गांधी दूल्हा 1 लाख के दहेज के लालच में बड़वाह से मोटर में दौड़ पड़े!
मध्यभारत में इंदौर प्रारंभ से ही शिक्षा व शैक्षणिक गतिविधियों का अग्रणी केंद्र रहा। नगर में अनेक विद्यालयों व महाविद्यालयों की स्थापना ने नगर में एक बौद्धिक वातावरण निर्मित किया। शिक्षितजनों के लिए अपनी साहित्यिक गतिविधियां संचालित करने वाली कोई संस्था न थी।
सरदार माधवराव किबे, सेठ हुकुमचंदजी, सर सिरेमल बाफना, श्री गिरधार शर्मा, नवरत्न डॉ. सरजूप्रसाद तिवारी, श्री शिवसेवक तिवारी और डॉ. पंडित आदि के प्रयासों से महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) ने हिन्दी साहित्य समिति की स्थापना का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और 10 जनवरी 1915 को विधिवत इस संस्था की स्थापना हुई। संस्था को महाराजा की ओर से प्रतिवर्ष 2,500 रु. का अनुदान भी घोषित किया गया।
इंदौर के बुद्धिजीवियों एवं हिन्दीप्रेमियों के लिए यह स्थल एक प्रमुख केंद्र बन गया, किंतु भवन के अभाव में ग्रंथालय विकसित नहीं हो पा रहा था। इंदौर में भी उन दिनों राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियां जोर पकड़ती जा रही थीं। यहां के हिन्दी प्रेमी राष्ट्रवादियों ने महात्मा गांधी को इंदौर आमंत्रित किया।
नगर व इस संस्था के इतिहास में यह एक गौरवशाली पृष्ठ के रूप में अंकित रहेगा कि गांधीजी ने निमंत्रण स्वीकार किया व वे 30 मार्च 1918 ई. को इंदौर पधारे। नगर में उनका भव्य स्वागत हुआ। उसी दिन महात्मा गांधी के कर कमलों से हिन्दी साहित्य समिति भवन का शिलान्यास हुआ। हिन्दी को जन-जन की भाषा बनाने के प्रयास में सफलता पाने के लिए उन्होंने संस्था को आशीष दिया।
इस संस्था ने हिन्दी लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिवर्ष प्रोत्साहन राशि देने की परंपरा को जन्म दिया। 1928 तक इस प्रकार की प्रकाशित पुस्तकों के लेखकों को 5,000 रुपए प्रदान किए जा चुके थे।
1918 में संस्था का जो भवन निर्मित होना प्रारंभ हुआ था, वह 10 वर्षों में पूर्ण हुआ। राजकीय लागत से यह भवन निर्मित हुआ था। हिन्दी भाषा व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं को लोकप्रिय बनने के लिए इंदौर में 1932-33 में प्रथम हिन्दी संपादक सम्मेलन आयोजित किया गया, जो देशभर में अपने किस्म का प्रथम आयोजन था।
हिन्दी प्रचार-प्रसार के लिए इसी भवन में एक प्रेस भी स्थापित की गई और समिति की पत्रिका 'वीणा' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका ने अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति अर्जित की और आज भी देश की श्रेष्ठ हिन्दी पत्रिकाओं में इसी गणना की जाती है। हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों ने इसका संपादन किया है।
1935 में महात्मा गांधी हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु पुन: इंदौर पधारे थे, तब उन्होंने हिन्दी साहित्य समिति की प्रगति पर हार्दिक संतोष व्यक्त किया था। बापू की इस यात्रा के पूर्व समिति ने हिन्दी में कविता, नाटक, दर्शन शास्त्र, नैतिक शास्त्र, शरीर विज्ञान आदि विषयों पर रचना करने वाले साहित्यकारों को उनकी 29 पुस्तकों के लिए 16,000 रु. की राशि प्रदान कर पुरस्कृत किया था। संतोष व गौरव की बात है कि यह संस्था आज भी सुचारु रूप से चल रही है।
ट्रेन छोड़कर कार से इंदौर पहुंचे थे गांधीजी
इंदौर में हिन्दी साहित्य समिति के आमंत्रण पर गांधीजी 30 मार्च 1918 को इंदौर पधारे थे। दूसरी मर्तबा पुन: उन्हें अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 24वें अधिवेशन में भाग लेने हेतु इंदौर आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन का आयोजन भी हिन्दी साहित्य समिति के प्रांगण में किया गया था। मूलत: इस अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए पंडित मदनमोहन मालवीयजी को आमंत्रित किया गया था, किंतु उनकी अस्वस्थता के कारण गांधीजी को अध्यक्षीय दायित्वों का निर्वाह भी करना पड़ा।
देवास से उन दिनों 'मार्तण्ड' नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित होता था, जिसके कुछ अंक केंद्रीय संग्रहालय इंदौर में संरक्षित हैं। इस पत्र के प्रतिनिधि ने सम्मेलन की गतिविधियों का विस्तृत विवरण अपने पत्र में प्रकाशित किया है। पत्र ने अपनी टिप्पणी में लिखा-
'सम्मेलन के मनोनीत सभापतिजी हिन्दी के मेधावी पंडित नहीं हैं, परंतु उनका आत्मबल, उनका तप, उनकी सदिच्छा और उनका शुभाशीर्वाद; हिन्दी भाषा का उद्धार करने को, उसे राष्ट्रभाषा बनाने को, नहीं-नहीं उसे भारत-भाषा साम्राज्ञी बनाने को पूर्ण समर्थ, पूर्ण शक्तिशाली है।'
गांधीजी के इस सम्मेलन में शीघ्र पहुंचना चाहते थे। खंडवा से वे रेल द्वारा बड़वाहा पहुंचे। वहां से महू तक पर्वतीय क्षेत्र में चढ़ाई व बोगदों के कारण रेलगाड़ी बहुत धीमी गति से चलती थी। गांधीजी इंदौर तक पहुंचने के लिए अधीर थे। अत: उन्होंने बड़वाहा से इंदौर तक मोटर कार से यात्रा करने का निर्णय लिया।
'मार्तण्ड' लिखता है-
'गांधी दूल्हा 1 लाख के दहेज की लालच में बड़वाह से मोटर में दौड़ पड़े। रेलगाड़ी की धीमी चाल और इंदौर स्टेशन से मुकाम तक जाने में होने वाला विलंब भी वे न सह सके। एकदम दौड़कर तोरण मार दिया। बेचारे लोग दर्शन के प्यासे ही रह गए। केलव 100 रु. या उससे अधिक कन्यादान में देने वाले और दुल्हन के खास आत्मजनों को ही इस उत्सव का दृष्टिसुख नसीब हो सका।'
पत्र में गांधीजी के हिन्दी साहित्य समिति भवन में पहुंचने व उन्हें अध्यक्षीय सम्मान दिए जाने के विषय में लिखा गया-
'जब दुल्हन ही दूल्हे को वरमाला पहनाने को राजी हो तो दुल्हन के माता-पिता एवं आमजनों का नाक-भौंहें सिकोड़ना आज के कायदे के जमाने में कौन मानेगा? आखिर को हिन्दी के ही मन की रही। पंडित मालवीयजी को पीले चावल मिले-मिलाए व्यर्थ गए। दूसरों ने माला के लिए झुकाए सर खाली रह गए और जैसे पार्वती ने शंकर को वैसे ही हिन्दी ने लंगोटिया अवधूत के गले में वर-माला आज सुबह 8 बजे इंदौर हिन्दी साहित्य समिति भुवन में डाल दी और भवन हजारों करतल ध्वनि से गूंज उठा।
समिति भवन के प्रांगण में, उसके बाहर व मार्ग पर हजारों लोग महात्मा गांधी के दर्शन के लिए उमड़ पड़े थे। रेलवे स्टेशन पर उनकी प्रतीक्षा में खड़ी भीड़ को जब यह ज्ञात हुआ कि बापू मोटर कार से साहित्य समिति भवन आ पहुंचे हैं तो जन-समुदाय उस ओर उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़ा।
अप्रैल 1935 में इंदौर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी। सभास्थल पर पहुंचकर पहले उन्होंने खादी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। तत्पश्चात् वे सम्मेलन के मंच की ओर बढ़े। वहां एकत्रित हजारों लोगों ने करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया। मंच पर गांधीजी के साथ कस्तूरबा गांधी, मीरा बहन, श्री अमृतलाल ठक्कर आदि पधारे। मंच पर होलकर राज्य के प्रायमिनिस्टर, सर सेठ हुकुमचंदजी, श्रीयुत बै. काशीप्रसादजी जायसवाल भी उपस्थित थे।
गांधीजी को सभापति बनाए जाने का प्रस्ताव रखने वालों में श्री माखनलाल चतुर्वेदी, श्री हरिहर शर्मा (मद्रास) प्रमुख थे।
गांधीजी ने अपने भाषण में इंदौर के महाराजा यशवंतराव होलकर के भाषण को लक्ष्य कर कहा-
'भाषण में तो बहुत बातें कही गई हैं, अब उन्होंने कुछ अमली काम करना चाहिए। 1918 में श्रीमान भूतपूर्व होलकर नरेश ने 10,000 रु. की सहायता दी थी, अब भी उन्हें सहायता देनी चाहिए। सर सेठ हुकुमचंदजी से ही हम वही आशा रखते हैं। आज सुबह उन्होंने हार पहनाकर मेरा स्वागत किया, जो भी डोरे का था, तो भी मैं उसका तथा पहनाने वाले
की योग्यता परखता हूं। डॉ. सरजूप्रसाद भी शायद यहां आ गए हैं। इन तीनों सुयोग से पहले हिन्दी संसार में हलचल मची थी, ऐसा यहां आने पर मैंने सुना। यह सब कार्य हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ही हैं। ...यदि यहां यह सम्मेलन न होता तो मैं खाली न रहता और दक्षिण में प्रचार न होता। अत: उस संबंध के धन्यवाद का मैं हकदार नहीं, हिन्दी सम्मेलन ही है और अब भी यही परिस्थिति है। उस समय जैसा मैं अब भी सभापति हूं अत: इस नाते सब कार्य करना मेरा कर्तव्य है। साहित्य की वृद्धि के साथ-साथ हिन्दी प्रचार भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन न करे तो कौन करेगा?
सच में तो मैं हिन्दी कुछ नहीं जानता। मैं उसमें चंचू प्रवेश भी नहीं कर पाया हूं। लड़कियां भी मध्यमा, उत्तमा पास कर लेती हैं, परंतु यदि परीक्षा ली जाए तो मैं प्रथमा भी पास नहीं पर पाऊंगा। मैंने जो व्याख्यान लिखा था, उसे यदि शुद्ध न किया जाता तो यह हास्यास्पद होता।
परंतु लोगों ने मुझे चुना है, सम्मेलन का कार्य प्रचलित हो चुका है। इसका कारण हिन्दी के विद्वान ही सुनाएंगे। हिन्दी के आचार्य पंडित मालवीयजी इस कार्य के लिए निश्चित हो चुके थे, परंतु आपका स्वास्थ्य खराब होने से मैं फिर चुना गया।...'
(साप्ताहिक 'मार्तण्ड' 22-4-1935 से)
सम्मेलन के अवसर पर इंदौर हिन्दी साहित्य समिति के परिसर को दुल्हन की तरह सजाया गया था। नगर में भी स्थान-स्थान पर स्वागत द्वार बने थे। सम्मेलन का आयोजन तत्कालीन बिस्कोपार्क (वर्तमान नेहरू उद्यान) परिसर में किया गया था। उस सभास्थल का नाम 'हुकुमचंद नगर' रखा गया था। सम्मेलन स्थल के विषय में 'मार्तण्ड' नामक साप्ताहिक पत्र लिखता है-
'सम्मेलन के लिए, सभा-पंडप, कार्यकर्ताओं के कार्यालय, गणमान्य सज्जनों के निवास स्थान और खादी प्रदर्शनी का किलाकोट के साथ महात्माजी की कुटी आदि का प्रबंध इंदौर के बिस्कोपार्क अर्थात हुकुमचंद नगर में बड़ी कुशलता से किया गया था। दिन को तो यह स्थान डेरे, राहुटियां, शामियाने और मध्यवर्ती गुलक्यारियों और फव्वारों के कारण मुगल सम्राट की फौजी छावनी के सदृश्य प्रतीत होता था और रात्रि के समय विद्युत दीपावलिका एवं अन्य सजावट के कारण यह इंद्र का दरबार ज्ञात होता था।'
सम्मेलन का आयोजन बिस्कोपार्क में हुआ था
इंदौर में 20 अप्रैल 1935 से अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रारंभ हुआ था, जिसमें भाग लेने के लिए देशभर के हिन्दी के स्थापित विद्वान, लेखक व कवि इंदौर पधारे थे। इस सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी को सौंपी गई थी।
खुशनुमा वातावरण में सम्मेलन की कार्रवाई चल रही थी कि 21 अप्रैल को दोपहर लगभग पौने 3 बजे आसमान पर काले बादल घिर आए और उन्होंने जो कहर ढाया, उसका विवरण 'मार्तंड' ने इन शब्दों में व्यक्त किया- 'दोपहर को 2.45 बजे श्री बै. काशीप्रसादजी जायसवाल के सभापतित्व में इतिहास परिषद का कार्य होने वाला था। लोग समुदाय पंडाल में उपस्थित हो चुका था कि इतने में एकदम इंद्र और वायु देवता सम्मेलन पर कोप हो उठे और जोरों की पर्जन्यवृष्टि के साथ ओले बरसने लगे।
लोगों में भगदड़ मची, वायु भी चल पड़ी, सर्वत्र जलमय हो गया। सभा-मंडप का कुछ हिस्सा टूटकर गिर पड़ा। एक डेरा भी सो गया। खद्दर प्रदर्शनी में तो तहलका-सा मच गया। व्यापारियों का बहुत-सा सामान खराब हो चुका था। प्रदर्शनी ध्वस्त हो गई। प्रदर्शनी की अत्यंत शोचनीय दशा हो गई।
इधर इतिहास परिषद एक बॉर्डर टेंट के सहारे से खुले मैदान बीच में जैसे-तैसे सपन्न की गई। व्याख्यानदाताओं में महात्मा गांधी, बैं. जायसवालजी और डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार उल्लेखनीय हैं।'
इस इन्द्र प्रकोप के पश्चात भी सम्मेलन की कार्रवाई निर्धारित समय पर पूरी हुई और बापू सायंकाल 5 बजे तक वहीं रहे। रात्रि को होने वाला कवि सम्मेलन अवश्य स्थगित कर दिया गया। अगले दिन की कार्रवाई के लिए बड़ी तत्परतापूर्वक 'टाउन हॉल' में व्यवस्था की गई।'
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की घोषणा
अप्रैल 1935 में इंदौर नगर में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसका सभापतित्व महात्मा गांधी ने किया। मंच पर पूरी ईमानदारी से उन्होंने स्वीकारा कि अच्छी हिन्दी उन्हें स्वयं को नहीं आती। उनकी मातृभाषा गुजराती थी, तथापि उस दूरदर्शी महापुरुष ने हिन्दी के संभावित विकास-विस्तार को आंका था। सम्मेलन के मंच पर से संबोधित करने हुए गांधीजी ने कहा-
'साहित्यिक दृष्टि से बंगला भाषा का प्रथम स्थान है, बाद में मराठी आदि होने पर प्राय: हिन्दी का जो भी चतुर्थ स्थान है तो भी अब यह सिद्ध हो चुका है कि राष्ट्रभाषा होने का अधिकार तो हिन्दी का ही है।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार व साहित्य की अभिवृद्धि के लिए एक हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना का विचार रखा गया, जिसके लिए होलकर महाराजा से उदारतापूर्वक दान देने का आग्रह करते हुए बापू ने कहा-
'हिन्दी प्रचार के संबंध में मतभेद जो भी हुआ तो भी मैं तो यही कहता हूं कि श्रीमंत महाराजा साहेब, जो कुछ सम्मेलन को दृव्य दे, वह सर्वप्रथम हिन्दी विश्वविद्यालय को ही दें, परंतु उस यह अवश्य देख लें कि उसके कार्यकर्ता उत्साही और योग्य हैं। धनी-मानी सज्जन भी जो दृव्य दें, वह भी प्रथम विश्वविद्यालय के लिए ही, बाद में दक्षिण विभाग के लिए।
मेरे दिल में विरोध नहीं है, परंतु सभापति की हैसियत से मैं यही कहता हूं कि साहित्य सम्मेलन कर्तव्य में और समता भाव में धब्बा न आने दूंगा और नियम विरुद्ध कार्य न करूंगा। अन्यथा मैंने यह जुम्मेदारी लेना व्यर्थ है। पद मंजूर किया है तो मैंने बोझ भी उठाना चाहिए, यह आप विश्वास रखें।'
काका साहेब कालेलकर का हिन्दी भाषा से घनिष्ठ संबंध है। उन्होंने दक्षिण में बहुत काम किया है। कहा जाता है कि संस्कृत से निकली सब भाषाओं का व्याकरण एक-सा होता है, परंतु दक्षिण की भाषाएं द्रविड़ी से निकली होने से उनका साम्य हिन्दी से नहीं है। परंतु संस्कृत शुद्ध बहुत है और त्रुटियों की परिपूर्ति हिन्दी शुद्ध लेकर की जाती है।
सब भारतीय भाषाओं की लिपि देवनागरी करने की सूचना मुझे योग्य प्रतीत होती है। इससे बहुत सुभिता होगी किंतु ऐसा कहने में देरी दृष्टि संकुचित न समझ लें। दक्षिण में हिन्दी का प्रचार करते हुए वहां बहुत विरोध हुआ है, परंतु इतना होते हुए भी वहां हिन्दी का प्रचार हआ। इस संबंध का हिन्दी भाषियों को गर्व होना चाहिए।
कोई कहते हैं, हिन्दी राष्ट्रभाषा होने से प्रांतीय भाषा का महत्व घट जाएगा, परंतु इतमीनान रखें हिन्दी प्रांतीय भाषा का स्थान नहीं लेना चाहती। मैं अनुरोध करता हूं कि इस आशय का एक प्रस्ताव भी इस सम्मेलन में पास किया जाए तो ठीक होगा।
हिन्दी राष्ट्रभाषा सर्वसाधारण की हिन्दी भाषा होनी चाहिए। न तो उसमें संस्कृत शब्द ठूंस-ठूंसकर भरना योग्य होगा और न उर्दू-फारसी ही। क्या गद्य में, पद्य में मुसलमानों को त्यागकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना स्वपुष्पवत (असंभव) होगा। वह ग्रामीणजनों की भाषा होनी चाहिए।
कुल आठ प्रस्ताव पारित हुए हिन्दी के पक्ष में
इंदौर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने दिनांक 21-4-1935 को करते हुए सम्मेलन के प्रतिनिधियों के समक्ष कुछ प्रस्ताव रखे तथा कुछ प्रतिनिधियों की ओर से आए।
सभापतित्व का निर्वाह करते हुए बापू ने दो प्रस्ताव रखे।
* पहला प्रस्ताव हिन्दी के उन स्वर्गीय सेवकों के लिए दु:ख प्रदर्शनार्थ और उनके परिवारजनों के साथ संवेदना प्रकट करने के लिए रखा गया। सबने एक मिनट के लिए खड़े होकर मौन धारण किया।
* दूसरा प्रस्ताव भी गांधीजी की ओर से आया था जिसमें नियमानुसार सम्मेलन को 1000 रु. की सहायता देने के कारण श्रीयुत नारायणप्रसादजी राजुरी को समिति का सदस्य बनाने का आग्राह था। प्रस्ताव पारित किया गया।
* तीसरा प्रस्ताव श्री रामाज्ञाजी द्विवेदी ने किया, जिसमें कहा गया कि यह सम्मेलन राजपुताना, अजमेर, मेरवाड़ा, मध्यभारत तथा ग्वालियर आदि स्थानों के शिक्षा बोर्डों से अनुरोध करता है कि इंटरमीडिएट परीक्षा का माध्यम हिन्दी रखे। प्रो. गुप्ता ने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि योग्य लेखकों द्वारा पुस्तकें हिन्दी में लिखी जाएं, प्रकाशक उन्हें छापें व विद्यार्थी उन्हें खरीदें तभी हिन्दी माध्यम करना उचित होगा। यह प्रस्ताव सम्मेलन ने सर्वसम्मति से पारित किया।
* अगला प्रस्ताव उक्त विद्यालय एक खास कायदे द्वारा होलकर स्टेट से सम्मानित किया जाने के संबंध में अनुरोधात्मक और उसमें हिन्दी माध्यम द्वारा एम.ए. तक की शिक्षा दिए जाने के संबंध में था।
* इंदौर राज्य की अदालतों में हिन्दी भाषा का प्रचलन तो था ही, सम्मेलन ने अपने सातवें प्रस्ताव द्वारा न्यायालयों के निर्णय भी हिन्दी में लिखे जाने का अनुरोध किया।
* आठवें प्रस्ताव में हिन्दी के लेखक विद्वानों से अनुरोध किया गया कि वे दक्षिण भारत की विभिन्न भाषाओं का अध्ययन भी करें, जिससे राष्ट्रीय भाषागत एकता कायम हो। उक्त सभी प्रस्ताव इंदौर के सम्मेलन में, कुछ विवादों व बहसों के बाद पारित कर दिए गए।
घोर अव्यवस्था रही महिला सम्मेलन में
अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 24वां सम्मेलन इंदौर में 1935 में संपन्न हुआ था। इसमें भाग लेने देशभर के हिन्दी लेखक, विद्वान, कवि व साहित्यप्रेमी उपस्थित हुए थे। महात्मा गांधी के अलावा बैरिस्टर काशीप्रसाद जायसवाल, डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकर, पंडित रामचंद्रजी शुक्ल, श्री हरिवंशराय बच्चन, पं. रामनरेश त्रिपाठी, ठाकुर लक्ष्मणसिंह, पंडिेत गिरधर शर्मा (मद्रास), डॉ. देशपांडे, सूरजमलजी जैन, डॉ. गोरखप्रसाद, माखनलालजी चतुर्वेदी, सर सेठ हुकुमचंदजी, डॉ. सरजूप्रसाद व अन्य अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति इस सम्मेलन में उपस्थित हुए थे।
देशभर से आईं महिला प्रतिनिधियों की अच्छी-खासी संख्या सम्मेलन में थी। हिन्दी साहित्य के सृजन, प्रकाशन व वितरण आदि प्रमुख मुद्दों में महिलाओं की भूमिका पर विचार करने के लिए एक पृथक महिला सभा आयोजित की गई थी। इस सभा में महिलाओं की संख्या इतनी अधिक हो गई थी कि इंदौर का टाउन हॉल छोटा पड़ गया। वस्तुत: यह सम्मेलन बिस्को पार्क में लगे विशाल पंडाल में होना था किंतु एक दिन पूर्व आई आंधी-वर्षा ने सब व्यवस्था तहस-नहस कर दी थी। इसलिए यह आयोजन अस्थाई तौर पर टाउन हॉल (वर्तमान गांधी हॉल) में रखा गया।
इस सम्मेलन के तमाम कार्यक्रमों में पहले तो पत्रकारों को भाग लेने की अनुमति ही नहीं दी गई, किंतु जब वे महात्मा गांधी के पास गए और उनसे आग्रह किया तो सभास्थल पर एक हिस्सा पत्रकारों के बैठने के लिए दिया गया। एक पत्रकार की कलम ने महिला सभा का आंखों देखा हाल इस प्रकार कलमबद्ध कर लिया था-
'इस परिषद के आदि से अंत तक इतना हल्ला और धींगा-धींगी होती रही कि किसी को सिवा हल्ले के कुछ भी नहीं सुनाई दिया। मंच पर होने वाली कार्रवाई देख पड़ती थी, परंतु स्त्री वक्ताओं के भाषण उस मंच पर भी सुना जाना असंभव था। ठीक 3.50 बजे श्रीमती मीरा बहन और श्रीमती कस्तूरबा गांधी आईं और उनके लिए निश्चित की गई गद्दी पर बैठ गईं।
हल्ला अधिक बढ़ा, कुछ समय बाद सौ. महारानी साहेबा, सौ. चंद्रावती बाई, मां साहेबा और श्री बड़ी मां साहेबा का भी आगमन हुआ। सबके लिए भिन्न-भिन्न गद्दियां लगाई गई थीं। महारानी, सौ. उनकी सास की सास इस प्रकार राजपरिवार की तीनों पीढ़ियां उस समय वहां विराजमान थीं।
स्वागताध्यक्ष श्रीमती सौ. कंचनबाई (धर्मपत्नी राव राजा सर सेठ हुकुमचंदजी, इंदौर) ने अपना भाषण बड़ी जोर की आवाज से लाउड स्पीकर की सहायता से पढ़ा, परंतु शोरगुल के आगे उनका कुछ न चला। भाषण पढ़ दिया गया, किंतु सुनाई न दिया। उसमें सबका स्वागत कर श्रीमंत सौ. महारानी साहेबा से इस सम्मेलन को उद्घाटित करने का अनुरोध किया गया।...
इसके पश्चात महारानी साहेबा ने अपना भाषण पढ़कर सुनाया और परिषद का उद्घाटन किया जाना जाहिर किया। शोरगुल का ठिकाना न था। इसी प्रकार श्रीमती सौ. कमला बाई साहेब किबे का सभानेत्री का प्रस्ताव भी न सुन पड़ा। अब सभानेत्री मीरा बहन की बारी आई। उन्होंने भी बहुत प्रयत्न किया, भाषण दिया भी, परंतु वही हाल। कुछ न सुन पड़ा। महात्माजी को मौन था तो भी महिलाओंके दर्शनार्थ उन्हें लाया गया। वे आए। शांति के बहुत इशारे किए और चले भी गए, परंतु अशांति और हो-हल्ला ज्यों का त्यों बना रहा।'
ऐसे अस्थिर वातावरण में महिला सम्मेलन संपन्न हुआ। इस अव्यवस्था को समाप्त करने के लिए ताबड़तोड़ पंडाल की व्यवस्था की गई और उस रात्रि के कार्यक्रम जब वहां आयोजित किए गए तो सब कुछ शांतिपूर्ण संपन्न हुआ। महिला सम्मेलन में व्याप्त अव्यवस्था का कारण स्थानाभाव था।