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Written By कमल शर्मा

ब्‍लॉग चर्चा : ‘ख्‍वाब का दर’

ब्‍लॉग चर्चा : ‘ख्‍वाब का दर’ -
ब्‍लॉग की दुनिया इतनी तेजी से बढ़ रही है कि उसको सीमाओं में बाँध पाना असंभव है। यह केवल अपनी बात कहने भर का जरिया नहीं है, बल्कि एक मिशन बन गया है, जिसमें हथियार होते हैं, ब्‍लॉगर्स के शब्‍द। ऐसे ही शब्‍दों का जाल है- ‘ख्‍वाब का दर’ और इस बार हमारी ब्‍लॉग चर्चा में शामिल है पंकज पराशर का यह ब्‍लॉग। आओ थोड़ा बतिया लें की तर्ज पर अब आओ ब्‍लॉगिया लें की परंपरा चल पड़ी है। ब्‍लॉगियाने की उसी परंपरा की अगली कड़ी-

ब्‍लॉग पड़ताल : 2004 में शुरु हुआ पंकज पराशर का ‘ख्‍वाब का दर’, जिस दर पर बातें ख्‍वाब की होती हैं, लेकिन वह हकीकत से भी दो
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कदम आगे है। ब्‍लॉग की पंच लाइन में ही कहा गया है- ‘’बेहद खतरनाक होता है अपने ख्‍वाब का दर बंद रखना।‘’ यह सच भी है, हर किसी की आँखों में ख्‍वाब होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि हर ख्‍वाब पूरा हो, पर यह सोच कर लोग सपने देखना छोड़ नहीं देते। कहते हैं ना- कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्‍थर तबीयत से उछाल कर तो देखो। ऐसी ही कुछ सोच के साथ इस ब्‍लॉग की शुरुआत की गई, जिसमें मनोरंजन, साहित्‍य, संगीत से इतर सामाजिक सरोकारों से लोगों को जोड़ने का प्रयास किया गया।


‘पाकिस्‍तान में मुहाजिरों का हाल’ आलेख हाल ही में इस ब्‍लॉग में डाला गया, जिसकी कुछ पंक्तियाँ सोचने को बाध्‍य करती है- ‘’आजादी की साठवीं सालगिरह मनाते हुए हम शायद उन लोगों को भूल रहे हैं जो भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के कारण अपनी आँखों में नएमुल्क का ख्वाब लिए हुए भारत से पाकिस्तान गए और वहाँ जाकर मुहाजिर कहलाए। जो आज के पाकिस्तान यानी पश्चिमी पाकिस्तान गए वे मुहाजिर कहलाए और जो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश गए वे वहाँ जाकर बिहारी मुसलमान कहलाए। धर्म एक है, खुदा एक है बावजूद इसके इन साठ सालों में भी उनका अपना वतन कहीं नहीं है।‘’

-भोपाल की पटिया संस्‍कृति
-राम नाम को कण-कण में बसाने की परंपरा
-ये किस्‍सा है रोने रुलाने के काबिल
-नया ज्ञानोदय की परिचय पच्‍चीसी, आदि आलेखों में अलग-अलग विषयों को चुना गया है, लेकिन सबका सुर एक ही है- सरोकार। जो भोपाल की मिटती पटिया संस्‍कृति में भी दिखता है और साहित्‍कारों के नए टीआरपी रोग से उपजी समस्‍या ये किस्‍सा रोने रुलाने में बखूबी दिखता है।

रात्रि से रात्रि त

सूरज ढलते ही लपकती है
सिंगारदान की ओर
और घंटी बजते ही खोलकर दरवाज़ा
मधुशालीन पति का करती है स्वागत
व्योमबालाई हँसी के साथ
जल्दी-जल्दी थमाकर चाय का प्याला
घुस जाती है रसोई में
खाना बनाते बच्चों से बतियाते होमवर्क कराते हुए
खिलाकर बच्चों को पति को
फड़फड़ाती है रात भर कक्ष-कफ़स में तन-मन से घायल ......पंकज पराशर की स्‍वरचित इस कविता की इन पंक्तियों का स्‍वर भी स्‍त्री सरोकारों के करीब है।

ख्‍वाब के दर पर दस्‍तक : पेशे से पत्रकार पंकज पराशर बिहार के सहरसा जिले के छोटे से क्षेत्र से तालुल्‍क रखते हैं। अपने मित्रों की सलाह पर ही उन्‍होंने ब्‍लॉग की दुनिया में कदम रखा था, लेकिन यह दुनिया उन्‍हें रास आई और अब वे इसे एक मंच की तरह इस्‍तेमाल कर रहे हैं। वर्तमान में साहित्यिक पत्रिका ‘कादंबिनी’ में सीनियर कॉपी एडिटर की पद पर कार्यर‍त हैं।

ब्‍लॉग : ‘खवाब का दर’
URL : http://khwabkadar.blogspot.com/