गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. अपना इंदौर
  3. इतिहास-संस्कृति
  4. railways of the state came like this in Indore

इंदौर में ऐसे आई होलकर राज्य की रेलवे

इंदौर में ऐसे आई होलकर राज्य की रेलवे - railways of the state came like this in Indore
होलकर रियासत की नैरोगेज (मीटरगेज या छोटी) रेलवे लाइन इंदौर शहर को ग्रेट इंडियन पैनिन्सुला रेलवे लाइन से निमाड़ के प्रमुख शहर खंडवा को जोड़ने वाली प्रमुख लाइन थी। इस लाइन को बनाने के लिए ग्रेट इंडियन पैनिन्सुला रेलवे कंपनी ने कुछ समय के लिए इरादा भी किया था। साथ ही पटरी बिछाने के लिए इलाके का सर्वे भी किया था, लेकिन नर्मदा नदी तथा विंध्याचल पर्वत माला में रेल चलाने की लागत बहुत अधिक होने के कारण इसे वर्ष 1869 तक महाराजा तुकोजीराव होलकर (द्वितीय) से समझौता होने तक स्थगित कर दिया गया।
 
महाराजा होलकर ने अंगरेज सरकार को रेलवे लाइन बिछाने के लिए 1 करोड़ रुपए का कर्ज 101 साल तक के लिए देने की शर्त के साथ प्रदान किया था। यह कर्ज अहस्तांतरणीय होने के साथ-साथ हमेशा के लिए महाराजा होलकर अथवा उनके वारिसों के नाम से ही जाना जाएगा। इसे अंगरेज सरकार की बॉम्बे स्थित ट्रेजरी में इस तरह जमा किया जाना था। इसमें 25 लाख 1870-71 में, 20 लाख 1871-72 में और शेष 55 लाख रुपए 1872-77 में जमा किया जाना था।
 
यह समझा जाता है कि होलकर महाराजा यह रकम अपने अतिरिक्त राजस्व से देने वाले थे तथा खजाने से इसे लेने की जरुरत नहीं थी। अंगरेज सरकार ने इस कर्ज के पेटे साढ़े 4 प्रतिशत ब्याज देना स्वीकार किया था। इसी के साथ नेट प्रॉफिट का आधा हिस्सा भी होलकर महाराजा को अंगरेज सरकार ने देना तय किया था। शर्त के अनुसार अंगरेज सरकार को यह रेलवे लाइन बहुत तेजी से पूरी करना थी और इसके निर्माण में धन तथा उपकरण मुहैया करना थे। निर्माण कार्य प्रबंधन एवं देखरेख की पूरी जिम्मेदारी अंगरेज सरकार की थी। इस समझौते को 'एटचिन्स ट्रीटी' के नाम से जाना जाता है। यह समझौता मुख्यत: 3 बिंदुओं पर हुआ था।
 
1. होलकर महाराजा ने रेलवे लाइन तथा स्टेशनों के निर्माण में आने वाली जमीन को नि:शुल्क देना तय किया था। साथ ही रेलवे की सीमा में आने वाली भूमि को व्यापार अथवा निवास के लिए नहीं दी जाएगी। रेलवे सीमा से बाहर बनने वाले गोदाम, धर्मशाला वगैरह होलकर दरबार की न्याय सीमा में रहेंगे।
 
2. रेलवे लाइन के लिए जरूरी कार्यस्थल, पुल के लिए लगने वाली जमीन के दीवानी एवं फौजदारी मामले ब्रिटिश सरकार के अधीन रहेंगे।
 
3. रेलवे यातायात की ट्रांजिट ड्‌यूटी होलकर राज्य वसूलेगा।
 
ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर से कुछ शर्तें रखी थीं
 
1. ब्रिटिश सरकार होलकर दरबार के उन अपराधियों को लौटा देगी, जिन्होंने रेलवे सीमा में शरण ले रखी है, फिर भी यदि ये अपराधी ब्रिटिश राज्य की सीमा में भाग जाते हैं, तो उन्हें होलकर दरबार को सौंपने का अधिकार ब्रिटिश सरकार के विवेक पर निर्भर होगा।
 
2. रेलवे सीमा में किए गए अपराधों के लिए ब्रिटिश सरकार होलकर दरबार को जिम्मेदार नहीं ठहराएगी, बशर्तें वे होलकर राज्य के निवासी न हों।
 
3. कुछ खास मामलों में अपना विशेषाधिकार कायम रखते हुए ब्रिटिश सरकार होलकर दरबार को रेलवे सीमा में हुए अपराधों पर मुकदमा चलाने और सजा सुनाने पर ऐतराज नहीं करेगी।
 
इन शर्तों के अलावा होलकर राज्य रेलवे के निर्माण में लगने वाले सामान पर रॉयल्टी वसूलना चाहता था, लेकिन ब्रिटिश सरकार इस पर राजी नहीं हुई। रेलवे प्रोजेक्ट को सेंट्रल इंडिया के गवर्नर जनरल सर हैनरी डेली ने खुशी से स्वीकार किया था। ब्रिटिश सरकार ने इस प्रोजेक्ट के सर्वे के लिए वर्ष 1870 के शुरुआती महीनों में सभी आवश्यक प्रबंध करते हुए क्रॉफर्ड कैंपबेल को स्टाफ सहित सुप्रिटेंडेंट इंजीनियर नियुक्त किया।
 
प्राथमिक सर्वे
 
1. खंडवा से मोरटक्का और नर्मदा को पार कर बलवाड़ा तक लाइन को बनाना व्यावहारिक होगा, क्योंकि चढ़ाई 0.57 डिग्री की थी।
 
2. बलवाड़ा से चोरल चौकी तक रेलवे लाइन डालना सबसे आसान एवं कम खर्चीला होगा।
 
3. चोरल से महू तक रेलवे लाइन में महादेव कुंड के निकट 4 मील (उन दिनों यही पैमाना चलता था) की बहुत कठिन यानी 1.5 डिग्री की चढ़ाई थी। इसके बाद महू होते हुए इस लाइन को इंदौर तक बिछाना आसान था।
 
सरकार का फैसला
 
ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1870-71 की सर्दियों में और गहन सर्वे कराने का फैसला किया और मिस्टर कैंपबेल को ज्यादा बड़ा स्टाफ दे दिया। सरकार का जोर इस बात पर था कि बलवाड़ा से चोरल तक की चढ़ाई को 0.57 डिग्री तक लाया जाए। इसी के साथ भाई घाटी, बालम घाटी, मोटी जाम, लूधिया खाल जैसे दूसरे दर्रों का भी गहन सर्वे कराने का फैसला लिया गया ताकि वैकल्पिक लाइन बिछाने की जरुरत हो तो काम किया जा सके। इसी के साथ सरकार ने चोरल घाटी में चौलिया गांव से बलवाड़ा तक 1 के अनुपात में 300 फीट की स्केल पर एक विस्तृत सर्वे कराने का निर्णय लिया, जिसमें पहाड़ी के किनारे बारीकी से हर उतार-चढ़ाव का विवरण दर्ज किया जा सके।
 
विस्तृत सर्वे के परिणाम
 
विस्तृत सर्वे से यह पता चल गया कि घाटी में वैकल्पिक चढ़ाई वाले रास्तों पर लाइन बिछाना अव्यावहारिक होगा, जबकि पूर्व में प्रस्तावित इलाके में लाइन बिछाना ज्यादा आसान होगा। चोरल से बलवाड़ा तक के हिस्से में पहाड़ी की एक ओर सावधानी से लाइन बिछाते हुए घुमावदार चक्करों से होते हुए दूसरी ओर निकालते हुए इसे अधिक आसान बनाया जा सकता है। सितंबर महीने तक मिस्टर कैंपबेल ने विस्तृत नक्शे सरकार के समक्ष रख दिए। कुछ समय बाद उनके प्रस्ताव मंजूर हुए और टेंडर बुला लिए गए।
 
इस बीच मिस्टर क्रॉफोर्ड कैंपबेल का इंजीनियर इन चीफ के तौर पर प्रमोशन हो गया और वे सिंधु घाटी में रेलवे लाइन बिछाने के लिए चले गए। उनके स्थान पर चार्ल्स शीन की नियुक्ति हुई, जिन्हें यूरोप, सीलोन जैसे देशों में रेलवे लाइन बिछाने का तगड़ा अनुभव था। नवंबर में मेसर्स हुड, विंटन, मिल्स और ओग के टेंडर स्वीकार किए गए। रेलवे लाइन के निर्माण को 4 हिस्सों में बांटा गया था।
 
फर्स्ट डिवीजन : खंडवा स्टेशन से मोरटक्का के पास मोरगर्री स्टेशन तक का निर्माण।
 
सेकंड डिवीजन : मोरगर्री से बलवाड़ा तक का हिस्सा जिसमें नर्मदा नदी पर पुल का निर्माण भी शामिल है।
 
थर्ड डिवीजन : बलवाड़ा से महू के पास चौलिया तक।
 
फोर्थ डिवीजन : महू के पास चौलिया से इंदौर स्टेशन तक का निर्माण।
 
फर्स्ट डिवीजन
 
इस डिवीजन के पहले हिस्से की जमीन रेलवे लाइन निर्माण के लिहाज से बहुत कठिन है। खंडवा स्टेशन समुद्र तल से 1,000 फीट ऊपर है और यहां से उत्तर की ओर बढ़ती हुई रेलवे लाइन को 3 मील तक कठिन चढ़ाई का सामना करना पड़ता है और यहीं एक नाला है, जिस पर 10 स्तंभों का एक पुल बनाया गया, जिसकी लंबाई 190 फीट थी। शुरुआत में इसे पर्याप्त समझा गया था, लेकिन वर्ष 1872 में आई भारी बाढ़ ने इसकी क्षमता पर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। 7वें मील पर अजंटी स्टेशन बनाया गया। अजंटी स्टेशन पार करने के बाद 8वें मील पर नर्मदा का दक्षिणी किनारा सामने आता है। यह हिस्सा समुद्र तल से 1,100 फीट ऊपर है। साढ़े 8 मील पर देवलान से बहुत ही सुंदर छोटी घाटी सामने नजर आने लगती है।
 
छोटे-छोटे नालों को पार करते हुए चट्टानों को काटते हुए रेलवे लाइन 12वें मील पर खेतों से होते हुए सिर्रारी गांव जा पहुंचती है। यहां से लाइन सीधे कोण पर मुड़कर घाटियों तथा चट्टानों वाली पहाड़ियों की एक श्रृंखला को पार करते हुए साढ़े 17 मील पर अतर स्टेशन तक पहुंच जाती है। यहां से अगले स्टेशन यानी 26वें मील पर खेड़ी स्टेशन के बीच रेलवे लाइन को बहुत कठिन रास्तों से होकर गुजरना पड़ा। कई महत्वपूर्ण नालों पर पुल बनाए गए। राह में आ रही कई चट्टानों को काटा गया।
 
एक पुल 12 मीटर या 40 फीट की लंबाई में बनाया गया था। एक दूसरा पुल 40 फीट की चौड़ाई में 3 हिस्सों में बनाया गया था। इसके अलावा छोटे-छोटे कई पुल भी इस इलाके में बनाए गए थे। इस हिस्से की लंबाई में कई छोटी-छोटी उप नदियां पार करना पड़ी थीं, जो बाद में बाकर नदी में मिल जाती थी। यह नदी अंतत: सनावद से होकर गुजरती है। इसी नदी पर खोटलखेड़ी में 40-40 फीट चौड़ाई के 3 पुल बनाए गए थे।
 
खेड़ी स्टेशन से सनावद तक रेलवे लाइन खेतों से होकर गुजरती है। रेलवे लाइन से सिर्फ 100 गज की दूरी से बाकर नदी गुजरती है, जो इस इलाके की प्रमुख जलधारा मानी जाती है। सनावद पहुंचते हुए रेलवे लाइन 33वें मील से 1 मील तक कठिन चढ़ाई है। यहां चट्टान को 25 फीट गहरा और 2,500 फीट लंबाई में काटकर रेलवे लाइन आगे बढ़ जाती है। यहां से आगे बढ़ते हुए मोरगर्री से तेजी से ढलान शुरू हो जाती है और खंडवा स्टेशन से 36.5 मील दूर इस रेलवे लाइन का दूसरा डिवीजन शुरू होता है।

 
सेकंड डिवीजन
 
खंडवा से 36.5 मील दूर नर्मदा नदी का दक्षिणी किनारा शुरू होता है। यहां एक विशाल पुल का निर्माण होगा, जिसका प्रतिष्ठापूर्ण नाम 'होलकर नर्मदा ब्रिज' दिया गया है। यह पुल 200 फीट की दूरी पर 14 ढलवां लोहे (रॉट आयरन) के गर्डरों से वॉरेन पैटर्न पर बनाया गया था। इस तरह के सिस्टम में त्रिकोण के आकार के जाल सपोर्ट के लिए लगाए जाते हैं। पुल के ऊपरी हिस्से में रेल की पटरियां होंगी तथा निचले हिस्से में बैलगाड़ियों के लिए सड़क बनाई जाएगी। यह इतनी चौड़ी होगी, जिसमें एक समय में एक दिशा से बैलगाड़ी की एक ही पंक्ति जा सकती है। नदी के तल से 100 फीट ऊपर रेलवे लाइन होगी।
 
यहां बाढ़ के दिनों में जल का स्तर 66 फीट तक ऊपर आ जाता है। बाढ़ के वक्त पानी की गति 13 मील प्रति घंटा होती है। वर्ष 1875 में 45 फीट ऊंची बाढ़ आई थी, जिसकी वजह से मिस्टर शीन को खंभों की ऊंचाई 5 फीट और बढ़ाना पड़ी थी। इस ऊंचाई पर यदि 66 फीट ऊंची बाढ़ भी आ जाती तो भी पुल को पानी स्पर्श नहीं कर पाता। पुल एक्जीक्युटिव इंजीनियर मिस्टर जेम्स रामसे ने वर्ष 1872 में बनाना शुरू किया था। इसी साल दिसंबर में सेंट्रल इंडिया के गवर्नर जनरल और वॉइसराय हिज एक्सीलेंसी लॉर्ड नॉर्थब्रुक ने सेंट्रल इंडिया के प्रमुख राजाओं का बड़वाह में एक ग्रांड दरबार आयोजित किया था। इसी मौके पर उन्होंने पुल की आधारशिला रखी थी।
 
फरवरी 1873 में एक्जीक्युटिव इंजीनियर रामसे का ट्रांसफर हो गया और उनके स्थान पर मिस्टर एलेक्जेंडर आ गए। मई 1875 में मिस्टर एलेक्जेंडर 2 को छोड़कर सभी स्तंभों के फाउंडेशन बनाने में सफल हुए थे। 3 स्तंभों को वे पूरी ऊंचाई तक बना चुके थे। अक्टूबर 1874 में मिस्टर एलेक्जेंडर जिम्मेदारी से मुक्त हो गए और उनके स्थान पर मिस्टर आईजेट एक्जीक्युटिव इंजीनियर नियुक्त किए गए। इन्होंने वर्ष 1875 मई तक पानी में बने 6 स्तंभों का सुपर स्ट्रक्चर पूरा कर लिया। वे गर्डर उठाने की तैयारी कर चुके थे, साथ ही शेष 4 स्तंभों को भी पूरा कर रहे थे। जून 1876 से पहले तक सभी स्तंभ इतनी ऊंचाई तक उठ चुके थे कि नदी में आने वाली बाढ़ का सामना कर सकें। नदी के तट की पूरी चौड़ाई में सभी स्तंभों पर गर्डर अपने नियत स्थान पर लगाई जा चुकी थी।
 
अक्टूबर 1876 में महाराजा होलकर एवं सर हैनरी डेली (एजेंट टू गवर्नर जनरल) ने औपचारिक रूप से इस पुल को जनता के लिए खोल दिया। महाराजा होलकर का राजरथ (बग्घी) तोपों की सलामी के बीच पुल पार कर दूसरी ओर पहुंचा। उस पार पहुंचने के बाद धुएं के संकेत से इसकी सूचना दूसरे किनारे पर दी गई। इसके बाद महाराजा होलकर ने पुल के लोहे के गर्डर में चांदी का आखिरी रिबेट ठोककर इस पुल की संपूर्णता पर अपनी मोहर लगा दी। यह चांदी का रिबेट आज भी इस पुल पर लगा हुआ है।
 
नर्मदा ब्रिज से रेलवे लाइन 0.57 डिग्री की चढ़ाई से होते हुए 12 मील दूर पहाड़ी की तलहटी में बलवाड़ा तक जा पहुंचती है। यहां आकर सेकंड डिवीजन समाप्त होता है। रेलवे लाइन के इस हिस्से में बहुत बड़े पुल नहीं बनाना पड़े थे। केवल 40-40 फीट के तीन पुल नालों और तेज बहाव के हिस्सों में बनाए गए थे। 4 छोटे पुल 20-20 फीट की चौड़ाई के बनाए गए थे। इसके अलावा 40 छोटे पुल अथवा पुलियाएं बनाई गई थीं।
 
थर्ड डिवीजन
 
बलवाड़ा से रेलवे लाइन लगातार ऊंचाई की ओर चढ़ती जाती है। इस इलाके में घाटी का बहुत सुंदर परिदृश्य दिखाई देता है। 51वें मील तक पहुंचते हुए रेलवे लाइन चट्टानों को काटकर बिछाई गई थी। यहां रेलवे लाइन सड़क को पार कर आगे बढ़ जाती है। यहां से चढ़ाई इतनी कठिन हो जाती है कि लगता है कि रेल इंजनों को पागलों की तरह काम करते हुए पूरी ट्रेन को खींचना पड़ता था। यहां कोई बोगदा दिखाई नहीं देता है, लेकिन अचानक रेलवे लाइन बाईं ओर मुड़ती है। 2 मील आगे बढ़ने पर यात्रियों को दाहिनी ओर एक चौथाई मील की दूरी पर अच्छी-खासी ऊंचाई पर दूसरी रेल लाइन दिखाई देती है।
 
ऊपर की ओर बढ़ते हुए यात्रियों को पुन: एक चौथाई मील की दूरी पर दाहिनी ओर एक रेलवे लाइन काफी नीचे की ओर दिखाई देती है। यह इस बात का प्रमाण भी है कि रेलवे लाइन घाटी के एक ओर से पार करते हुए दूसरी ओर निकल आई है। इस प्रक्रिया में रेलवे लाइन एक पूरे सेमी सर्कल को बनाते हुए आगे बढ़ जाती है। इस तरह पहाड़ी की ऊंचाई पर रेल को पटरियों पर फिसलने से भी बचाया जाता है। खंडवा से 55वें मील तक रेलवे लाइन पहाड़ी के इर्द-गिर्द चढ़ती-उतरती हुई चट्टानों को गहराई से काटकर बनाए गए बोगदे को पार करती है। यहां खुले में आकर इंजन को जैसे सांस मिलती है। बलवाड़ा घाट पारकरके रेलवे लाइन धीरे-धीरे चोरल चौकी की ओर उतरने लगती है।
 
चोरल चौकी एक छोटी-सी रिहायशी जगह है, जो मूल रूप से बैलगाड़ी के अड्‌डे के रूप में उभरकर सामने आई थी। जनवरी 1875 में रेलवे लाइन खुलने के बाद यहां बसाहट बढ़ने लगी। शुरुआत में अस्थायी ट्रामवे से नर्मदा घाटी में यातायात चालू किया गया था। 8 महीने ट्रामवे चलती थी, शेष बारिश के 2 महीनों में नर्मदा के दोनों किनारों तक ट्रेन चलती थी और सामान तथा यात्रियों को उतारकर लौट जाती थी। बाद में सामान और यात्री नौकाओं से एक तट से दूसरे तक नर्मदा नदी पार करते थे। इस लिहाज से चोरल एक टर्मिनस बन गया था, हर दिन घास की नई कुटियाएं बनकर खड़ी हो रही थीं और कुछ ही समय में अच्छी-खासी बस्ती बस गई थी।
 
चोरल चौकी को पार करते ही एक अच्छा पुल सामने आता है। इसे चोरल नं. 1 नाम दिया गया है। 100-100 फीट की चौड़ाई के 3 हिस्सों में यह पुल बनाया गया है। यह पुल नदी से 50 फीट ऊपर है। इसी पुल के साथ-साथ एक दूसरा लोहे का पुल है जिससे होकर सड़क नदी के पार जाती है। यहां से रेलवे लाइन पुराने घाट रोड को क्रॉस करके सीधा कोण बनाते हुए आगे बढ़ती है। एक मील पार करके रेलवे लाइन सड़क को एक समपार पर क्रॉस करती है और लूधिया नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ती है।
 
गहराई से काटी गई चट्‌टानों को पार करके सामने आता है लूधिया नदी पर बना लूधिया पुल। यह पुल 100-100 फीट के 2 हिस्सों में बनाया गया है। रेलवे लाइन के इस हिस्से में एक दिलचस्प बिंदु आता है, इसे युटेरिया क्लिफ के नाम से जाना जाता है। यहां रेलवे लाइन चोरल के किनारे-किनारे ऊंची पहाड़ी पर आगे बढ़ती है। यहां घाटी का तल रेलवे लाइन से 50 फीट नीचे नजर आता है। इस खूबसूरत घाटी को पार करके कालाकुंड रेलवे स्टेशन आ जाता है। यहीं घाट के लिए इंजन लगाए और निकाले जाते हैं। कालाकुंड से आगे बढ़ने वाली ट्रेन में 2 इंजन लगाए जाते हैं। एक इंजन आगे तथा दूसरा इंजन ट्रेन के पीछे लगाया जाता है। यहां से डेढ़ मील तक 0.9 डिग्री की कठिन चढ़ाई शुरू होती है। इसके बाद 1.5 डिग्री की और जटिल तथा कठिन चढ़ाई शुरू हो जाती है।
 
पहला बड़ा पुल जिसे चोरल नं. 2 कहा जाता है, वह सामने आता है। यह पुल 100-100 फीट के 3 हिस्से की चौड़ाई में बनाया गया है। इसे पार करते ही रेलवे लाइन एक चक्र में घूमते हुए घाटी में आगे बढ़ती है। नीचे इमलीपुरा को पार करते हुए रेलवे लाइन 100-100 फीट की चौड़ाई के 3 हिस्सों में बने चोरल नं. 3 नामक पुल को पार करके आगे बढ़ती है। ऊपर चढ़ती हुई रेलवे लाइन के बाईं ओर नदी बहती है और दाहिनी ओर पहाड़ी है। यहां लाइन एक टनल से होकर गुजरती है और बाहर आने के बाद यात्रियों को महसूस होता है कि रेल एक संकरे हिस्से से होकर गुजर रही है और नीचे चोरल नदी बह रही है।
 
यहां आकर लाइन नं. 1 वायाडक्ट से गुजरती है, जो गहरी घाटी में 120 फीट के 2 हिस्सों में बना है। यहां पैरापेट नहीं बनाई गई है और यात्रियों को लगता है कि रेल जरा से धक्के में ही नीचे की अतल गहराई में गिर सकती है। इसके बाद टनल नं. 2 आती है, जो रेलवे लाइन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस बोगदे को बनाने में कारीगरों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि नर्म चट्‌टानें भरभराकर गिर जाती थीं। बाद में यह तय हुआ कि सख्त हिस्से को फोड़कर बोगदा बना लिया जाए और बाद में लाइनिंग बनाकर बोगदे के दोनों द्वारों के शिखर पर फिर से भराव कर दिया जाए।
 
दिसंबर 1877 में इस बोगदे की लाइनिंग का आखिरी पत्थर लगाया जा सका। 1 जनवरी तक घाट का यह हिस्सा खोल दिया गया और ट्रेन खंडवा से महू तक आने-जाने लगी। बोगदा पार करने के बाद लाइन वायाडक्ट नं. 2 से होकर गुजरती है। यह डक्ट घाटी के तल से 120 तथा 150 फीट ऊपर 3 हिस्सों में बनी है, जिसे श्रेष्ठ निर्माण कार्य माना जाता है। चोरल घाटी पार कर रेलवे लाइन 1 मील तक उपनदियों और छोटे-छोटे नालों के कारण बनी घाटी को पार करके आगे बढ़ती है। 3 और 4 नंबर के बोगदों को पार करने के बाद बाईं ओर महादेव कुंड या पातालपानी का खूबसूरत झरना दिखाई देने लगता है। पातालपानी टेलीग्राफ स्टेशन से आगे पटरियों को आधे मील तक 1.5 डिग्री के कोण पर ढलान पर बिछाया गया है ताकि ब्रेक्स की परीक्षा की जा सके।
 
दो मील आगे गोराड़िया के पास 70 फीट की लोहे की गर्डर लगाई गई है। खंडवा से 73वें मील की दूरी तय करने के बाद महू स्टेशन आता है। नर्मदा नदी से 35 मील दूर महू तक आते-आते रेलवे लाइन 1300 फीट तक ऊपर उठाई गई थी। महू से निकलकर राऊ तक 79वें मील तक रेलवे लाइन लगातार ऊंची उठती जाती है। यहां समुद्र तल से लाइन की ऊंचाई 1900 फीट तक हो जाती है। यहां से इंदौर स्टेशन तक पहुंचते हुए लाइन लगातार ढलान का सामना करते हुए आगे बढ़ती है।
 
इंदौर रेलवे स्टेशन महाराजा होलकर के कॉटन मिल के समीप बनाया गया है। खंडवा से इंदौर तक की दूरी 86 मील है। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है रेलवे लाइन बिछाने के काम का ठेका सरकार ने मेसर्स हुड, विंटन, मिल्स और ओग आदि को दिया था, जिन्होंने फर्स्ट डिवीजन का काम पूरा किया था, लेकिन जब दिसंबर 1873 में यह देखा गया कि ठेकेदारों ने फर्स्ट डिवीजन के काम को पूरा करने के अलावा दूसरे किसी काम को हाथ तक नहीं लगाया है, तो उन्हें ठेके से अलग कर दिया।
 
बाद में रेलवे लाइन का पूरा काम सरकार के विभागीय इंजीनियरों ने पेटी कांट्रेक्टरों और रोजनदारी से इकट्‌ठा किए गए मजदूरों की मदद से पूरा किया। इतनी जटिल रेलवे लाइन को पूरा करना आसान नहीं था। इसके लिए संगठन क्षमता तथा दूरंदेशी की जरूरत थी। जब रेलवे लाइन का काम शुरू हुआ, तब मजदूर बहुत कम थे तथा मुश्किल से मिलते थे।
 
ठेकेदारों ने गट्‌टा खदान से मजदूरों को लाना शुरू किया था। यहां से ही ट्रामवे के जरिए कच्चा माल नर्मदा नदी को पार करके लाया जाता था। थर्ड डिवीजन के काम में कच्चे माल की कमी सामने आ रही थी। यहां दूर-दूर तक अच्छा रॉ मटेरियल नहीं मिल रहा था। कच्चे माल की खोज 20 मील दूर जाकर पूरी हुई, इसीलिए वर्ष 1874 में एक 20 मील की अस्थायी लाइन डाली गई। अगर 2 नंबर की टनल में एक्सीडेंट नहीं हुआ होता तो रेलवे लाइन जून 1877 में शुरू हो चुकी होती।
 
नीमच स्टेट रेलवे
 
नीमच स्टेट रेलवे इंदौर को देश के प्राचीन शहर उज्जैन और अफीम के एक बड़े बाजार रतलाम से जोड़ती है। यह लाइन फतेहाबाद में 2 दिशाओं में बंट जाती है। एक शाखा उत्तर की ओर उज्जैन की ओर चली जाती है, जबकि मुख्य लाइन बड़नगर या नोलाई की ओर पश्चिम की तरफ मुड़ जाती है। यहां से उत्तर की ओर बढ़ते हुए रतलाम होते हुए नीमच पहुंच जाती है। भविष्य में इसे नसीराबाद (राजस्थान) तक बढ़ाने की योजना थी। यहां यह लाइन राजपुताना स्टेट रेलवे से जुड़ना थी। इससे उत्तर भारत, मध्यभारत तथा पश्चिम भारत एक-दूसरे से जुड़ते।
 
परिदृश्य
 
यहां रेल लाइन मैदान से होकर गुजरती है, जहां मक्का और बाजरे के खेत हैं। क्षितिज पर कभी-कभी निचली पहाड़ी दिखाई देती है, जिस पर बनी छोटी किलेनुमा पुरानी गढ़ियां एकरसता को तोड़ती हैं। इंदौर से फतेहाबाद की ओर चलते हुए 25 मील की दूरी पर एक कठिन मोड़ लेती है। खान नदी पर 12 मीटर चौड़े 7 हिस्सों को पार करते हुए आगे बढ़ती है।
 
लाइन के इस हिस्से में पत्थरों की आपूर्ति देवगुराड़िया की खदानों से ट्राम के जरिए की जाती थी, जो मुख्य लाइन से जुड़ी हुई थी। इससे पहले फरवरी 1875 में उज्जैन से 5 मील उत्तर-पश्चिम की ओर बेनाकिया की खदानों से पत्थर लाना तय किया गया था, लेकिन कई परीक्षणों के बाद इन खदानों से पत्थर लाने का विचार त्याग दिया गया। वर्ष 1876-77 में देवगुराड़िया की खदानों का चयन किया गया, क्योंकि यहां के पत्थरों की गुणवत्ता ठीक पाई गई थी।
 
24 जुलाई 1876 को ट्रेन पहली बार इंदौर से उज्जैन सभी पुलों को पार करते हुए पहुंची। इस ट्रॉयल रन के दूसरे दिन यातायात के लिए खोलने से पहले गवर्नमेंट ऑफ बॉम्बे के कंसल्टिंग इंजीनियर ने पूरी लाइन का निरीक्षण किया। यातायात के लिए लाइन 31 जुलाई 1876 तक तैयार थी तथा 3 अगस्त 1876 से पैसेंजर ट्रेन नियमित रूप से इंदौर से उज्जैन की ओर चलने लगी। फतेहाबाद से बड़नगर की दूरी के बीच रेलवे लाइन चंबल नदी तथा इसकी सहायक नदियों पर शानदार पुलों को पार करती है।
 
पहाड़ों को चीरकर पहुंची थी इंदौर में रेल
 
इंदौर में रेलवे न होने के कारण कपड़ा मिल की मशीनें खंडवा से इंदौर तक हाथियों पर लदकर आई थीं। तभी से महाराजा होलकर ने यह निश्चय कर लिया था कि इंदौर नगर को रेल लाइन से जोड़ा जाएगा, चाहे इसके लिए जो भी करना पड़े। आर्थिक समृद्धि और औद्योगिक-व्यापारिक विस्तार के लिए वे नगर को शेष भारत से रेलमार्ग द्वारा जोड़ना चाहते थे। सारे देश में रेलवे पर ब्रिटिश एकाधिकार था अत: महाराजा ने भारत सरकार से अनुरोध किया कि इंदौर नगर को खंडवा व राजपुताना से रेल द्वारा जोड़ा जाए। उनके अनुरोध पर प्रस्तावित रेलवे लाइन पर चर्चा करने के लिए 1863 में श्री ए.एस. आर्टन को इंदौर भेजा।
 
श्री आर्टन ने रेलवे लाइन स्थापित करना तो संभव बताया किंतु खंडवा से इंदौर के मध्य पड़ने वाली सतपुड़ा व विंध्याचल की ऊंची पहाड़ियों और नर्मदा नदी को बड़ी बाधा निरूपित किया। संभवत: महाराजा को ऋण हेतु तैयार करने के लिए यह एक मानसिक दबाव डालने की साजिश थी। वास्तव में ब्रिटिश सरकार इस रेलवे लाइन का निर्माण करने में रुचि रखती थी, क्योंकि इसके निर्माण से ब्रिटिश छावनी महू और नीमच भी रेल लाइन से जुड़ जातीं, जहां से वे तेजी से मिलिट्री मूवमेंट कर सकते थे।
 
इंदौर में रेल लाने के लिए महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) व ब्रिटिश सरकार के बीच 6 वर्षों तक लंबा पत्र व्यवहार चलता रहा। अंगरेजी सरकार ने आर्थिक समस्या व धनाभाव बताकर इस रेलवे लाइन को रद्द करने की इच्छा प्रकट की। महाराजा तो किसी भी हालत में रेलवे लाइन का निर्माण करवाने पर कटिबद्ध थे। उन्होंने धनाभाव के बहाने को समाप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार को ऋण देना भी स्वीकार कर लिया। पहले यह ऋण कम अवधि के लिए दिया जाने का प्रस्ताव था किंतु अंगरेजों ने यहां भी बाधा उत्पन्न करने के लिए ऋण की अवधि 101 वर्ष रख दी।
 
अंतत: महाराजा ने उनकी यह शर्त भी स्वीकार कर ली और 1869 में पूरे 1 करोड़ का ऋण साढ़े 4 प्र.श. वार्षिक ब्याज की दर पर अंगरेजों को 101 वर्षों की अवधि के लिए दे दिया गया। यह भी तय हुआ कि साढ़े 4 प्र.श. ब्याज के भुगतान के बाद जो लाभ होगा, उसका आधा अंश होलकर महाराजा को दिया जाएगा।
 
इस समझौते के तहत खंडवा से रेलवे लाइन बिछाने का काम युद्ध-स्तर पर प्रारंभ हुआ और 1872 तक इस लाइन को मोरटक्का तक निर्मित कर दिया गया। 3 मई 1872 को मोरटक्का में एक कार्यालय स्थापित किया गया, जहां से आगे का निर्माण कार्य नियंत्रित किया जाना था।
 
नर्मदा पर मजबूत रेलवे पुल का निर्माण किया गया। आगे पर्वतीय क्षेत्र था। पहाड़ों की चट्टानों को काट-काटकर बोगदे बनाने थे, जो साधनों के अभाव में वन्य पशुओं की बहुलता वाले उस क्षेत्र में अत्यंत दुष्कर कार्य था। पर्वतों को छेद कर आखिर रेलमार्ग बना ही लिया गया। 9 वर्षों के निरंतर परिश्रम के बाद आखिर रेल लाइन 1878 ई. में इंदौर नगर आ पहुंची। उसी वर्ष पहली रेलगाड़ी भी इस शहर में आई।
 
समझौते के अनुसार लाभांश का आधा अंश होलकर को मिलना था, किंतु 1918 तक भी कभी ऐसा लाभांश नहीं मिला, क्योंकि जान-बूझकर इस लाइन को घाटे में रखा गया। दिल्ली से बंबई का ट्रैफिक तो रतलाम होकर जाता ही था लेकिन महू तक के यात्रियों को रतलाम होकर बंबई भेजा जाता था ताकि लाभ अंगरेजों को मिले।
 
2 नवंबर 1918 को प्रो. स्टेनले जेविंस ने इंदौर राज्य में संभावित रेलवे लाइनों के निर्माण की एक विस्तृत योजना बनाकर प्रस्तुत की थी, जिसमें इंदौर को देवास से ब्रॉडगेज लाइन द्वारा जोड़ा जाना था। इसके अलावा कन्नौद, नेमावर, धार, अमझेरा, बेटमा तथा देपालपुर आदि स्थानों को इंदौर के साथ रेलमार्ग से जोड़ा जाना प्रस्तावित था। इंदौर को प्रमुख औद्योगिक व व्यापारिक नगर बनाने में उस रेलवे लाइन के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता, जो दूरदर्शी होलकर शासक के प्रयासों के फलस्वरूप बनकर तैयार हो सकी।