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Written By मनीष शर्मा

क्यों हो इससे अंजान सबसे पहले हो इंसान

क्यों हो इससे अंजान सबसे पहले हो इंसान -
बात 1 जनवरी 1966 की है। दिल्ली में 7, सफदरजंग रोड के सामने धवल निवास के बगीचे में प्रेस कॉन्फ्रेंस चल रही थी। दो सौ से अधिक पत्रकार एक महिला पर प्रश्नों की बौछार कर रहे थे। वे भी बड़ी सावधानी से हर सवाल का जवाब दे रही थीं। तभी एक साथ कुछ लोगों ने सवाल किया कि प्रधानमंत्री बनने पर एक महिला होने के नाते आप कैसा अनुभव करती हैं।

इस प्रश्न पर वे झल्लाकर बोलीं- इस काम के लिए मैं खुद को महिला नहीं समझती। यदि किसी महिला के पास किसी काम को करने की योग्यता है तो उसे वह करने देना चाहिए। वे आगे बोलीं- मैं 'नारी स्वातंत्र्य' की समर्थक नहीं हूँ क्योंकि पहले मैं इंसान हूँ।

भारतीय संविधान में भी लिंग, भाषा और राज्य के आधार पर सभी नागरिकों को समान माना गया है। मैं भी भारत की एक नागरिक मात्र हूँ। तभी उनकी शारीरिक कमजोरी और स्वास्थ्य को लेकर एक सवाल आया। इस पर वे बोलीं- जिन लोगों ने मुझे बढ़ते देखा है वे जानते हैं, मैं कितनी नाजुक और कितनी मजबूत हूँ। यदि मेरी बनावट नाजुक होती तो क्या मैं बच पाती? बचपन से ही मैंने जितना कठिन जीवन जिया है, उस तरह का जीवन जीने वाला आपको शायद ही मिलेगा।
बात 1 जनवरी 1966 की है। दिल्ली में 7, सफदरजंग रोड के सामने धवल निवास के बगीचे में प्रेस कॉन्फ्रेंस चल रही थी। दो सौ से अधिक पत्रकार एक महिला पर प्रश्नों की बौछार कर रहे थे। वे भी बड़ी सावधानी से हर सवाल का जवाब दे रही थीं।


दोस्तों, आप समझ ही गए होंगे कि वे महिला कौन थीं। जी हाँ, श्रीमती इंदिरा गाँधी। जिन्होंने अपने जज्बे से साबित कर दिखाया कि वे किसी से कम नहीं, कमजोर नहीं। यहाँ तक कि बाद में तो उनकी दृढ़ता को देखकर विपक्ष के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उन्हें 'दुर्गा' का खिताब दे दिया था। उन्हें 'लौह महिला' माना गया, संबोधित किया गया। इंदिराजी जैसी हस्तियों ने दिखा दिया कि नारी को दुर्बल और कमजोर कहना एक दोषारोपण है। यह नारी के प्रति पुरुषों का अन्याय है।

प्रधानमंत्री बनने के दो साल बाद जब उनसे पूछा गया था कि राजनीति में स्त्री होना अड़चनभरा है या फायदेमंद, तो उन्होंने कहा था- मैं नहीं सोचती कि मेरे स्त्री होने से किसी प्रकार का कोई फर्क पड़ता है। यह फिर से लोगों को खानों में बंद करना है। यदि आप कहते हैं कि फलाँ काम केवल पुरुष के लिए है, क्योंकि उसके पास उसे पूरा करने के गुण हैं, क्षमताएँ हैं जो किसी स्त्री के पास नहीं हैं। तो ये गुण क्या हैं? शारीरिक शक्ति? नहीं।

यदि आप दुर्बलताओं की तलाश में हैं तो ये दुर्बलताएँ आप किसी भी इंसान में पा सकते हैं। मैं नहीं सोचती कि किसी देश के शासन प्रमुख को स्वयं को किसी वर्ग विशेष का मानना चाहिए। कितनी सही बात कही थी इंदिराजी ने।
इसलिए यदि कोई महिला अपने आपको कमजोर समझती है तो हमारा उनसे आग्रह है कि वे इंदिराजी के बताए अनुसार पहले अपने आपको इंसान मानें, जो कि आप हैं भी। जब हैं तो 'मानना' कहना भी गलत है। जो है उसे स्वीकारें। कहते हैं कि पुरुषों के पास दृष्टि होती है तो नारी के पास अंतर्दृष्टि, जो उसे मिलती है अपनी छठी इंद्रिय से।

इस अंतर्दृष्टि की वजह से ही आज की नारी हर क्षेत्र में दूसरों से श्रेष्ठ कर रही है, झंडे गाड़ रही है। तो फिर आप क्यों पीछे रहना चाहती हैं। आप किसी भी जगह पर, किसी भी स्तर पर काम कर रही हैं, उसे एक इंसान, एक व्यक्ति बनकर करें। फिर देखें कमाल।

दूसरी ओर, जब कोई महिला अच्छा करती है तो कहा जाता है कि देखो वो भी पुरुषों की तरह जुझारू है। ऐसा कहना भी स्त्री जाति का अपमान है। इस तरह बचपन से ही उनके दिमाग में यह भर दिया जाता है कि नारी की अपेक्षा पुरुष श्रेष्ठ होता है और वह जो करता है, वही श्रेष्ठ होता है। यह गलत है। आप सोचें, जब हम कहते हैं कि खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी। क्या यहाँ 'मर्दानी' शब्द यह नहीं बताता कि लड़ा सिर्फ मर्दों की तरह ही जा सकता है। क्या शौर्य किसी की बपौती हो सकता है। नहीं ना। तो कहना चाहिए ना कि रानी वैसे ही लड़ी जैसे रणभूमि में एक योद्धा को लड़ना चाहिए। फिर वह चाहे कोई नर हो या नारी। यह समानता का भाव ही हमें विकास के पथ पर बढ़ा सकता है, बढ़ा रहा है।

और अंत में, आज इंदिराजी और रानी लक्ष्मीबाई की जयंती है। आज इन दोनों को याद करते हुए आप यह प्रण करें कि आज से आप पहले अपने को इंसान समझेंगी, बाद में कुछ और।