फिर धरती को पहनाएं हरी चुनर-धानी
प्रकृति के उपहार हैं गर्मी-धरती-पेड़-पानी
प्रकृति-प्रदत्त तोहफों में यह सर्वदा सत्यापित है कि जो भी परिवर्तन होते हैं, वह अचानक या एकदम नहीं होते वरन् वे परिवर्तन धीरे-धीरे होते हैं। धीरे-धीरे होने वाला हर कार्य ठोस और मजबूत होता है, स्थिर होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति-प्रदत्त विकास या विस्तार स्थाई स्वरूप का, स्थायित्व लिए होता है। प्रकृति-परिवर्तन में दशकों लगते हैं तो उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था को फिर बदलना शताब्दियों का काम होता है। इसीलिए, पुरातन काल में यह मान्यता थी कि प्रकृति से छेड़छाड़ करना मतलब अपना जीवनकाल नरक में डालना बराबर है। तात्पर्य यह कि आपने प्रकृति को सहेजा है तो आपको पृथ्वी पर ही स्वर्ग मिल जाएगा और यदि आप प्रकृति के प्रति निर्मम रह अत्याचार करते हैं तो धरती का स्वर्ग, नरक बनते देर नहीं लगेगी।
दरअसल, प्रकृति स्वयं बेहद दयालु है, कृपालु है। उसे सहेजना मतलब उसकी उपेक्षा नहीं करना है। यदि आपने इतना कर लिया तो फिर आप प्रकृति से अपेक्षा रख सकते हैं और वह आपको कभी निराश नहीं करती वरन् आपकी अपेक्षा पर सदैव खरी उतरती है।