यथार्थवादी धारा की फिल्मों को नई पहचान दिलाने वाले सत्यजीत रे 20वीं सदी में विश्व की महानतम फिल्मी हस्तियों में एक थे, जिन्हें सर्वोत्तम फिल्म निर्देशकों में गिना जाता है और जिन्होंने भारतीय सिनेमा को विश्व में अलग पहचान दिलाई।
चित्रकार के रूप में अपने करियर की शुरुआत करने वाले सत्यजीत रे का इतालवी फिल्म बाइसिकल थीफ देखने के बाद फिल्म निर्देशन की ओर रुझान हुआ और सिने जगत को एक बेहतरीन फिल्मकार मिल गया।
उनका फिल्मी सफर पाथेर पांचाली से शुरू हुआ। इस पहली फिल्म ने ही जता दिया कि सिनेमा जगत में एक अलग हस्ती का आगमन हो चुका है। इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले और इसकी गणना उनकी प्रसिद्ध फिल्मों में होती है। उन्होंने करीब तीन दर्जन फिल्मों का निर्देशन किया। उन्हें भारत रत्न और मानद ऑस्कर अकादमी पुरस्कार सहित कई सम्मान मिले।
कहानीकार-चित्रकार-संगीतकार भी थे
कलकत्ता (अब कोलकाता) के एक बंगाली परिवार में 2 मई 1921 को पैदा हुए सत्यजीत रे फिल्म निर्माण से संबंधित कई काम खुद ही करते थे। इनमें पटकथा, पार्श्व संगीत, कला निर्देशन, संपादन आदि शामिल हैं। फिल्मकार के अलावा वे कहानीकार, चित्रकार, फिल्म आलोचक भी थे। सत्यजीत रे का मानना था कि कथानक लिखना निर्देशन का अभिन्न अंग है।
साहित्यिक कृतियों के साथ किया न्याय
साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में अकसर आलोचना का विषय बन जाती हैं और लोग फिल्मों में उनके रूपांतरण से संतुष्ट नहीं होते, लेकिन सत्यजीत रे ने साहित्यिक कृतियों के साथ बखूबी न्याय किया है। मिसाल के तौर पर शतरंज के खिलाड़ी को देखा जा सकता है।
प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी पर इसी नाम से बनी फिल्म में उस समय का पूरा युग बोलता है। 1857 की पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म में अवध की संस्कृति बेहतरीन रूप से उभरकर सामने आई है।
प्रेमचंद अपनी कहानी में उस युग के बारे में जो कहना चाहते हैं, सत्यजीत रे की फिल्म में वह और स्पष्ट रूप से सामने आया है। फिल्म का विस्तार या फैलाव कहानी की तुलना में अधिक स्पष्ट है।
दरअसल सत्यजीत रे कितने बड़े निर्देशक थे, इसका पता शतरंज के खिलाड़ी फिल्म देखकर लगता है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की इस कहानी के अंत में दिखाया गया है कि दो नवाब आपस में लड़ते हुए मर जाते हैं। इस कहानी के जरिये दिखाया गया है कि अंग्रेजों के आने से नवाबी सभ्यता खत्म हो जाती है।
रे ने इस कहानी को एक नया अर्थ प्रदान करते हुए इसका अंत बदल दिया। फिल्म के अंत में नवाबों की भूमिका निभाने वाले संजीव कुमार और सईद जाफरी एक-दूसरे पर गोली चलाते हैं, लेकिन दोनों बच जाते है। लिहाजा रे ने यह तथ्य स्थापित करने का प्रयास किया कि भले ही नवाबी सभ्यता खत्म हो गई हो, लेकिन उसकी बुराइयाँ आज भी समाज में बरकरार हैं।
सत्यजित रे ने एक साक्षात्कार में इस फिल्म के बारे में कहा था कि उन्हें हिन्दी नहीं आती। यदि उनकी इस भाषा पर पकड़ होती, तो शतरंज के खिलाड़ी फिल्म दस गुना बेहतर होती।
बाल मनोविज्ञान पर पकड़
समीक्षकों के अनुसार सत्यजीत रे ने न केवल फिल्मों, बल्कि रेखांकन के जरिये भी अपनी रचनात्मक ऊर्जा को बखूबी अभिव्यक्त किया। बच्चों की पत्रिकाओं और पुस्तकों के लिए बनाए गए रे के रेखाचित्रों को कला समीक्षक उत्कृष्ट कला की श्रेणी में रखते हैं।
रे की बाल मनोविज्ञान पर जबरदस्त पकड़ थी और इस बात का परिचय उनकी फेलूदा कहानियों की श्रृंखला में मिलता है। इस श्रृंखला की कहानियों में सरसता, रोचकता और पाठकों को बाँधकर रखने के सारे तत्व मौजूद हैं।
रे का 23 अप्रैल 1992 को निधन हो गया। वे दर्जनों फीचर फिल्मों के अलावा कई वृत्तचित्र और लघु फिल्में छोड़ गए हैं, जो सिनेमा के छात्रों के लिए पाठ्यपुस्तक हैं।