिरों के कारण विद्यालयों का जाल भी विजयनगर साम्राज्य में बिछ गया था।
 
 
राजा कृष्ण देवराय एक ऐसे महान राजा थे जिनकी उदारता और प्रजापालकता के चर्चे विश्व विख्‍यात थे। पुर्तगालियों से उन्होंने संबंध बनाए उनसे रक्षा और व्यापार में सहयोग प्राप्त किया और दिया। उन्होंने तुगंभद्रा पर बड़ा बांध तैयार किया था। नहर का निर्माण करवाया। खुद धार्मिक और विष्णु भक्त होने के कारण मंदिर कला को प्रोत्साहन दिया। राज्य के कलाकारों और वास्तुविदों के लिए उन्होंने बड़ा बाजार खड़ा कर दिया था।
 
 
सम्राट कृष्ण देवराय ने अपने प्रशासनिक सुधारों में बड़े पैमाने पर राजसत्ता के पारंपरिक भारतीय सिद्धांतों और नियमों का समावेश किया जिन्हें कौटिल्य, शुक्र, भीष्म और विदुर जैसे मनीषियों ने प्रतिपादित किया था। हालांकि एक सम्राट के तौर पर वे राज्य के मुखिया थे, लेकिन उनके शासन में नीति-निर्देशन के लिए एक मंत्री-परिषद भी थी जिसका नेतृत्व एक प्रधानमंत्री करते थे जिनका नाम था सलवा तिम्मा। 'बरबोसा', 'पाएस' और 'नूनिज' जैसे विदेशी यात्रियों ने उनके श्रेष्ठ प्रशासन और उनके शासनकाल में साम्राज्य की समृद्धि की चर्चाएं की हैं। 
 
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कृष्ण देवराय की सेना का बल : विभिन्न युद्धों में लगातार विजय के कारण अपने जीवनकाल में ही राजा कृष्ण देवराय लोककथाओं के नायक हो गए। उनके पराक्रम की कहानियां प्रचलित हो गई थीं। 651 हाथियों की सेना से सज्जित मुख्य सेना में 10 लाख सैनिक थे। राजा कृष्ण देवराय के नेतृत्व में 6000 घुड़सवार, 4000 पैदल और 300 हाथी अलग से थे। सात लाख पैदल, 22,000 घुड़सवार और 651 हाथी थे।
 
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अजेय योद्धा : बाजीराव बल्लाल भट्ट की तरह ही कृष्ण देवराय एक अजेय योद्धा एवं उत्कृष्ट युद्ध विद्या विशारद थे। कृष्ण देवराय के शासन के पूर्व देश के इस हिस्से में आपस में लड़ते रहने वाले क्षत्रपों का राज्य था। इन क्षत्रपों में चार प्रमुख राजघराने थे : वारंगल के ककातिया, मध्य दक्षिण पठारी क्षेत्र के होयसला, देवागिरी के यादव और धुर दक्षिण के पंड्या। अपने 21 वर्ष के शासन (1509-1530) में उन्होंने 14 युद्धों का सामना किया और सभी में विजय प्राप्त की। उनका सबसे उल्लेखनीय युद्ध था बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा के सुल्तानों की संयुक्त सेना के साथ।
 
 
बाबर ने अपनी आत्मकथा 'तुजुक-ए-बाबरी' में कृष्ण देवराय को भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक बताया था। कृष्ण देवराय के साम्राज्य को समाप्त करने के लिए प्रतिवर्ष बहमनी साम्राज्य के मुस्लिम विदेशी ताकतों के बल पर आक्रमण करते थे। राजा कृष्‍ण देवराय भी लगातार युद्ध के लिए तैयार रहते थे और इस तरह उन्हें लगातार ही अपनों और परायों से चुनौती मिलती रही, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।
 
 
दक्षिण की विजय में ही राजा कृष्ण देवराय ने शिव-समुद्रम के युद्ध में कावेरी नदी के प्रवाह को परिवर्तित करके अपूर्व रण-कौशल का परिचय दिया और उस अजेय जल दुर्ग को जीत लिया था। कृष्ण देवराय ने वीर नृसिंह राय को उनकी मृत्युशैया पर वचन दिया था कि वे रायचूर, कोण्डविड और उड़ीसा को अपने अधीन कर लेंगे। उस समय गजपति प्रताप रुद्र का राज्य विजयवाड़ा से बंगाल तक फैला था। गजपति के उदयगिरि किले की घाटी अत्यंत संकरी थी, अत: एक अन्य पहाड़ी पर मार्ग बनाया गया और चकमा देकर राजा कृष्ण देवराय की सेना ने किला जीत लिया था। इसी तरह कोण्डविड के किले में गजपति की विशाल सेना थी और किले के नीचे से ऊपर चढ़ना असंभव था। राजा कृष्ण देवराय ने वहां पहुंचकर मचान बनवाए, ताकि किले के समान ही धरातल से 'बाण वर्षा' हो सके।
 
 
इस किले में प्रतापरुद्र की पत्नी और राज परिवार के कई सदस्य बंदी बना लिए गए थे। अंतत: सलुआ तिम्मा की कूटनीति से गजपति को भ्रम हो गया कि उसके महापात्र 16 सेनापति कृष्ण देवराय से मिले हुए हैं। अत: उन्होंने कृष्ण देवराय से संधि कर ली और अपनी पुत्री जगन्मोहिनी का विवाह उनसे कर दिया। इस तरह मदुरै से कटक तक के सभी किले हिन्दू साम्राज्य में आ गए थे। पश्चिमी तट पर भी कालीकट से गुजरात तक के राजागण सम्राट कृष्ण देवराय को कर देते थे।
 
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रायचूर की विजय : सबसे कठिन और भारतवर्ष का सबसे विशाल युद्ध रायचूर के किले के लिए हुआ था। घटनाक्रम के अनुसार, राजा कृष्ण देवराय ने एक मुस्लिम दरबारी सीडे मरीकर को 50,000 सिक्के देकर घोड़े खरीदने के लिए गोवा भेजा था, पर वह आदिल शाह के यहां भाग गया। सुल्तान आदिल शाह ने उसे वापस भेजना अस्वीकार कर दिया। तब राजा ने युद्ध की घोषणा कर दी और बीदर, बरार, गोलकुण्डा के सुल्तानों को भी सूचना भेज दी। सभी सुल्तानों ने राजा का समर्थन किया।
 
 
19 मई, 1520 को युद्ध प्रारंभ हुआ और आदिल शाह की फौज को मुंह की खानी पड़ी। सुल्तान आदिल शाह भाग गया और रायचूर किले पर विजयनगर साम्राज्य का अधिकार हो गया। आसपास के अन्य सुल्तानों में राजा कृष्ण देवराय की इस विजय से भय व्याप्त हो गया। जब आदिल शाह का दूत क्षमायाचना के लिए आया तो राजा का उत्तर था कि स्वयं आदिल शाह आकर उनके पैर चूमे। उत्तर न आने पर बीजापुर में युद्ध हुआ।
 
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सुल्तानों से युद्ध : बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुण्‍डा के सुल्तानों ने सम्राट कृष्ण देवराय को हमेशा चुनौती दी, लेकिन उन्होंने उनका डटकर मुकाबला किया। महमूद शाह ने सुल्तानों, मुसलमानों और सैनिकों में मजहबी उन्माद भर दिया था।
 
 
गोलकुण्डा का सुल्तान कुली कुतुब शाह क्रूर सेनापति और निर्मम शासक था। वह जहां भी विजयी होता था वहां हिन्दुओं का कत्लेआम कर देता था। राजा कृष्ण देवराय की रणनीति के कारण बीजापुर के आदिल शाह ने कुतुबशाह पर अप्रत्याशित आक्रमण कर दिया। सुल्तान कुली कुतुब शाह युद्ध में घायल होकर भागा। बाद में आदिल शाह भी बुखार में मर गया और उसका पुत्र मलू खां विजयनगर साम्राज्य के संरक्षण में गोलकुण्डा का सुल्तान बना।
 
 
गुलबर्गा के अमीर बरीद और बेगम बुबू खानम को ईरान का रहने वाला कमाल खां बंदी बनाकर ले गया था। खुरासानी सरदारों ने उसका विरोध किया था। तब राजा कृष्ण देवराय ने बीजापुर में बहमनी के तीन शहजादों को कमाल खां से छुड़ाया और महमूद शाह को दक्षिण का सुल्तान बनाया। बाकी दो की जीविका बांध दी। वहां उनको यवन राज्य स्थापनाचार्यव् की उपाधि भी मिली। बीजापुर विजय के पश्चात कृष्ण देवराय कुछ समय वहां रहे, किन्तु सेना के लिए पानी की समस्या को देखते हुए वे सूबेदारों की नियुक्ति कर चले आए।

महमूद शाह की ओर से निश्चिंत होकर राजा कृष्ण देवराय ने उड़ीसा राज्य को अपने प्रभाव क्षेत्र में लिया और वहां के शासक को अपना मित्र बना लिया। 1520 में उन्होंने बीजापुर पर आक्रमण कर सुल्तान यूसुफ आदिल शाह को बुरी तरह पराजित किया।
 
लेकिन इस उदारता को भूलकर सुल्तानों ने आपस में मिलकर सम्राट कृष्ण देवराय के खिलाफ धार्मिक युद्ध छेड़ दिया। मलिक अहमद बाहरी, नूरी खान ख्वाजा-ए-जहां, आदिल शाह, कुतुब उल-मुल्क, तमादुल मुल्क, दस्तूरी ममालिक, मिर्जा लुत्फुल्लाह, सभी ने मिलकर हमला बोला था। यह युद्ध दीवानी नामक स्थान पर हुआ। इस लड़ाई में सुल्तानों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। बाद में सभी मुस्लिम रियासतें राजा के विरुद्ध तालीकोट के युद्ध में पुन: संगठित हो गईं।
 
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सम्राट की मृत्यु : सम्राट ने अपने इकलौते पुत्र तिरुमल राय को राजगद्दी देकर प्रशिक्षित करना प्रारंभ कर दिया था, लेकिन पुत्र तिरुमल राय की एक षड्यंत्र के तहत हत्या कर दी गई। इसी विषाद में उनकी भी 1529 में हम्पी में मृत्यु हो गई और इस तरह महाप्रतापी राजा कृष्ण देवराय ने उदात्त भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित एक पराक्रमी और विशाल साम्राज्य की गौरवगाथा लिखकर इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिया।
 
 
कृष्ण देवराय के बाद अच्युत राय 1530 में गद्दी पर बैठा। उसके बाद 1542 में सदाशिवराय राजा बने। लेकिन वे केवल औपचारिक राजा थे। वास्तविक सत्ता आलिया राम के हाथ में थी। आलिया राय एक बहादुर सेनापति था, लेकिन राज्य पर चारों तरफ से गिद्ददृष्टि लगाए नवाबों और सुल्तानों का सामूहिक मुकाबला करने की शायद उसमें सामर्थ नहीं थी।
 
राजा कृष्ण देवराय का जीवनकाल सिर्फ 58 साल तक रहा, जिसमें उन्‍होंने प्रत्यक्ष रूप से 21 वर्ष शासन किया। अंतिम तीन वर्षों मेंउन्होंने अपने पुत्र को सत्ता सौंप दी थी। अगर वे लंबी उम्रवाले होते और उनके पुत्र की हत्या नहीं होती तो भारत के इतिहास का रुखकुछ और ही होता।
 
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तालिकोट का युद्ध : राजा कृष्ण देवराय की मृत्यु के बाद उनके बेटे अच्युत राय 1530 में गद्दी पर बैठे। उसके बाद 1542 में सदाशिव राय राजा बने, लेकिन वे केवल औपचारिक राजा थे। वास्तविक सत्ता आलिया राम के हाथ में थी। आलिया राय एक बहादुर सेनापति था, लेकिन राज्य पर चारों तरफ से गिद्ददृष्टि लगाए नवाबों और सुल्तानों का सामूहिक मुकाबला करने की शायद उसमें सामर्थ नहीं थी।
 
कृष्ण देवराय की मृत्यु के बाद अंत में केवल एक बिरार की मुस्लिम रियासत को छोड़कर बीजापुर, बीदर, गोलकोण्‍डा तथा अहमदनगर के क्रूर मुस्लिम शासकों ने एक साथ विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। तब राजा सदाशिव राय गद्दी पर था लेकिन उसके साथ राज्य के मुसलमानों और उसकी ही सेना की एक मुस्लिम टुकड़ी ने गद्दारी की। यह युद्ध तालिकोट में हुआ था।
 
सेनापति राय ने इस संयुक्त मुस्लिम आक्रमण में विजयनगर की सेना का नेतृत्व किया। घमासान युद्ध के दौरान विजयनगर की सेना जीतने ही वाली थी कि उसके मुस्लिम कमांडर अपने-अपने सैनिक जत्थे लेकर हमलावर सेना के साथ जा मिले। इससे युद्ध का नजारा ही बदल गया। सेनापति आलिया राय कुछ सोच पाते उससे पूर्व ही उन्हें पकड़ लिया गया। आलिया राय को पकड़कर तत्काल मार दिया गया। सदाशिव जानता था कि जीत हमारी सेना की ही होनी है, लेकिन जब उसको विजयनगर की सेना की हार की खबर मिली तो वह जितना संभव हुआ, उतनी धन संपत्ति समेटकर हम्पी नगर से पलायन कर गया।
 
 
विजयनगर की सेना उस समय दक्षिण की अजेय सेना मानी जाती थी, लेकिन भारतीय हिन्दू राजाओं की उदारता अक्सर उनके लिए घातक बन जाती थी। तालिकोट के युद्ध में भी यही हुआ। 25 दिसंबर 1564 विजयनगर के पतन की तिथि बन गई। सदाशिव राय का शाही परिवार तब तक पेनुकोंडा (वर्तमान अनंतपुर जिले में स्थित) पहुंच गया था। पेनुकोंडा को उसने अपनी नई राजधानी बनाया, लेकिन वहां भी नवाबों ने उसे चैन से नहीं रहने दिया। बाद में वहां से हटकर चंद्रगिरि (जो चित्तूर जिले में है) को राजधानी बनाया। वहां शायद किसी ने उनका पीछा नहीं किया। विजयनगर साम्राज्य करीब 80 वर्ष और चला। गद्दारों के कारण विजयनगर साम्राज्य 1646 में पूरी तरह इतिहास के कालचक्र में दफन हो गया। इस वंश के अंतिम राजा रंगराय (तृतीय) थे, जिनकी शायद 1680 में मौत हुई।
 
 
आलिया राय के मारे जाते ही विजयनगर की सेना तितर-बितर हो गई। मुस्लिम सेना ने विजयनगर पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वैभव, कला तथा विद्वता की इस ऐतिहासिक नगरी में लूट, हत्या और ध्‍वंस का जो तांडव शुरू हुआ, उसकी नादिर शाह की दिल्ली लूट और कत्लेआम से ही तुलना की जा सकती है। हत्या, बलात्कार तथा ध्वंस का ऐसा नग्न नृत्य किया गया कि जिसके निशान आज भी हम्पी में देखे जा सकते हैं।
 
बीजापुर, बीदर, गोलकोंडा तथा अहमदनगर की सेना करीब 5 महीने उस नगर में रही। इस अवधि में उसने इस वैभवशाली नगर की ईंट से ईंट बजा दी। ग्रंथागारों व शिक्षा केंद्रों को आग की भेंट चढ़ा दिया गया। मंदिरों और मूर्तियों पर लगातार हथौड़े बरसते रहे। हमलावरों का एकमात्र लक्ष्य था विजयनगर का ध्वंस और उसकी लूट। शायद साम्राज्य हथियाना उनका प्रथम लक्ष्य नहीं था।
 
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विजयनगर साम्राज्य के स्थापक : इतिहासकारों के अनुसार विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 5 भाइयों वाले परिवार के 2 सदस्यों 1336 ईस्वीं में हरिहर और बुक्का ने की थी। जिस तरह चंद्रगुप्त मौर्य के साथ चाणक्य, पुष्यमित्र शुंग के साथ महर्षि पतंजलि, वीर शिवाजी के साथ समर्थ रामदास थे, उसी प्रकार हरिहर और बुक्काराय के साथ स्वामी विद्यारण्य थे।
 
पहले दोनों भाई वारंगल के ककातियों के सामंत थे और बाद में आधुनिक कर्नाटक में काम्पिली राज्य में मंत्री बने। जब एक मुसलमान विद्रोही को शरण देने पर मुहम्मद तुगलक ने काम्पिली को रौंद डाला, तो इन दोनों भाइयों को भी बंदी बना लिया गया था। इन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया और तुगलक ने इन्हें वहीं विद्रोहियों को दबाने के लिए विमुक्त कर दिया।
 
 
तब मदुराई के एक मुसलमान गवर्नर ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था और मैसूर के होइसल और वारगंल के शासक भी स्वतंत्र होने की कोशिश कर रहे थे। हरिहर और बुक्काराय मुस्लिम बनकर जब वापस लौटे तो उनकी मुलाकात स्वामी विद्यारण्य से हो गई। कुछ समय बाद ही हरिहर और बुक्का ने अपने नए स्वामी और धर्म को छोड़ दिया। उनके गुरु विद्यारण्य के प्रयत्न से उनकी शुद्धि हुई और उन्होंने विजयनगर में अपनी राजधानी स्थापित की। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में हरिहर प्रथम को दो ब्राह्मण आचार्यों- माधव विद्याराय और उसके ख्यातिप्राप्त भाई वेदों के भाष्यकार 'सायण' से भी मदद मिली थी। हरिहर प्रथम को 'दो समुद्रों का अधिपति' कहा जाता था।
 
 
इस साम्राज्य की स्थापना का दक्षिण भारतीयों के विरुद्ध होने वाले राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आंदोलन के परिणामस्वरूप संगम पुत्र हरिहर एवं बुक्का द्वारा तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित अनेगुंडी दुर्ग के सम्मुख की गई। बादामी, उदयगिरि एवं गूटी में बेहद शक्तिशाली दुर्ग बनाए गए थे। हरिहर ने होयसल राज्य को अपने राज्य में मिलाकर कदम्ब एवं मदुरा पर विजय प्राप्त की थी। दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा नदी इस साम्राज्य की प्रमुख नदी थी। हरिहर के बाद बुक्का सम्राट बना। उसने तमिलनाडु का राज्य विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। कृष्णा नदी को विजयनगर तथा मुस्लिम बहमनी की सीमा मान ली गई। इस साम्राज्य में बौद्ध, जैन और हिन्दू खुद को मुस्लिम आक्रमणों से सुरक्षित मानते थे।
 
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राजा कृष्ण देवराय का वंश : हरिहर प्रथम के बाद 1356 में बुक्का प्रथम ने सिंहासन संभाला। हरिहर द्वितीय ने 1377 ईस्वी में सिंहासन संभाला। इसके बाद विरुपाक्ष प्रथम 1404 में गद्दी पर बैठे। इसी सन् में बुक्का द्वितीय ने सिंहासन संभाला। इसके बाद 1406 ईस्वी में देवराय प्रथम ने राज्य का कार्यभार संभाला। इसके बाद देवराय द्वितीय को 1422 ईस्वी में सिंहासन सौंपा गया। देवराय द्वितीय के बाद विजयराय द्वितीय ने 1446 में राज्य का कार्यभार संभाला, फिर 1447 में मल्लिकार्जुन और इसके बाद विरुपाक्ष द्वितीय ने 1465 से 1485 तक शासन किया। अंत में प्रौढ़ राय 1485 ने शासन किया।
 
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तीन वंश : इसके बाद इस साम्राज्य में 3 वंशों का शासन चला- शाल्व वंश, तुलुवा वंश और अरविंदु वंश। शाल्व वंश : शाल्व वंश के राजा नरसिंह देवराय ने 1485 में सिंहासन संभाला, फिर 1491 में थिम्म भूपाल और फिर 1491 में ही नरसिंह राय द्वितीय ने संभालकर 1505 तक राज किया।
 
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तुलुवा वंश : इसके बाद तुलुवा वंश के राजा नरस नायक ने 1491 से 1503 तक राज किया। फिर क्रमश: वीरनरसिंह राय (1503-1509), कृष्ण देवराय (1509-1529), अच्युत देवराय (1529-1542) और सदाशिव राय (1542-1570) ने शासन किया।

कृष्ण देवराय के बाद हुए राजा : कृष्ण देवराय के बाद अरविंदु वंश के राजा हुए। तुलुवा के बाद अरविंदु वंश के राजाओं ने राज किया। इनमें क्रमश: आलिया राय (1542-1565), तिरुमल देवराय (1565-1572), श्रीरंग प्रथम (1572-1586), वेंकट द्वितीय (1586-1614), श्रीरंग द्वितीय (1614-1614), रामदेव अरविंदु (1617-1632), वेंकट तृतीय (1632-1642), श्रीरंग तृतीय (1642-1646) ने राज किया। समाप्त
 
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शाल्व वंश : शाल्व वंश के राजा नरसिंह देवराय ने 1485 में सिंहासन संभाला, फिर 1491 में थिम्म भूपाल और फिर 1491 में ही नरसिंह राय द्वितीय ने संभालकर 1505 तक राज किया।
 
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तुलुवा वंश : इसके बाद तुलुवा वंश के राजा नरस नायक ने 1491 से 1503 तक राज किया। फिर क्रमश: वीरनरसिंह राय (1503-1509), कृष्ण देवराय (1509-1529), अच्युत देवराय (1529-1542) और सदाशिव राय (1542-1570) ने शासन किया।
 
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कृष्ण देवराय के बाद हुए राजा : कृष्ण देवराय के बाद अरविंदु वंश के राजा हुए। तुलुवा के बाद अरविंदु वंश के राजाओं ने राज किया। इनमें क्रमश: आलिया राय (1542-1565), तिरुमल देवराय (1565-1572), श्रीरंग प्रथम (1572-1586), वेंकट द्वितीय (1586-1614), श्रीरंग द्वितीय (1614-1614), रामदेव अरविंदु (1617-1632), वेंकट तृतीय (1632-1642), श्रीरंग तृतीय (1642-1646) ने राज किया।

विभिन्न माध्यमों से संकलित, संकलन : अनिरुद्ध जोशी