अभिनय के साथ-साथ निर्माता के रूप में भी अनुष्का शर्मा सक्रिय हैं। अलग किस्म की कहानियों पर उनकी निगाह रहती है जिसे कम बजट के साथ वे बनाती हैं। 'एनएच 10' नामक उन्होंने पहली फिल्म बनाई थी, जिसे सराहना के साथ-साथ बॉक्स ऑफिस पर भी सफलता मिली थी। उत्साहित होकर अनुष्का ने 'फिल्लौरी' नामक फिल्म बनाई है।
कनाडा मे रहने वाला कनन (सूरज शर्मा) अपनी बचपन की दोस्त अनु (मेहरीन पीरज़ादा) के साथ शादी के लिए अमृतसर आता है। कुंडलियां मिलाई जाती हैं तो पता चलता है कि वह मांगलिक है। उपाय बताया जाता है कि पेड़ से इसकी शादी करा दी जाए। कनन को यह रस्म बड़ी अजीब लगती है, लेकिन बड़ों के आगे उसकी नहीं चलती।
पेड़ से शादी होती है और बाद में पेड़ को काट दिया जाता है। इस शादी के बाद कनन की जिंदगी में भूचाल आ जाता है। शशि (अनुष्का शर्मा) का भूत उसे नजर आने लगता है। जिस पेड़ से कनन की शादी हुई होती है उसी पर शशि रहती थी। शशि का मानना है कि अब उसकी शादी कनन से हो गई है इसलिए वह अब कनन से बंध गई है।
शशि की भी अपनी कहानी है। लगभग सौ वर्ष पूर्व पंजाब के एक गांव में वह एक गायक से प्यार करती थी। शशि की प्रेम कहानी का क्या हुआ? वह भूत कैसे बनी? कैसे कनन को भूत से छुटकारा मिला? इन प्रश्नों के जवाब फिल्म में मिलते हैं।
अंविता दत्त द्वारा लिखी गई इस फिल्म का निर्देशन अंशय लाल ने किया है। फिल्म की कहानी अच्छी है जो एक कुरीति का उपहास उड़ाती है। वर्तमान दौर और सौ साल पहले की दो प्रेम कहानियां दिखाती है, लेकिन स्क्रीनप्ले और प्रस्तुतिकरण में यह फिल्म कमजोर पड़ जाती है। कुछ सवालों के जवाब नहीं मिलते और कन्फ्यूजन भी पैदा होता है। शादी को लेकर कनन के असमंजस को कुछ ज्यादा ही खींचा गया है और इसके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं दिए गए हैं।
इंटरवल तक फिल्म में कुछ भी नहीं बताया गया है कि यह सब क्यों हो रहा है? कुछ मनोरंजक दृश्यों के जरिये निर्देशक ने दर्शकों को फिल्म से जोड़े रखने की कोशिश की है, लेकिन ये इतने दिलचस्प भी नहीं हैं और कुछ सीन बोर करते हैं। पंजाबी शादी के दृश्य दर्शक कई बार देख चुके हैं। इंटरवल के बाद कहानी में थोड़े उतार-चढ़ाव आते हैं। शशि की प्रेम कहानी दिलचस्पी जगाती है, लेकिन फिल्म को इतना लंबा खींचा गया है कि बोरियत भी पैदा होने लगती है। आखिर के पन्द्रह मिनट में फिल्म फिर संभलती है। क्लाइमैक्स को इतिहास की एक घटना से जोड़ना कई लोगों को बेतुका भी लग सकता है। थोड़े शब्दों में कहा जाए तो फिल्म लगातार हिचकोले खाती रहती है।
निर्देशक के रूप में अंशय लाल फिल्म को संभालने के लिए पूरा जोर लगाते हैं। कभी वे उम्दा गाने का सहारा लेते हैं। कभी उन्हें अभिनेताओं और सिनेमाटोग्राफर का साथ मिलता है, लेकिन फिल्म में निरंतरता नहीं बनी रहती है। कहानी अतीत और वर्तमान में बार-बार शिफ्ट होती रहती है और यह झटकों की तरह महसूस होते हैं।
सकारात्मक पहलुओं की बात की जाए तो फिल्म में कुछ उम्दा सीन भी हैं। शशि की प्रेम कहानी अंत में अच्छी लगती है और उसके दर्द को महसूस किया जा सकता है। दम दम और साहिबा जैसे बेहतरीन गाने सुनने को मिलते हैं। शशि भूत के रूप में पहले सीन से ही पसंद आने लगती है। उसे भूत के रूप में जिस तरीके से पेश किया है वो सराहनीय है। वे क्यूट लगती हैं, डरावनी नहीं। बच्चे भी उसे देख सकते हैं।
अनुष्का शर्मा का अभिनय सराहनीय है। दिलजीत दोसांझ खास प्रभावित नहीं कर पाए। सूरज शर्मा ने तरह-तरह के चेहरे बना कर दर्शकों को हंसाया है। मेहरीन पीरज़ादा अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। फिल्म का संपादन ढीला है। सिनेमाटोग्राफी शानदार है। कलर स्कीम और कैमरा एंगल्स का अच्छा उपयोग किया गया है। हालांकि कुछ शॉट्स में अंधेरा ज्यादा हो गया है।