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जब महाराजा शिवाजीराव के अपने ही बेगाने हो गए

जब महाराजा शिवाजीराव के अपने ही बेगाने हो गए - When Maharaja Shivajirao became his own son
महाराजा के प्रशासन व सामान्यजन की स्थिति का सर्वेक्षण करके अपनी गोपनीय रिपोर्ट भारत सरकार को प्रेषित करने के लिए कर्नल डी. राबर्टसन को इंदौर भेजा गया था। उन्होंने 'नोट ऑन इंदौर अफेयर्स' शीर्षक से अपनी रिपोर्ट 30 जून 1895 को प्रेषित की जो 'पूना वैभव' में महाराजा के विरुद्ध छपे समाचार का अंगरेजी अनुवाद सा प्रतीत होती है। वहलिखता है- 'यहां की वर्तमान दशा मुझे बहुत ही असंतोषप्रद प्रतीत हो रही है। महाराजा पूर्णत: निरंकुश व स्वेच्छाचारी हैं। नगर से लोगों को निकाल देते हैं या उनकी संपत्ति जब्त करवा लेते हैं या उन्हें कैद में डलवा देते हैं। यह सब केवल किसी पर संदेह मात्र होने पर किया जाता है। ऐसे लोगों को न्यायालय में भेजने की वे आवश्यकता नहीं समझते। इसके अतिरिक्त, इस माह की 25 तारीख को मुझे प्रधानमंत्री ने पृथक से बताया कि ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब किसी-न-किसी की पिटाई न हुई हो। अमावस्या व माह की 12वीं तिथि को लोगों को लगातार प्रताड़ित किया जाता है...।'
 
उधर महाराजा को किसी प्रकार यह पता चल गया कि उनके विरुद्ध अखबारों में जो खबरें छप रही हैं, उनमें प्रधानमंत्री बेदरकर की भी सहभागिता है। वे 'मिनिस्टर' के विरुद्ध अनुशासनहीनता की कोई कार्रवाई करते उसके पूर्व ही बेदरकर ने ए.जी.जी. के प्रथम सचिव को 26 जुलाई 1895 के अपने पत्र क्र. 436 में लिखा- 'मेरे लिए यह आवश्यक हो सकता है कि मैं तुरंत ब्रिटिश सेवा में वापस लौट आऊं, अत: मेरा अनुरोध है कि ए.जी.जी. ब्रिटिश सरकार से मेरी वापसी की अनुमति तुरंत प्राप्त करने की कृपा करें।'
 
महाराजा को भी अपनी हत्या की आशंका
 
महाराजा शिवाजीराव ने ए.जी.जी. से अपने विश्वासघाती अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतें लिखीं लेकिन उसकी ओर से कोई पहल न किए जाने से विवश होकर महाराजा ने भारत सरकार के विदेश सचिव के माध्यम से अपनी व्यथा भारत के वायसराय को लिख भेजी ताकि वे उनके विरुद्ध भेजी जा रही झूठी शिकायतों के विरुद्ध अपना पक्ष रख सकें। 26 मई 1901 को महाराजा ने उक्त अधिकारी को टेलीग्राम में लिखा- 'मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि कौंसिलरों ने अपने अयोग्य मित्रों व संबंधितों को राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त कर दिया है। मिनिस्टर (प्रधानमंत्री), नगर पुलिस अधीक्षक, न्यायाधीश व कौंसिलर मिलकर मुझ पर झूठा अभियोग लगाना चाहते हैं। गुप्त बैठकें करके वे मुझे प्रताड़ित करने के उपाय खोजा करते हैं...।'
 
महाराजा ने लगभग 1 माह बाद 24 जून 1901 को भारत सरकार के विदेश सचिव को दूसरे टेलीग्राम में लिखा- 'मेरे विश्वासपात्र सेवकों तथा अधिकारियों को सेवा से निष्कासित कर उन्हें तुरंत राज्य से बाहर चले जाने के लिए बाध्य किया जाता है, जिससे कि मेरे जीवन के विरुद्ध जो षड्‌यंत्र रचे जा रहे हैं, उनसे वे मेरीरक्षा न कर सकें। इस प्रकार के कार्य सखाराम मार्तण्ड नामक व्यक्ति द्वारा किए जा रहे हैं, जो एक अराजकतावादी व्यक्ति है। मिनिस्टर जो एक ईमानदार व्यक्ति था, बाद में बनियों के समूह में जा मिला, जिन्हें गलत तरीके से लाभान्वित किया गया और जो मेरे पारिवारिक सदस्यों को मेरे विरुद्ध आपके पास शिकायतें लिख भेजने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, वे मुझे कठिनाइयों में डालने के लिए मेरे विरुद्ध कोई गलत साधन का उपयोग करने से नहीं चूकेंगे। बख्शी खुमानसिंह जैसे उच्चाधिकारी, जिन्होंने मेरे राज्यारोहण के समय गुप्त रूप से मेरा विरोध किया था, आज शक्ति में हैं और मेरे द्वारा नियुक्त व्यक्तियों से घृणा करते हैं। वे और मिनिस्टर मिलकर अपने गुर्गों को नियुक्तियां दे रहे हैं। मिनिस्टर ने कौंसिलरों की नियुक्तियों पर मुझसे स्वीकृति प्राप्त कर ली औऱ जब उसने देखा कि उसकी स्थिति मजबूत हो गई है तो विश्वासघातपूर्वक वह मेरे ही विरुद्ध हो गया। जिन बनियों को अवैध रूप से लाभ पहुंचाया गया था, उन्होंने बदले में मिनिस्टर को लाभ पहुंचाया और आगे भी लाभ देते रहने का लालच दिया। जनरल सखाराम मार्तण्ड, किबे और ऊपर उल्लेखित बनियों का समूह जिसमें अमोलकचंदभी सम्मिलित हैं, मेरे जीवन को समाप्त कर देने के प्रयास में चूकेंगे नहीं और बाद में झूठ प्रचारित कर देंगे कि मैंने आत्महत्या कर ली है। जनरल सखाराम मार्तण्ड ही सारी गड़बड़ी का मूल कारण है। यदि महामहिम वायसराय व आप दयापूर्वक मेरी व्यथा व शिकायत को नहीं सुनेंगे तो मैं किसके पास जाऊं और अपनी कठिनाइयों का समाधान पाऊं?'
 
उक्त दोनों टेलीग्राम महाराजा की परेशानियों को अभिव्यक्त करते हैं। इसके माध्यम से महाराजा ने उनकी हत्या के लिए रचे गए षड्‌यंत्र व उसमें सम्मिलित व्यक्तियों के नामों का भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया था।
 
महाराजा ने दिया करारा जवाब
 
इंदौर रेसीडेंसी में नियुक्त रेजीडेंट आर.जे. जीनिंग्स ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा पूर्व निर्धारित नीति पर चल रहा था और उसका उद्देश्य महाराजा शिवाजीराव को विक्षिप्त, अयोग्य या निष्क्रिय सिद्ध कर पद से हट जाने के लिए विवश करना था। जब महाराजा को विक्षिप्त सिद्ध नहीं किया जा सका तो उनको कुप्रशासन के आरोप का शिकार बनाया गया।
 
रेजीडेंट महाराजा के प्रशासन में सीधा हस्तक्षेप करने हेतु प्रयत्नशील था। उसने इंदौर रेसीडेंसी से 25 अप्रैल 1900 ई. को महाराजा को एक गोपनीय पत्र भेजा जिसमें उसने लिखा-'आपको भारत सरकार के आदेश के विषय में ज्ञात हो ही गया होगा कि सभी महत्वपूर्ण मामलों में आपको मेरी सलाह लेनी चाहिए तथा जब भी मैं हस्तक्षेप करूं, मेरी सलाह अनिवार्य रूप से मानी जानी चाहिए।
 
भारत सरकार ने अब स्पष्ट कर दिया है कि राज्य में उच्च पदों पर नियुक्तियां तथा उनकी सेवा-मुक्ति महत्वपूर्ण मामला है और इनमें महाराजा को मेरे निर्देशों को मानना चाहिए।'
 
स्वाभिमानी महाराजा शिवाजीराव को ब्रिटिश रेजीडेंट का उक्त पत्र जब प्राप्त हुआ तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। महाराजा ने पत्रोत्तर में जिस भाषा का उपयोग किया वही उनके आक्रोश को अभिव्यक्त कर देती है। महाराजा ने रेजीडेंट जीनिंग्स को 5 जून 1900 ई. को भेजे अपने पत्र में लिखा- 'पत्र के उत्तर में मैं आपको सूचित करना चाहूंगा कि जब कभी कोई भारतीय नरेश सिंहासन पर बैठता है तो उसे पूर्ण अधिकार व शक्तियां मिली होती हैं और उसे शायद ही किसी निर्देश के दिए जाने की आवश्यकता पड़ती है। कम से कम मेरे मामले में तो यही बात लागू होती है। राजा अपनी सत्ता में सर्वोच्च होना चाहिए अन्यथा अधीनस्थ कर्मचारी अपनी स्थिति से विचलित होंगे और अपनी अधीनता ही भूल जाएंगे।
 
यदि प्रत्येक मामले में हमें आपकी सलाह लेनी पड़ी तो कोई भी कार्य करना हमारे लिए कठिन हो जाएगा। सूर्य का ताप यदि वांछित व उचित मात्रा में होता है तो फसलों को पकने में सहायक होता है किंतु यदि वही आवश्यकता से अधिक होता है तो फसलें चौपट हो जाती हैं। वैसे ही, यद्यपि हम अग्नि की पूजा करते हैं, क्योंकि वह हमारे देवताओं में से एक है और वह जाड़े से हमारी रक्षा करती है किंतु हम नहीं चाहते कि उसके द्वारा हमारी उंगलियां जला दी जाएं। अदरक भी बड़ा स्वादिष्ट होता है, यदि हम उसे उचित मात्रा में लें, किंतु उसकी अधिकता भी बहुत कष्टदायक होती है।'
 
महाराजा का उक्त पत्र उनकी दूरदर्शिता और एक कुशल राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण है जिसके द्वारा उन्होंने प्रकारांतर से अंगरेज सत्ताधीशों को यह चेतावनी दे दी थी कि उनके प्रशासनिक मामलों में यदि अनावश्यक हस्तक्षेप करने के प्रयास किए गए तो उसके अच्छे परिणाम नहीं निकलेंगे।
 
गद्दार अधिकारियों पर महाराजा का सीधा आरोप
 
होलकर दरबार, महाराजा शिवाजीराव के प्रशासनकाल के उत्तरार्द्ध में दो परस्पर विरोधी खेमों में विभाजित हो गया था। एक समूह महाराजा का समर्थक था तो दूसरा अंगरेजों की हर नीति का आंख मींचकर समर्थन करने वाला था। दूसरे ग्रुप की हरकतों से महाराजा भली-भांति परिचित थे और उनके विरुद्ध स्पष्टत: आरोप लगाते हुए महाराजा ने ब्रिटिश अधिकारियों को पत्र भी लिखे। राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली के अभिलेख में संरक्षित फाइल फॉरेन डिपार्टमेंट सीक्रेट ', 1 मार्च 1903 क्र. 20-29 में महाराजा द्वारा इंदौर रेजीडेंट को 29 अगस्त 1902 को लिखा पत्र सुरक्षित है, जिसमें उन्होंने लिखा है- '...मैं आपको सूचनार्थ लिखना चाहता हूं कि आजकल न्यायाधीश तथा पुलिस अधिकारी, उन लोगों में से नियुक्त नहीं किए जाते, जो मेरे प्रति मैत्रीभाव रखते हैं किंतु ठीकइसके विपरीत किया जाता है। ...ब्राह्मण समुदाय, जिसमें इस प्रकार के कुछ अधिकारी भी हैं, मेरे शत्रु हैं। चूंकि उनमें से ब्राह्मणों को उनके दुर्व्यवहार के कारण मैंने सजा दी थी इसलिए वे मेरे हाथों में प्रशासनिक अधिकारों को देखना नहीं चाहते तथा जनता की नजरों में सदा ही मुझे गिराने का प्रयास करते हैं।'
 
'जनरल सखाराम मार्तंड जैसे षड्‌यंत्रकारी व्यक्ति तथा किबे और कुछ स्थानीय वकील जैसे शिवप्रसाद तथा चितले, जो जनरल सखाराम मार्तंड के सहायक हैं, मेरे कर्मचारियों को उनके कर्तव्यों से विमुख होने के लिए भड़काने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं।
 
इन लोगों ने मेरे पारिवारिक सदस्यों (सीनियर महारानी) को भी मेरे विरुद्ध भड़काया है।' ...सर्वश्री गुप्ते, पुरंधर, बेदरकर तथा नायडू मेरे प्रति सहानुभूति रखने वाले थे तथा मेरे प्रति वफादार थे क्योंकि मैंने उन्हें नियुक्त किया था, उन सबको निष्कासित कर दिया गया। अधिकारीगण श्री भड़भड़े व कीर्तने व अन्य जो उनके स्थान पर नियुक्त किए गए हैं, वे लगभग वे ही हैं, जिन्हें मैंने सेवामुक्त कर दिया था और जिन पर मैं तनिक भी विश्वास नहीं कर सकता हूं।'
 
'पुलिस विभाग में एक मेरवानजी नामक व्यक्ति है, जो धार केबैरामजी बख्शी का भाई है। बैरामजी तथा जनरल सखाराम मार्तंड श्री खोड़े के अंतरंग मित्रों में से हैं, जिसने 1884 में मेरे विरुद्ध झूठे लेखों का प्रकाशन किया था।
 
नव-नियुक्त अधिकारी, मेरे कर्मचारियों के विरुद्ध झूठे आरोप लगाकर तुरंत उन्हें जेल भेज देते हैं तथा जनता को यह बतलाने का प्रयास करते हैं कि मेरी अपेक्षा उनकी शक्ति व अधिकार कहीं ज्यादा हैं तथा वे जो चाहें कर सकते हैं। ...इसी तरह, मैं समझता हूं कि आपकी, भारत सरकार द्वारा यहां नियुक्ति इसीलिए की गई है कि आप मेरी कठिनाइयों और परेशानियों को दूर करने में मेरी सहायता करें...।'
 
ब्रिटिश अधिकारियों की अस्पष्ट और दोहरी नीति
 
महाराजा शिवाजीराव अपने प्रशासन में ब्रिटिश हस्तक्षेप से जहां नाराज थे, वहीं वे अपने कर्मचारियों व अधिकारियों के विश्वासघात से खिन्न थे। वे इस आशा के साथ रेजीडेंट को पत्र लिखते रहे कि उनकी कठिनाइयों और परेशानियों को निष्पक्षता के साथ देखा जाएगा। उनके अधिकारी जो कुछ भी उनके विरुद्ध कर रहे थे, उसके पीछे ब्रिटिश सरकार का संरक्षण व प्रोत्साहन ही था। ए.जी.जी. भी इसमें शामिल था। वह महाराजा के महत्वपूर्ण पत्रों को भारत सरकार तक नहीं पहुंचाता था।महाराजा के खिलाफ वह निरंतर लिखा करता था। तत्कालीन ए.जी.जी. मिस्टर सी.एस. बायले ने अपने पत्र क्र. 10852, सितंबर 10, 1902 को भारत सरकार के सचिव को लिखा- '...रेजीडेंट के पत्र में लिखा है कि महाराजा ने एक निश्चित धनराशि या पेंशन पाकर किसी धार्मिक स्थल पर जाकर अपना शेष जीवन व्यतीत करने की अभिलाषा प्रकट की है..., चाहे जो हो, मैं महाराजा को पूर्णत: विक्षिप्त नहीं मान सकता। उनमें महान मौलिक प्रतिभा तथा बुद्धिमत्ता है। उन्होंने कई बार सिंहासन त्यागने की इच्छा जाहिर की है। यदि वे कोई कठिन शर्त इसके साथ लगाते हैं या सिंहासन त्यागने में आनाकानी करते हैं तो ब्रिटिश सरकार द्वारा तय शर्तों पर उन्हें सिंहासन परित्याग के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।'
 
यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि एक ओर तो पूर्ववर्ती ब्रिटिश अधिकारियों ने महाराजा शिवाजीराव को विक्षिप्त करार दिया था क्योंकि वे ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सक्रिय थे, किंतु जब सिंहासन त्यागने की रिपोर्ट भेजी जानी थी तो महाराजा को 'मौलिक, प्रतिभासंपन्न तथा बुद्धिमान व्यक्ति' निरूपित किया गया। सवाल यह भी उठता है कि यदि वे मौलिक प्रतिभा व बुद्धिमत्तासंपन्न थे तो ऐसे शासक को पद-विमुखकरने के लिए क्या बाध्यता उत्पन्न हो गई थी?
 
उधर ए.जी.जी. ने महाराजा को किसी भी प्रकार से अपने प्रभाव में ला सकने में अपनी असमर्थता प्रकट की और अपने उक्त पत्र में आगे लिखा- 'कर्नल जीनिंग्स और मेजर यंग हसबेंड मेरी ही तरह इस दृढ़ आशा को लेकर आए थे कि वे अपने व्यक्तिगत प्रभाव व योग्यता के बल पर महाराजा को अपना परामर्श सुनने के लिए तैयार कर लेंगे, किंतु वे महाराजा की हरकतों से तंग आ गए। मेरी तरह उन्होंने भी सफलता की आशा पूर्णत: त्याग दी थी। यह पूछा जा सकता है कि उनके द्वारा सिंहासन त्यागना क्यों आवश्यक है। उत्तर यही है कि उन्हें यदि नाममात्र का प्रशासनिक प्रमुख बनाए रखा जाएगा तो उनके अधिकारियों और प्रजा के मन में यह भय सदैव बना रहेगा कि वे किसी भी समय अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त कर सकते हैं।'
 
वस्तुत: यह भय अधिकारियों और प्रजा का नहीं था, अपितु स्वयं ब्रिटिश अधिकारी इस बात से भयभीत थे और इसीलिए चाहते थे कि महाराजा को प्रशासन से पृथक कर दिया जाए।
 
महाराजा ने वायसराय के इंदौर आगमन का विरोध किया
 
महाराजा शिवाजीराव होलकर, निरंतर भारत सरकार को कड़े शब्दों में पत्र लिख रहे थे और उनके विरुद्ध सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी भी व्यक्त कर रहे थे। दूसरी ओर इंदौर रेसीडेंसी से उनके विरोध में ही पत्र प्रेषित किए जा रहे थे। इस स्वाभिमानी शासक को संतुष्ट करने के लिए अंतत: भारत के वायसराय ने स्वयं इंदौर आकर महाराजा से मिलने की योजना बनाई। जब वायसराय की प्रस्तावित इंदौर यात्रा की सूचना महाराजा को मिली तो उन्होंने बड़े कटु शब्दों में इस यात्रा का विरोध किया। इससे बढ़कर ब्रिटिश सत्ता का और क्या अपमान हो सकता था? इंदौर के रेजीडेंट, सेंट्रल इंडिया में गवर्नर का एजेंट और अब भारत का वायसराय अपने आपको अपमानित महसूस कर रहे थे। वायसराय ने तब ब्रिटेन की सर्वोच्च सत्ता से संपर्क किया। शिमला से वायसराय ने लंदन में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्‌स फॉर इंडिया को टेलीग्राम भेजकर इस घटना की सूचना दी। 23 सितंबर 1902 को टेलीग्राम क्रमांक 4155 आय.बी. में वायसराय लिखता है- 'इसके साथ ही महाराजा ने मेरी प्रस्तावित इंदौर यात्रा के विषय में अत्यंत ही अशिष्ट भाषा का उपयोग करते हुए इसका विरोध किया और कहा है कि वे इससे बिलकुल सहमत नहीं हैं। मुझसे सार्वजनिक रूप से भेंट करने से भी उन्होंने इंकार कर दिया है। इसी कारण मुझे अपनीप्रस्तावित इंदौर यात्रा रद्द कर देनी पड़ी। यंग हसबेंड ने उसे एक ऐसा विक्षिप्त व्यक्ति बतलाया है जिसे पागलपन के दौरे पड़ते हैं। उसने पूछा है कि महाराजा को यदि हटाया नहीं जाता तो क्या चिकित्सालय भेजकर उनका इलाज करवाया जाए? अगर वे ऐसी चिकित्सा से इंकार करते हैं तो उन्हें शासक के पद से मुक्त कर दिए जाने की बात पर हमें अड़े रहना चाहिए।'
 
इंदौर राज्य की भावी प्रशासनिक व्यवस्था की योजना भी प्रस्तुत की गई, जिसमें लिखा गया- 'भारत सरकार ने जो प्रशासनिक व्यवस्था अनुमोदित की है, उसके अनुसार महाराजा द्वारा गादी परित्याग कर देने पर वर्तमान मिनिस्टर व कौंसिल ही 'कौंसिल ऑफ रीजेंसी' के रूप में परिवर्तित हो जाएगी तथा इस पर रेजीडेंट का सामान्य नियंत्रण व निर्देशन रहेगा। सामान्यत: मिनिस्टर (प्रधानमंत्री) सभा की अध्यक्षता करेगा। कौंसिल की किसी एक या सभी बैठकों में रेजीडेंट हिस्सा ले सकेगा और जब कभी भी वह बैठक में उपस्थित होगा तो वही कौंसिल की अध्यक्षता भी करेगा। 1000 रु. से अधिक की राशि जब कभी एक शीर्ष से दूसरे शीर्ष में स्थानांतरित करनी होगी तो बजट में किए जाने वाले इस प्रकार के परिवर्तनों के लिए रेजीडेंट की अनुमति लेनी होगी।'
 
प्रस्तावित उक्त व्यवस्था से स्पष्ट है कि इंदौर राज्य के भावी प्रशासन पर पूरी तरह ब्रिटिश प्रभाव स्थापित होने जा रहा था क्योंकि महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) जो शिवाजीराव के उत्तराधिकारी थे, उस समय अल्प वयस्क थे।
 
पुत्र के पक्ष में गद्दी का त्याग
 
महाराजा शिवाजीराव होलकर व अंगरेजों के मध्य जो टकराहट उनके युवराजकाल से प्रारंभ हुई थी, वह लगभग उनके पूरे प्रशासनकाल (17 वर्षों) तक चलती रही। उनके चरित्र, व्यवहार, प्रशासन और आम धारणाओं को इस प्रकार निरूपित किया जाता रहा कि वे अयोग्य व विक्षिप्त हैं। भारत के वायसराय ने भी जब यही मत स्वीकार लिया तो ब्रिटेन की गृह सरकार के सेक्रेटरी टू हिज मेजेस्टी ने 27 सितंबर 1902 को एक टेलीग्राम वायसराय को भेजते हुए लिखा कि यदि महाराजा गादी त्यागने को तैयार हों तो वैसा कदम उठाया जाए।
 
उधर निरंतर ब्रिटिश विरोध, अपने कर्मचारियों के विश्वासघात व वृद्धावस्था के कारण महाराजा शिवाजीराव कठिनाइयां महसूस करने लगे थे। अंतत: 31 जनवरी 1903 ई. को महाराजा ने अपने एकमात्र पुत्र तुकोजीराव होलकर (तृतीय) के पक्ष में गादी त्याग दी। महाराजा को चार लाख रुपए प्रति वर्ष पेंशन दिया जाना तय हुआ। उससमय तुकोजीराव अल्पवयस्क थे, अत: 'कौंसिल ऑफ रीजेंसी' के माध्यम से अंगरेजों को होलकर प्रशासन में सीधा हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया, जो 1911 ई. तक जारी रहा।
 
उधर महाराजा शिवाजीराव ने नर्मदा के किनारे बड़वाह के दरिया महल को अपना निवास स्थल बनाया। नर्मदा, होलकर महारानी देवी अहिल्या की भी आराध्य थी और शिवाजी ने भी नर्मदा की आराधना करना चाही।
 
महाराजा ने यद्यपि राजकीय कार्यों से निवृत्ति पा ली थी किंतु ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध उनका गुप्त अभियान बराबर जारी रहा। अंगरेजों ने महाराजा को बड़वाह में एक प्रकार से नजर कैद-सा कर दिया था क्योंकि उन पर यह प्रतिबंध लगा दिया गया था कि वे वायसराय की पूर्वानुमति बगैर भारत के अन्य किसी राज्य की यात्रा नहीं कर सकते थे। यदि यह मान लिया जाए कि महाराजा अर्द्धविक्षिप्त हो गए थे तो ऐसे अर्द्धविक्षिप्त निवृत्त शासक की यात्रा से अंगरेज भयभीत क्यों थे?
 
महाराजा स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्होंने इस प्रतिबंध की भी परवाह नहीं की। उन्होंने गोपनीय रूप से राजस्थान व अन्य रियासतों की यात्राएं कीं और उन्हें अंगरेजों के विरुद्ध संगठित करने का प्रयास किया। ज्यों ही इस अभियान की सूचना ए.जी.जी.को प्राप्त हुई, उसने भारत सरकार के विदेश सचिव को अपने पत्र क्रमांक- 56, फरवरी 21, 1907 ई. में लिखा- '...मैंने अपने गोपनीय पत्र क्रमांक- 27, दिनांक 5 फरवरी, 1907 द्वारा भारत सरकार का ध्यान कई उन घटनाओं की ओर आकर्षित किया था जिसमें भूतपूर्व महाराजा ने भारत के विभिन्न भागों की यात्रा करके आदेश का उल्लंघन किया था। ...लेकिन देशी राज्यों की कोई भी यात्रा संबंधित दरबारों को पूर्व सूचना भेजे बगैर नहीं की जानी चाहिए और यह यात्रा निर्धारित दिवसों पर ही होना चाहिए।' यह पत्र अंगरेजों की चिंता दर्शाता है। महाराजा अपने इस अभियान में व्यस्त ही थे कि 13 अक्टूबर 1908 ई. को उनकी जीवनलीला समाप्त हो गई।
 
जन स्मृतियों में महाराजा शिवाजीराव होलकर
 
होलकर महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) द्वारा एक करोड़ का ऋण अंगरेजों को दिया गया था, खंडवा से इंदौर तक रेलवे लाइन डालने के लिए। यह भी शर्त रखी गई थी कि इंदौर राज्य की सीमा से गुजरने पर ट्रेन पर 'होलकर स्टेट रेलवे' की तख्ती लगाना होगी।
 
इंदौर रेलवे स्टेशन पर महाराजा होलकर के लिए एक पृथक सेलून आरक्षित खड़ा रहता था। महाराजा शिवाजीराव ने एक बार रेजीडेंट सेआग्रह किया कि इंदौर से चलने वाली यात्री ट्रेन पूरी की पूरी उनके लिए आरक्षित कर दी जाए। रेजीडेंट ने इस बात से इंकार करते हुए कहा, ऐसा नहीं किया जा सकता। शिवाजीराव ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। रेजीडेंट को खबर भेजी गई कि महाराजा जिस ट्रेन से जाने वाले हैं वह पूरी खाली रहेगी और उसके लिए उन्होंने एक योजना भी बना ली। रेजीडेंट ने भी जिद पकड़ ली और कहा- 'उस ट्रेन में सामान्य यात्रियों को टिकट दिए जाएं।' अंगरेज, रेलवे अधिकारियों ने ट्रेन के टिकट बेचने प्रारंभ किए। वे मन ही मन प्रसन्न थे कि सैकड़ों यात्रियों ने टिकट खरीद लिए हैं और महाराजा की जिद टूट जाएगी। ट्रेन के निर्धारित समय पर रेजीडेंट स्वयं स्टेशन जा पहुंचा। समय से 10 मिनट पूर्व महाराजा व उनके सेवकों का दल स्टेशन पहुंचा। उस समय तक भी प्लेटफार्म पर भीड़ न देखकर रेजीडेंट ने तलाश करवाया कि कितने टिकटों की बिक्री हुई है? कई सौ की संख्या बताई गई थी। रेजीडेंट प्रसन्न था, लेकिन जब ट्रेन चलने का समय हो गया, तब यह रहस्य खोला गया कि महाराजा ने अपने आदमी भेजकर तमाम टिकट खरीद लिए थे। अन्य कुछ जो यात्री थे, उन्हें अंतिम डिब्बे में बैठा दिया गयाथा। रेजीडेंट देखता रह गया। ट्रेन लगभग खाली ही रवाना हुई।
 
दूसरी घटना इंदौर में अकाल पड़ने के समय की है। अन्न बहुत महंगा हो गया था और गरीबों के लिए भूखों मरने की नौबत आ गई थी। महाराजा ने मल्हारगंज मंडी के खाद्यान्न व्यापारियों को बुलवाकर पूछा कि नगर में अनाज की कमी क्यों पड़ गई है? जमाखोरी करने वाले व्यापारियों ने कहा- 'हुजूर अनाज हमारे पास भी नहीं बचा, थोड़ा-बहुत है, सो बेच रहे हैं।' महाराजा ने उन्हें आदेशित किया कि जिसके पास जितनी मात्रा में अनाज हो, लिखित में कोषालय को सूचित कर दें।
 
अगले दिन महाराजा ने आदेश दिया कि अनाज मंडी के गोदाम लूट लें। एक परिवार के लिए एक बोरी अनाज ले लिया जाए। फिर क्या था? देखते ही देखते मंडी लूट ली गई। व्यापारी समुदाय महाराजा के पास पहुंचा तो महाराजा का अगला आदेश था- 'कल कोषालय में जिसने जितना अनाज भंडार का ब्योरा दिया था, उतनी रकम कोषालय से ले लें।'
 
(इंदौर की प्राचीन फर्म घमंडसी जुव्हारमल के सदस्य स्व. श्री पदमसिंहजी श्यामसुखा से लेखक को प्राप्त जानकारी के आधार पर)
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